भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल), उदय के कारण, प्रमुख सम्प्रदाय व वर्गीकरण | bhakti kaal

भक्ति काल (पूर्व मध्यकाल): हिन्दी साहित्य के इतिहास के आदिकाल के बाद आये काल 'पूर्व मध्यकाल' भी कहा जाता है। इसकी समयावधि 1375 वि.सं से 1700 वि.सं तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग मान जाता है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा है। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी में प्राप्त होती हैं। 

bhakti kaal


मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया गया है-

(1) पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल

(2) उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल। 

     भक्ति काल (Bhakti Kaal)

    • शुक्लजी ने संवत् 1375 वि. से 1700 वि. तक के काल-खंड को ही हिंदी साहित्य का भक्तिकाल कहा है। 
    • डॉ. नगेन्द्र के अनुसार भक्तिकाल की समय सीमा 1350 ई. से 1650 ई. तक मानी है।

    भक्ति आन्दोलन के उदय के कारण

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-

    1. शुक्‍ल जी मानते है कि देश में मुसलमानों का शासन स्थापित होने के परिणामस्‍वरूप हिन्दू जनता हताश, निराश एवं पराजित हो गई और पराजित मनोवृत्ति में ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक था।
    2. हिन्दू जनता ने अपनी भक्तिभावना के माध्यम से आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाकर पराजित मनोवृत्ति का शमन किया।
    3. तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों ने भी भक्ति के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। नाथ, सिद्ध योगी अपनी रहस्यदर्शी शुष्क वाणी में जनता को उपदेश दे रहे थे। भक्ति, प्रेम आदि ह्रदय के प्राकृत भावों से उनका कोई सामंजस्य न था। भक्तिभावना से ओतप्रोत साहित्य ने इस अभाव की पूर्ति की।
    4. भक्ति का उदय दक्षिण भारत से हुआ था। जहाँ 7वीं शती में आलवार भक्तों ने जो भक्ति-भावना प्रारंभ की उसे उत्तर भारत में फैलने के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हुईं।


    अन्य विद्वानों के मत-

    1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्लजी के मत को नकारते हुए कहा कि भक्तिभावना पराजित मनोवृत्ति की उपज नहीं है और न ही यह इस्लाम के बलात प्रचार के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। उनका तर्क यह है कि हिन्दू सदा से आशावादी जाति रही है तथा किसी भी कवि के काव्य में निराशा का पुट नहीं है।
    2. डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार-"भक्ति द्राविडी ऊपजी लाए रामानंद।"
    3. सर जार्ज ग्रियर्सन भक्ति आन्दोलन का उदय ईसाई धर्म के प्रभाव से मानते है। उनका मत है कि रामानुजाचार्य को भावावेश एवं प्रेमोल्लास के धर्म का सन्देश ईसाइयों से मिला।
    4. रामानुजाचार्य, रामानंद, निम्बार्काचार्य, बल्लभाचार्य जैसे विद्वानों ने अपने सिध्दांतों की स्थापना के द्वारा भक्तिभाव एवं अवतारवाद को दृढ़तर आयामों पर स्थापित किया, जिसे सूर, कबीर, मीरा, तुलसी ने काव्य रूप प्रदान किया।

    आलवार भक्त

    तमिल भाषा में आलवार भक्तों को वैष्णव भक्त कहा जाता है। तमिल प्रान्त में बौध्दों और जैनों का विरोध करने के लिए शैवों (नयनार) और वैष्णवों (आलवार) ने मिलकर एक धार्मिक क्रांति की। आस्तिक भावों का प्रचार करके भक्ति भावना को जगाना इनका उद्देश्य था। आलवारों ने वेद, उपनिषद्, गीता से गृहीत भक्ति भावों को गीतों के माध्यम से जनता तक पहुंचाया।

    आलवारों की संख्या 12 मानी जाती है- 

    1. सरोयोगी

    2. भूतयोगी

    3. भ्रान्तयोगी

    4. भक्तिसार

    5. शठकोप

    6. मधुर कवि

    7. कुलशेखर,

    8. विष्णुचित

    9. गोदा

    10. भक्तान्घ्रिरेनु

    11. मुनिवाहन

    12.परकाल। 

    • इनके तमिल नाम भिन्न हैं। इनके लिखे 4000 पदों का संकलन 'दिव्य प्रबन्धम' नाम से किया गया है।


    भक्ति काव्य के प्रमुख सम्प्रदाय एवं उनका वैचारिक आधार

    भक्ति का भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार करने में वैष्णव आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैष्णव भक्ति को स्थापित करने वाले आचार्य 11वीं से. 16वीं शती तक की समयावधि के है। 

    वैष्णव भक्ति के प्रमुख आचार्य निम्नलिखित है:-

    रामावत सम्प्रदाय

    • रामावत सम्प्रदाय का प्रवर्तन रामानन्द ने किया। 
    • रामानन्द का जन्म 'श्री भक्त सटीक' के अनुसार 1368 ई. में प्रयाग में कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में हुआ।
    • इनके गुरु राघवानन्द थे। 
    • भक्तमाल के अनुसार रामानन्द के 12 शिष्य थेजिनका वर्णन इस प्रकार है- अनन्तानन्द, सुखानन्द, सुरसुरानन्दभावानन्दनरहर्यानन्द, पीपा, कबीर, धन्ना, रैदास, पद्मावती, सेना व सुरसुरी।
    • रामानन्द के गुरु राघवानन्द जी ने 'सिद्धान्त पंचमात्रा' नामक ग्रन्थ की रचना की।


    श्री सम्प्रदाय

    • श्री सम्प्रदाय का प्रवर्तन श्री रामानुजाचार्य ने किया। इनसे गोस्वामी तुलसीदास सर्वाधिक प्रभावित थे।
    • रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना की। इन्होंने अवतारी राम को अपनी विष्णुभक्ति का उपास्य देव स्वीकार किया। इनका मत था कि पुरुषोत्तम ब्रह्म सगुण और सविशेष है।
    • वे भक्ति को ही मुक्ति का साधन स्वीकार करते हैं। इनका कहना था कि व्यक्ति को 'दास्यभाव' से पर प्रभु की सेवा करनी चाहिए। 


    ब्रह्म सम्प्रदाय

    • मध्वाचार्य का सम्प्रदाय ब्रह्म सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है।
    • इनका जन्म दक्षिण भारत के बेलिग्राम नामक स्थान पर हुआ। ये अद्वैतवाट के घोर विरोधी थे। 
    • इन्होंने द्वैतवाद की स्थापना की। इनके मत में भगवान विष्णु आठ गुणों से युक्त व सर्वोच्च तत्त्व है।   


    रुद्रसम्प्रदाय

    • रुद्र सम्प्रदाय का प्रवर्तन श्री विष्णु स्वामी ने किया।
    • डॉ. भण्डारकर के अनुसार, इनका जन्म 13वीं शताब्दी में हुआ। 
    • इनके मतानुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। माया ईश्वर के अधीन ही रहती है। इनकी मान्यता है कि ईश्वर का प्रधान अवतार 'नृसिंह' है। दार्शनिक दृष्टि से इनका दर्शन शुद्धाद्वैत कहलाता है। 
    • इनके प्रमुख शिष्य वल्लभाचार्य थे।


    रसिक सम्प्रदाय

    • निम्बार्काचार्य का सम्प्रदाय रसिक या सनकादि है।
    • इसमें राधा-कृष्ण युगल उपासना का विधान है। 
    • ये भक्ति को ही मुक्ति का साधन मानते हैं तथा विष्णु के अवतार रूप कृष्ण इनके उपास्य हैं।
    • इनका दार्शनिक सिद्धान्त भेदाभेदवाद या द्वैताद्वैतवाद कहलाता है।


    वल्लभ सम्प्रदाय

    • श्री वल्ल्भाचार्य ने वल्लभ सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। 
    • इनका जन्म रायपुर जिले के चम्पारण नामक स्थान पर हुआ था।
    • इनका समस्त जीवन उत्तर भारत में बीता। ये तेजस्वी महात्मा थे। इनका सम्प्रदाय आज स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध है।
    • दार्शनिक दृष्टि से इस सम्प्रदाय का शुद्धाद्वैत सिद्धान्त कहलाता है।


    अन्य सम्प्रदाय व उनके आचार्य

    सम्प्रदाय आचार्य का नाम
    हरिदासी (सखी) सम्प्रदाय स्वामी हरिदास
    अद्वैतवाद शंकराचार्य
    राधा वल्लभी सम्प्रदाय स्वामी हितहरिवंश
    गौड़ीय सम्प्रदाय चैतन्य महाप्रभु


    भक्तिकाल का वर्गीकरण

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के भक्तिकाल को दो धाराओं में वर्गीकरण किया है-

    1. निर्गुण धारा- (अ) संत काव्य, (ब) सूफी काव्य।

    2. सगुण धारा- (अ) राम काव्य, (ब) कृष्ण काव्य।


    यह भी देखें:- 

    Bhakti kaal FAQ :-

    प्रश्‍न: भक्तिकाल के प्रमुख कवि कौन है?

    उत्‍तर: भक्तिकाल में सगुणभक्ति एवं निर्गुण भक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं - कबीरदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास,  हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी,स्वामी हरिदास, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, सूरदास मदनमोहन, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास।


    प्रश्‍न: भक्ति काल कितने प्रकार के होते हैं?

    उत्‍तर: भक्ति काल की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं :

    1. निर्गुण धारा- (अ) संत काव्य, (ब) सूफी काव्य।

    2. सगुण धारा- (अ) राम काव्य, (ब) कृष्ण काव्य।


    प्रश्‍न: भक्ति काल की भाषा क्या थी?

    उत्‍तर: भक्तिकालीन हिंदी काव्य की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा है। 


    प्रश्‍न: भक्ति काल को स्वर्ण क्यों कहा जाता है?

    उत्‍तर: भक्ति काल के ग्रंथों में भक्ति संबंधित रचनाओं के साथ-साथ काव्य के आवश्यक अंग रस, छन्द, अलंकार, बीम्ब, सोरठा, प्रतीक दोहा, योजना रुपक भाव का सुन्दर चित्रण हुआ है। इस प्रकार इस काल का महत्व साहित्य और भक्ति भावना दोनों ही दृष्टियों से बहुत अधिक है। इसी कारण इस काल को स्वर्ण युग कहा जाता है।


    प्रश्‍न: भक्ति काल का दूसरा नाम क्या है?

    उत्‍तर: भक्ति काल को 'पूर्व मध्यकाल' भी कहा जाता है।


    क्या आप जानते हैं:-

    छायावाद किसे कहते हैं?