द्विवेदी युग का नामकरण, प्रवृत्तियॉं प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाऍं

द्विवेदी युग: हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग के बाद का समय को द्विवेदी युग का नाम दिया गया है। इस युग का नाम महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से रखा गया है। डॉ. नगेन्द्र ने इस युग को ‘जागरण-सुधार काल’ भी कहा जाता है तथा इसकी समयावधि 1900 से 1918 ई. तक माना। वहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग को ‘नई धारा: द्वितीय उत्थान’ के अन्तर्गत रखा है तथा समयावधि सन् 1893 से 1918 ई. तक माना है।

द्विवेदी युग

महावीर प्रसाद द्विवेदी एक महान साहित्यकार थे, जो बहुभाषी होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रुचि रखते थे। उन्होंने सरस्वती का 18 वर्षों तक संपादन कर हिन्दी पत्रकारिता में एक महान कीर्तिमान स्थापित किया था। वे हिन्दी के पहले व्यवस्थित समालोचक थे, जिन्होंने समालोचना की कई पुस्तकें लिखी थीं। वे खड़ीबोली हिन्दी की कविता के प्रारंभिक और महत्वपूर्ण कवि थे। आधुनिक हिन्दी कहानी उन्हीं के प्रयत्नों से एक साहित्यिक विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकी थी। वे भाषाशास्त्री, अनुवादक, इतिहासज्ञ, अर्थशास्त्री तथा विज्ञान में भी गहरी रुचि रखने वाले थे। अत: वे युगांतर लाने वाले साहित्यकार थे या दूसरे शब्दों में कहें, युग निर्माता थे। वे अपने चिन्तन और लेखन के द्वारा हिन्दी प्रवेश में नव-जागरण पैदा करने वाले साहित्यकार थे।

    द्विवेदी युग का समय

    डॉ० नगेन्द्र ने द्विवेदी काल को 'जागरण सुधार काल' नाम से अभिहित किया और इसकी समयावधि 1900 से 1918 ई० तक माना। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग को 'नई धारा : द्वितीय उत्थान' के अन्तर्गत रखा है तथा समयावधि सन् 1893 से 1918 ई० तक माना है। तथा कहींं कही इसकी समय अवधि 1900 से 1920 ई० तक भी देखने को मिलती हैं।


    द्विवेदी युग का नामकरण

    डॉ. शिवकुमार शर्मा के शब्दों में, परिवर्तन युग के सबसे महान युग के प्रवर्तक पुरुष एवं नायक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। इस युग की कोई भी साहित्यिक आन्दोलन गद्य अथवा पद्य का ऐसा नहीं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इससे प्रभावित न हुआ हो। महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम पड़ा। इन्हीं के सम्पादन काल में जिन हिन्दी कवियों का उदय हुआ उनसे निश्चित रूप से हिन्दी कविता गौरवान्वित तथा महिमाशाली बनी।


    द्विवेदी युग की प्रमुख प्रवृत्तियां


    द्विवेदीयुगीन काव्य प्रवृत्तियाँ निम्न है:-


    देशप्रेम की भावना

    द्विवेदीयुगीन कवियों ने जनमानस के बीच राष्ट्रप्रेम की लहर चलाई। स्वतंत्रता के प्रति जनमानस में चेतना जा संचार किया। रचनाकारों का राष्ट्रप्रेम भारतेन्दु युग की भाँति सामयिक रुदन से नहीं जुड़ा है, बल्कि समस्याओं के कारणों पर विचार करने के साथ-साथ उनके लिए समाधान ढूँढने तक जुड़ा है


    सामाजिक समस्याओं का चित्रण

    यह युग सुधारवादी युग भी कहलाता है। इस युग के कवियों ने सामाजिक समस्याओं; यथा—दहेज प्रथा, नारी उत्पीड़न, छुआछूत, बाल विवाह आदि को अपनी कविता का विषय बनाया। 


    नैतिकता एवं आदर्शवाद

    द्विवेदीयुगीन काव्य आदर्शवादी एवं नीतिपरक है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी नैतिकता एव आदर्श के प्रबल पक्षधर थे। रीतिकालीन शृंगारिकता यहाँ दिखाई नहीं पड़ती। 'हरिऔध' कृत 'प्रियप्रवास', मैथिलीशरण कृत 'साकेत', 'रंग में भग', 'जयद्रथ वध' व रामनरेश त्रिपाठी कृत 'मिलन' आदर्शवादी कृतियाँ हैं।


    इतिवृत्तात्मकता

    इतिवृत्तात्मकता का अर्थ है वस्तु वर्णन या आख्यान की प्रधानता। आदर्शवाद तथा बौद्धिकता की प्रधानता के कारण द्विवेदी युग के कवियों ने वर्णन प्रधान इतिवृत्तात्मकता को अपनाया। 

    सभी काव्य रूपों का प्रयोग

    द्विवेदी युग में लगभग सभी काव्य रूपों का प्रयोग हुआ। प्रबन्ध, मुक्तक, प्रगति प्रभृति सभी काव्यरूपों में रचना हुई। हिन्दी के अनेक श्रेष्ठ खण्डकाव्य इसी युग में लिखे गए। द्विवेदी युग में सभी कवि मुक्तक रचना की ओर प्रवृत्त हुए। छोटे-छोटे विषयों को लेकर स्वतन्त्र पद्यों की रचना हुई। 


    भाषा परिवर्तन

    इस युग में काव्य की मुख्य भाषा खड़ी बोली रही। इस युग के कवियों ने खड़ी बोली में काव्योपयुक्तता के सन्देह को दूर कर दिया। ‘जयद्रथ वध' की प्रसिद्धि ने ब्रज भाषा के मोह का वध कर दिया। 'भारत भारती' की लोकप्रियता खड़ी बोली की विजय भारती सिद्ध हुई। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के अनुसार इस युग की भाषा सुबोध, शुद्ध व रसानुरूप है।


    छन्द विविधता

    इस युग में वर्ण्य विषय के समान छन्दों में भी विविधता स्पष्ट दिखाई देती है। इस तुग के कवि दोहा, कविता या सवैया तक ही सीमित नहीं रहे, कुण्डलिया, सार, बल्कि रोला, छप्पय, गीतिका, हरिगीतिका, लावनी, वीर आदि छन्द भी प्रयुक्त हुए। 


    द्विवेदी युग के प्रमुख कवि के नाम 

      1. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
      2. मैथिली शरण गुप्त
      3. राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण’
      4. पं. नाथू राम शर्मा
      5. पं. रामचरित उपाध्याय
      6. पं. लोचन प्रसाद पांडेय
      7. पं. गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’
      8. पं. राम नरेश त्रिपाठी
      9. लाला भगवानदीन ‘दीन’ 
      10. गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’
      11. सैयद अमीर अली ‘मीर’
      12. पं. रूप नारायण पांडेय
      13. पं. सत्य नारायण ‘कविरत्न’
      14. वियोगी हरि
      15. बाल मुकुंद गुप्त
      16. श्रीधर पाठक
      17. मुकुटधर पांडेय तथा 
      18. अयोध्या सिंह उपाध्याय
      19. कामता प्रसाद गुरू
      20. ठाकुर गोपालशरण सिंह
    यह भी देखें:-

    द्विवेदी युग के प्रमुख कवि का परिचय

    आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

    आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार और एक युगप्रवर्तक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की साथ ही अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण ही आधुनिक हिंदी साहित्य के इस युग को 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने सत्रह वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का सम्पादन किया। हिन्दी नवजागरण में भी उनकी महान भूमिका रही। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।

    राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

    राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी साहित्‍य के एक प्रसिद्ध कवि थे तथा इन्‍हें हिंदी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। उन्हें हिंदी साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी जी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' का दर्जा भी दिया। उनकी जयन्ती को हर वर्ष ३ अगस्त को 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। उन्‍हें भारत सरकार द्वारा सन् १९५४ में पद्मभूषण से सम्मानित किया।

    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के कवि, निबन्धकार और एक सम्पादक भी थे। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति के रूप में भी कार्य किया। वे सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये गए थे। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी का पहला महाकाव्य प्रिय प्रवास लिखा जिसे मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया था।


    लोचन प्रसाद पाण्डेय

    लोचन प्रसाद पाण्डेय (4 जनवरी, 1887 - 18 नवम्बर,1959 ई.) हिन्दी साहित्‍य के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्होंने हिन्दी तथा उड़िया दोनों भाषाओं में काव्य रचनाएँ भी की हैं। सन 1905 से इनकी कविताएँ 'सरस्वती' तथा अन्य मासिक पत्रिकाओं में झपने लगी थीं। लोचन प्रसाद पाण्डेय की कुछ रचनाएँ कथाप्रबन्ध के रूप में तथा कुछ फुटकर के रूप में है। वे 'भारतेंदु साहित्य समिति' के भी ये सदस्य थे। मध्य प्रदेश के साहित्यकारों में इनकी विशेष प्रतिष्ठा थी। आज भी इनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है।

    राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’

    राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ (सन् 1868-1915 ई.) का जन्म जबलपुर में हुआ था। तथा उन्‍होंने यहॉं पर ही बी.ए. एल.एल.बी. तक की शिक्षा प्राप्त कर कुछ दिनों तक वकालत की और बाद में कानपुर चले गए। वकालत के साथ-साथ ये सार्वजनिक कार्यों में अति उत्साह के साथ सम्मिलित होते थे। ये संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। वेदांत में विशेष रूचि थी। व्यावसायिक तथा सामाजिक क्रियाकलापों की व्यस्तता में रहते हुए भी साहित्याध्ययन एवं प्रणयन में सदैव दत्त-चित्त थे।

    श्रीधर पाठक

    श्रीधर पाठक (११ जनवरी १८५८ - १३ सितंबर १९२८) प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के हिन्दी कवि थे। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, सहृदय, उदार, नम्र, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (1915, लखनऊ) के सभापति रहे तथा उन्‍हें 'कविभूषण' की उपाधि से विभूषित भी किया गया। हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था।


    श्री रामचरित उपाध्याय

    रामचरित उपाध्याय हिन्दी कवि एवं साहित्यकार थे। उपाध्याय जी का जन्म सन् १८७२ में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में हुआ था। प्रारंभ में वह ब्रजभाषा में कविता करते थे। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के प्रोत्साहन से इन्होंने खड़ी बोली में रचना प्रारंभ की और इनकी रचनाएँ 'सरस्वती' तथा हिंदी की अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। यह राष्ट्रीय जागरण का युग था। इन्होंने 'भारत भक्ति ','राष्ट्रभारती' तथा 'भव्य भारत ' जैसी युगानुरूप रचनाएँ करके राष्ट्रीय जागरण में योगदान दिया।


    रामनरेश त्रिपाठी

    रामनरेश त्रिपाठी (4 मार्च, 1889 - 16 जनवरी, 1962) हिन्दी भाषा के कवि एवं साहित्यकार थे। कविता, कहानी, उपन्यास, जीवनी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी पर उन्होंने कलम चलाई। उन्होंने 72 वर्ष के अपने जीवन काल में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं। ग्राम गीतों का संकलन करने वाले वह हिंदी साहित्‍य के प्रथम कवि थे जिसे 'कविता कौमुदी' के नाम से जाना जाता है। इस कार्य के लिए उन्होंने गांव-गांव जाकर, रात-रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को सुना और चुना। वह गांधी के जीवन और कार्यो से अत्यन्त प्रभावित थे। उनका कहना था कि मेरे साथ गांधी जी का प्रेम 'लरिकाई को प्रेम' है और मेरी पूरी मनोभूमिका को सत्याग्रह युग ने निर्मित किया है। 'बा और बापू' उनके द्वारा लिखा गया हिंदी का पहला एकांकी नाटक है। ‘स्वप्न’ पर इन्हें हिंदुस्तानी अकादमी का पुरस्कार मिला।


    द्विवेदी युग के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं

    कवि रचना
    नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ अनुराग रत्न, शंकर सरोज, गर्भरण्डा रहस्य, शंकर सर्वस्व
    श्रीधर पाठक वनाष्टक, काश्मीर सुषमा, देहरादून, भारत गीत, जार्ज वंदना (कविता), बाल विधवा (कविता)
    महावीर प्रसाद द्विवेदी काव्य मंजूषा, सुमन, कान्यकुब्ज अबला-विलाप
    ‘हरिऔध’ प्रियप्रवास, पद्यप्रसून, चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल, रसकलस, वैदेही वनवास
    राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण देशी कुण्डल, मृत्युंजय, राम-रावण विरोध, वसन्त-वियोग
    रामचरित उपाध्याय राष्ट्र भारती, देवदूत, देवसभा, विचित्र विवाह, रामचरित-चिन्तामणि
    गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही डो’ कृषक क्रन्दन, प्रेम प्रचीसी, राष्ट्रीय वीणा, त्रिशूल तरंग, करुणा कादंबिनी।
    लोचन प्रसाद पाण्डेय प्रवासी, मेवाड़ गाथा, महानदी, पद्य पुष्पांजलि
    मुकुटधर पाण्डेय पूजा फूल, कानन कुसुम
    मैथिली शरण गुप्त रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत भारती, पंचवटी, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया
    रामनरेश त्रिपाठी मिलन, पथिक, स्वप्न, मानसी
    बाल मुकुन्द गुप्त स्फुट कविता
    लाला भगवानदीन ‘दीन’ न’ वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर पंचरत्न, नवीन बीन


    निष्कर्षत: 

    इस युग के कवियों ने हिन्दी काव्य को शृंगारिकता से राष्ट्रीयता, रूढ़िवादिता से स्वच्छन्दता और जड़ता से प्रगति की ओर ले जाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। द्विवेदीयुगीन चेतना, राष्ट्रीय प्रेम, सामाजिक चेतना, भक्ति, प्रकृति और भाषा सभी स्तरों पर प्रखर दिखाई पड़ती है। यहाँ राष्ट्रभक्ति राजभक्ति के आवरण में लिपटी नहीं है न ही इस युग के रचनाकारों ने काव्य विषय के रूप में विदेशी सत्ता को कहीं वरीयता दी नवजागरणपरक चेतना से आविर्भूत राष्ट्रीय प्रेम भारत के गौरवपूर्ण अतीत से जुड़ा है, जो वर्तमान की पराधीनता को छिन्न-भिन्न करने के लिए अतीत को भारतीय संस्कृति के जीवन्त मूल्यों से प्रेरणा लेने की कोशिश में जुटा हुआ है।


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