आलोचना का अर्थ, प्रकार, विशेषताएं एवं प्रमुख आलोचना और आलोचक

Alochana in hindi: आलोचना किसी विषय या वस्‍तु की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण व दोषों एवं उसके उपयुक्तता का विवेचन करना ही आलोचना है। इस पोस्‍ट में हम आलोचना का अर्थ, आलोचना किसे कहते है, तथा आलोचना की परिभाषा, आलोचना के प्रकार और आलोचना का हिंदी साहित्‍य में क्‍या हमत्‍व है, को जानेंगे।  

आलोचना का अर्थ, प्रकार, विशेषताएं एवं प्रमुख आलोचना और आलोचक

आलोचना शब्द से अभिप्राय

आलोचना शब्द 'लुच' धातु से बना है, और 'लुच' का अर्थ है-देखना, यथा किसी वस्तु या कृति की सम्यक् व्याख्या, उसका मूल्यांकन आदि करना ही आलोचना है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्त निरूपण से स्वतन्त्र है। आलोचना का कार्य है, किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना।


हिन्दी आलोचना का अर्थ

आलोचना से तात्पर्य किसी वस्तु या विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखकर उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्तता की विवेचन करना है। सामान्यतः आलोचना का अर्थ दोष दर्शन के रुप में लिया जाता है, जबकि आलोचना का अर्थ गुण व दोष दोनों पर प्रकाश डालना होता है।


आलोचना की परिभाषा

आलोचना के सन्दर्भ में भारतीय विद्वानों ने अपने मत दिये है, इनमें से कुछ विद्वानों के मत इस प्रकार है:-

1. डॉ. गुलाब राय का अभिमत है, “आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उनकी रुचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गतिविधि निर्धारित करने में योगदान देना है।"

२. डॉ. श्यामसुन्दर दास का कथन है कि, “साहित्य-क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है।"

३. आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार, ''सत्य, शिवं, सुंदरम् का समुचित अन्वेषण, पृथक्करण, अभिव्यंजना ही आलोचना है।''

४. डॉ. भगीरथ मिश्र के अनुसार, ''आलोचना का कार्य कवि और उसकी कृति का यथार्थ मूल्य प्रकट करना है।''

५. आई. ए. रिचर्ड्स के अनुसार, ''आलोचना साहित्यिक अनुभूतियों के विवेकपूर्ण विवेचन के उपरांत उनका मूल्यांकन करती है।''

६. मैथ्यु अर्नाल्ड के अनुसार, ''वास्तविक आलोचना में यह गुण रहा करता है कि उसमें समग्र निष्पक्षता से बौद्धिक सामर्थ्य का प्रदर्शन किया जाए।''


हिंदी आलोचना का उद्भव एवं विकास 

19वीं सदी में खड़ी बोली हिंदी गद्य साहित्य के विकास के साथ-साथ ही आलोचना का उद्भव और विकास आरंभ हुआ। हिंदी आलोचना का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। हिंदी के मानक स्वरूप को निर्धारित करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी आलोचना के विकास को नयी दिशा और गति प्रदान की। हिंदी आलोचना के प्रतिमान निर्धारण में रामचंद्र शुक्ल प्रस्थान बिंदु माने जाते हैं। वास्तव हिंदी आलोचना का सुसंगत विकास शुक्ल युग से ही माना जाता है। हिंदी आलोचना की यह विचार-प्रक्रिया नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नगेंद्र, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पांडे आदि के माध्यम से विकसित होते हुए समकालीन विमर्शों तक पहुँचती है।


आलोचना के प्रकार

आलोचना करते समय जिन मान्यताओं और पद्धतियों को स्वीकार किया जाता है, उनके अनुसार आलोचना के कई प्रकार विकसित हो जाते हैं। मुख्यतः आलोचना के दो प्रकार हैं

1. सैद्धान्तिक आलोचना

सैद्धान्तिक आलोचना में साहित्य के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है। ये सिद्धान्त शास्त्रीय या ऐतिहासिक कुछ भी हो सकते है। इस पद्धति में आलोचक शास्त्र के विषय में सिद्धान्त स्थापित करता है, उसमें साहित्य के मानदण्ड विषयक चिन्तन होता है। साहित्य के मूल को पहचान कर उसमें सम्बन्ध रखने वाले सिद्धान्त स्थिर किए जाते हैं।


2. व्यावहारिक आलोचना 

जब सिद्धान्तों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाए, तो उसे व्यावहारिक आलोचना का नाम दिया जाता है। व्यावहारिक आलोचना निम्न प्रकार की हो सकती है

(a) व्याख्यात्मक आलोचना 
(b) जीवन-चरितात्मक आलोचना
(c) ऐतिहासिक आलोचना 
(d) रचनात्मक आलोचना 
(d) प्रभाववादी आलोचना 
(e) तुलनात्मक आलोचना 

        उपरोक्त प्रकार के आलावा भी आलोचना के कई प्रकार हो सकते है।


समकालीन हिन्दी आलोचना

'समकालीन' का अर्थ है- 'एक समय में रहने या होने वाला' अर्थात् एक समय में घटित होने वाली। समकालीन आलोचना की विशेषता यह रही है कि वह रचना या कृति को उसकी समग्रता में देखने व परखने की पक्षधर रही है। समकालीन आलोचना अस्तित्ववाद की सीमाओं का अतिक्रमण करती है। साथ ही समाज और सौन्दर्य की नवीन धारणाओं का स्वागत व उनका समर्थन करती है।

समकालीन आलोचना में काफी वैविध्य है, लेकिन आलोचकों में अपने आग्रह, विचार और विविधता के बावजूद यह कोशिश दिखाई देती है कि अन्तर्वस्तु और रचना-शिल्प की दृष्टि से एक समावेशी और समेकित आलोचना दृष्टि का विकास किया जा सके। इस समय के आलोचकों में सुधीश पचौरी, नामवर सिंह, मलयज, बच्चन सिंह, निर्मला जैन, विश्वनाथ त्रिपाठी, परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल, रमेश चन्द्र शाह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नन्दकिशोर आचार्य, प्रभाकर श्रोतिय, अशोक वाजपेयी और मैनेजर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।


समकालीन आलोचना के विविध प्रकार

हिन्दी साहित्य और संवेदना के विकास क्रम में समकालीन आलोचना के विविध प्रकार हैं:-

१. सौष्ठववादी या स्वच्छन्दतावादी

स्वच्छन्दतावादी दृष्टि की मूलभूत विशेषता साहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, रूढ़ियों और अप्रासंगिक होती हुई, लेखन परम्पराओं से विद्रोह है। स्वच्छन्दतावादी आलोचना में आत्मसृजन, वैयक्तिकता, कल्पनाशीलता और स्वानुभूति को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया गया है। 

 २. मार्क्सवादी आलोचना

हिंदी आलोचना में मार्क्स के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा है। स्वच्छन्दतावादी के प्रभाव को समाप्त करने का कार्य मार्क्सवादी आलोचकों ने ही किया है। मार्क्सवादी आलोचना के क्षेत्र में भी हिन्दी के कई आलोचकों का नाम लिया जाता है। डॉ. रामविलास शर्मा का नाम इसने सबसे पहले लिया जाता है। इनके अतिरिक्त शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, प्रकाश चन्द्रगुप्त, अमृतराय आदि इसी वर्ग के आलोचक हैं।

३. मनोविश्लेषणवादी आलोचना

मनोविज्ञान से प्रभावित होकर हिन्दी आलोचना की रचनाओं में विश्लेषण की प्रवृत्ति जागृत हुई। जिसे मनोविश्लेषणवादी नाम दिया गया। इसमें अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी एवं देवराज उपाध्याय आदि आलोचक इसी वर्ग हैं। 

४. रसवादी आलोचना

संस्कृत काव्यशास्त्र की मूल दृष्टि रसवादी ही रही है, लेकिन आचार्य शुक्ल ने रसवादी चिन्तन को लोकमंगल से जोड़ा है। शुक्ल ने रसवादी चिन्तन को लोकमंगल से जोड़कर हिन्दी आलोचना की प्रवृत्ति को नई दिशा प्रदान की।

नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेन्द्र ने इस रसवादी परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

५. नई समीक्षा

नई समीक्षा अनेक दृष्टियों और प्रवृत्तियों के समाहार वाली आलोचना है। समाहार रूप में नई समीक्षा आज के परिवेश में एक नई परम्परा निर्माण की आकांक्षी है।

६. अस्तित्ववादी आलोचना

अस्तित्ववादी आलोचना में व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व पर संकट, क्षणिक अनुभव, उसके आन्तरिक सत्य के उद्घाटन की प्रवृत्ति विकसित हुई। अज्ञेय, डॉ. रघुवंश, धर्मवीर भारती आदि आलोचकों में अस्तित्ववादी प्रभाव देखा जा सकता है।

७. आधुनिकतावादी आलोचना

इसके अन्तर्गत साहित्य में वस्तु यथार्थ के ऊपर अनुभव की प्रामाणिकता, परम्परा और शास्त्रीय नियमों के स्थान पर प्रयोग और नवीनता, सत्यता के स्थान पर ईमानदारी और गतिशील, मानव चेतना एवं व्यापकता से अधिक गहराई पर बल देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।


आलोचना की विशेषताएं

आलोचना की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-

१. वस्तुनिष्ठता- किसी भी आलोचना में वस्तुनिष्ठता का होना अति आवश्यक है। क्‍योंकि वस्‍तुनिष्‍ठता के द्वारा ही आलोचक अपने व्यक्तिगत विचारों अथवा भावनाओं से मुक्त होकर किसी विषय या वस्‍तु की आलोचना कर सकें। 

२. उपयोगीता- आलोचना का उद्देश्य होता है कि वह किसी वस्तु या विषय को समझाना अथवा उसका मूल्यांकन करना, जिससे आलोचना पाठकों या दर्शकों को उस विषय या वस्‍तु के प्रति जागरूक हो और उसका सही अर्थ समझने में पाठक को मदद मिलें। 

३. विवेचनात्मकता- आलोचना में आलोचक द्वारा किसी भी विषय या वस्‍तु का विवरणात्मक अध्ययन किया जाता है साथ ही उस विषय/वस्‍तु के विभिन्न पक्षों को ध्‍यान में रखते हुए उसकेे गुण-दोषों का  विश्लेषण करता है।

५. सृजनात्मकता- आलोचना किसी भी विषय/वस्‍तु का एक अलग नजरिये से देखती है जिसके उस विषय/वस्‍तु का नवीन एवं सार्थक अर्थ मिलता है। अत: हम कह सकते है कि अलोचना एक सृजनात्मक क्रिया है। 

आलोचक के गुण 

आलोचना काे लिखते समय एक अच्छे आलोचक में कई गुणों का होना आवश्‍यक है, जिससे आलोचना के गुण व दोषों का यर्थात् रूप से वर्णन कर पाये, जिससे आलोचना का उद्देश्‍य का पूरा हो सकें। अत: एक अलोचक में निम्‍न गुणों का होना आवश्यक होता है:- 

१. निष्पक्षता, 

२. साहस, 

३. सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण, 

४. इतिहास और वर्तमान का सम्यक ज्ञान, 

५. देशी-विदेशी साहित्य और 

६. कलाओं का ज्ञान, 

७. संवेदनशीलता, 

८. अध्ययनशीलता और 

९. मननशीलता इत्‍यादि। 

हिन्दी की आलोचना और आलोचक

हिंदी साहित्‍य के प्रमुख आलोचक एवं उनकी आलोचना निम्‍न है:-  

S.No. आलोचक आलोचना
1 पद्मसिंह शर्मा बिहारी सतसई की भूमिका
2 निराला रवींद्र कविता कानन, पंत और पल्लव
3 भारतेन्दु नाटक
4 शिवसिंह सेंगर शिवसिंह सरोज
5 पंत गद्यपथ, शिल्प और दर्शन, छायावादः पुनर्मूल्यांकन
6 रामचंद्र शुक्ल काव्य में रहस्यवाद, रस मीमांसा, गोस्वामी तुलसीदास, भ्रमरगीत-सार, जायसी ग्रंथावली की भूमिका
7 कृष्ण बिहारी मिश्र देव और बिहारी
8 श्यामसुंदर दास साहित्यालोचन, रूपक रहस्य, भाषा रहस्य
9 बाबू गुलाबराय सिद्धांत और अध्ययन, काव्य के रूप, नवरस
10 रामविलास शर्मा निराला की साहित्य साधना (तीन भाग), भारतेंदु हरिश्चंद्र, भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा, भाषा और समाज, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, आचार्य शुक्ल, लोकजागरण और हिंदी साहित्य, नई कविता और अस्तित्ववाद
11 रामकुमार वर्मा साहित्य समालोचना
12 हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर, सूर साहित्य, हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य का आदिकाल
13 नंददुलारे वाजपेयी नया साहित्य नए प्रश्न, प्रकीर्णिका, कवि निराला
14 गिरिजा कुमार माथुर नई कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ
15 रामस्वरूप चतुर्वेदी मध्ययुगीन हिंदी काव्य-भाषा, अज्ञेयः आधुनिक रचना की समस्या, भाषा और संवेदना
16 डॉ० नगेंद्र सुमित्रानंदन पंत, साकेत : एक अध्ययन, रस-सिद्धांत, विचार और अनुभूति, रीतिकाव्य की भूमिका, देव और उनकी कविता, मिथक और साहित्य, भारतीय समीक्षा और आचार्य शुक्ल की काव्य-दृष्टि
17 विजदेव नारायण साही शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट, लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस, जायसी
18 डॉ० देवराज उपाध्याय छायावाद का पतन, साहित्य चिता, आधुनिक समीक्षा
19 अज्ञेय त्रिशंकु, आत्मनेपद, अद्यतन, संवत्सर, स्मृति-लेखा, चौथा सप्तक, केंद्र और परिधि, पुष्करिणी, जोग लिखि, सर्जना और संदर्भ
20 नामवर सिंह कविता के नए प्रतिमान, छायावाद, वाद-विवाद-संवाद, इतिहास और आलोचना, कहानी और नई कहानी
21 नेमिचंद्र जैन अधूरे साक्षात्कार
22 अशोक वाजपेयी फिलहाल, कुछ पूर्वग्रह
23 डॉ० बच्चन सिंह हिंदी आलोचना के बीज शब्द, साहित्य का समाजशास्त्र और रूपवाद, आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास
24 शिवदान सिंह चौहान प्रगतिवाद, हिंदी साहित्य के असी वर्ष, साहित्यानुशीलन, साहित्य की परख
25 लक्ष्मीकांत वर्मा नई कविता के प्रतिमान, नये प्रतिमान पुराने निकष
26 जगदीश गुप्त नई कविताः स्वरूप और समस्याएँ
27 धर्मवीर भारती मानव मूल्य और साहित्य
28 ‘मुक्तिबोध’ नई कविता का आत्मसंघर्ष
29 निर्मल वर्मा शब्द और स्मृति
30 विपिन कुमार अग्रवाल आधुनिकता के पहलू


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