अटल बिहारी वाजपेयी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं | Atal Bihari Vajpayee Kavita in hindi

अटल बिहारी वाजपेयी (25 दिसम्बर 1924 – 16 अगस्त 2018) भारत के तीन बार के प्रधानमन्त्री बने तथा हिन्दी कवि, पत्रकार और एक प्रखर वक्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के संस्थापकों भी रहे तथा उसके अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्‍ट्रधर्म, पाञ्चजन्य (पत्र) और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।

अटल बिहारी वाजपेयी कविता

अटल बिहारी वाजपेयी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं मेंं से कुछ कविताऍं निम्न है:- 

 
1. आओ फिर से दिया जलाएँ -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ


हम पड़ाव को समझे मंज़िल

लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

वतर्मान के मोहजाल में

आने वाला कल न भुलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।


आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने

नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ


2. क़दम मिला कर चलना होगा -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।


3. दूध में दरार पड़ गई -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया।

बँट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।


खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई।


अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।

बात बनाएँ, बिगड़ गई।

दूध में दरार पड़ गई।


4. झुक नहीं सकते -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से

न्याय लड़ता निरंकुशता से

अंधेरे ने दी चुनौती है

किरण अंतिम अस्त होती है


दीप निष्ठा का लिये निष्कंप

वज्र टूटे या उठे भूकंप

यह बराबर का नहीं है युद्ध

हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज

और पशुबल हो उठा निर्लज्ज


किन्तु फिर भी जूझने का प्रण

अंगद ने बढ़ाया चरण

प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार

समर्पण की माँग अस्वीकार


दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते


5. ऊँचाई -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


ऊँचे पहाड़ पर, 

पेड़ नहीं लगते, 

पौधे नहीं उगते, 

न घास ही जमती है। 


जमती है सिर्फ बर्फ, 

जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और, 

मौत की तरह ठंडी होती है। 

खेलती, खिलखिलाती नदी, 

जिसका रूप धारण कर, 

अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है। 


ऐसी ऊँचाई, 

जिसका परस 

पानी को पत्थर कर दे, 

ऐसी ऊँचाई 

जिसका दरस हीन भाव भर दे, 

अभिनंदन की अधिकारी है, 

आरोहियों के लिये आमंत्रण है, 

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं, 


किन्तु कोई गौरैया, 

वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, 

ना कोई थका-मांदा बटोही, 

उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है। 


सच्चाई यह है कि 

केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती, 

सबसे अलग-थलग, 

परिवेश से पृथक, 

अपनों से कटा-बँटा, 

शून्य में अकेला खड़ा होना, 

पहाड़ की महानता नहीं, 

मजबूरी है। 

ऊँचाई और गहराई में 

आकाश-पाताल की दूरी है। 


जो जितना ऊँचा, 

उतना एकाकी होता है, 

हर भार को स्वयं ढोता है, 

चेहरे पर मुस्कानें चिपका, 

मन ही मन रोता है। 


ज़रूरी यह है कि 

ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, 

जिससे मनुष्य, 

ठूँठ सा खड़ा न रहे, 

औरों से घुले-मिले, 

किसी को साथ ले, 

किसी के संग चले। 


भीड़ में खो जाना, 

यादों में डूब जाना, 

स्वयं को भूल जाना, 

अस्तित्व को अर्थ, 

जीवन को सुगंध देता है। 


धरती को बौनों की नहीं, 

ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है। 

इतने ऊँचे कि आसमान छू लें, 

नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें, 


किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं, 

कि पाँव तले दूब ही न जमे, 

कोई काँटा न चुभे, 

कोई कली न खिले। 


न वसंत हो, न पतझड़, 

हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़, 

मात्र अकेलेपन का सन्नाटा। 


मेरे प्रभु! 

मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना, 

ग़ैरों को गले न लगा सकूँ, 

इतनी रुखाई कभी मत देना।


6. एक बरस बीत गया -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


एक बरस बीत गया 

झुलसाता जेठ मास 

शरद चांदनी उदास 

सिसकी भरते सावन का 

अंतर्घट रीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

सीकचों मे सिमटा जग 

किंतु विकल प्राण विहग 

धरती से अम्बर तक 

गूंज मुक्ति गीत गया 

एक बरस बीत गया 

 

पथ निहारते नयन 

गिनते दिन पल छिन 

लौट कभी आएगा 

मन का जो मीत गया 

एक बरस बीत गया


7. मैं न चुप हूँ न गाता हूँ -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

सवेरा है मगर पूरब दिशा में 

घिर रहे बादल 

रूई से धुंधलके में 

मील के पत्थर पड़े घायल 

ठिठके पाँव 

ओझल गाँव 

जड़ता है न गतिमयता 


स्वयं को दूसरों की दृष्टि से 

मैं देख पाता हूं 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 


समय की सदर साँसों ने 

चिनारों को झुलस डाला, 

मगर हिमपात को देती 

चुनौती एक दुर्ममाला, 


बिखरे नीड़, 

विहँसे चीड़, 

आँसू हैं न मुस्कानें, 

हिमानी झील के तट पर 

अकेला गुनगुनाता हूँ। 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ


8. मौत से ठन गई -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


ठन गई! 

मौत से ठन गई! 


जूझने का मेरा इरादा न था, 

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 


रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। 


मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। 


मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 


तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। 


मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 


बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 


प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 


हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 


आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। 


पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 


मौत से ठन गई।


9. कौरव कौन, कौन पांडव -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


कौरव कौन

कौन पांडव,

टेढ़ा सवाल है|

दोनों ओर शकुनि

का फैला

कूटजाल है|

धर्मराज ने छोड़ी नहीं

जुए की लत है|

हर पंचायत में

पांचाली

अपमानित है|

बिना कृष्ण के

आज

महाभारत होना है,

कोई राजा बने,

रंक को तो रोना है|


10. हिरोशिमा की पीड़ा -अटल बिहारी वाजपेयी कविता


किसी रात को 

मेरी नींद चानक उचट जाती है 

आँख खुल जाती है 

मैं सोचने लगता हूँ कि 

जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का 

आविष्कार किया था 

वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण 

नरसंहार के समाचार सुनकर 

रात को कैसे सोए होंगे? 

क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही 

ये अनुभूति नहीं हुई कि 

उनके हाथों जो कुछ हुआ 

अच्छा नहीं हुआ! 


यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा 

किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें 

कभी माफ़ नहीं करेगा!


11. राह कौन सी जाऊँ मैं? /अटल बिहारी वाजपेयी कविता


चौराहे पर लुटता चीर

प्यादे से पिट गया वजीर

चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?

राह कौन सी जाऊँ मैं?


सपना जन्मा और मर गया

मधु ऋतु में ही बाग झर गया

तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं?


दो दिन मिले उधार में

घाटों के व्यापार में

क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं ?