भारत दुर्दशा (Bharat Durdasha) नाटक की रचना 1875 ई. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा की गई थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। यह नाटक अपनी युगीन समस्याओं को उजागर करता है तथा उनका समाधान करता है। वे भारतवासियों की दुर्दशा पर रोने तथा इस दुर्दशा का अन्त करने के प्रयास का आह्वान करते हैं।
भारत दुर्दशा नाटक के प्रमुख पात्र
भारत :- नायक के रूप में है, जो अत्यन्त कमजोर चरित्र है तथा अपनी दीनहीन दशा पर रोता है।
भारत दुर्देव :- यह एक शक्तिशाली खलनायक या प्रतिनायक के रूप में है। सत्यनाश, आलस्य, मदिरा भारत दुर्देव के सहयोगी के रूप में भारत की जान निकालने हेतु उसे चारों ओर से घेर लेते हैं।
भारत भाग्य :- भारत को बार-बार जगाने की चेष्टा करता है, पर वह सफल नहीं हो पाता। यह भारत का एक सहयोगी चरित्र है।
अन्य पात्र :- निर्लज्जता, आशा, सत्यानाश फौजदार, रोग, आलस्य, मदिरा।
भारत दुर्दशा नाटक के अंक
भारत दुर्दशा (मंगलाचरण )
जय सतयुग - थापन करन, नासन म्लेच्छ - अचार |
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार।।
अंधेरी नगरी के कुल छः अंक है जो निम्न है:-
- पहिला अंक -स्थान बीथी (एक योगी गाता है) (लावनी)
- दूसरा अंक - स्थान श्मशान (भारत का प्रवेश)
- तीसरा अंक - स्थान मैदान
- चौथा अंक - स्थान कमरा (रोग को प्रवेश)
- पाँचवा अंक - स्थान किताब खाना
- छठा अंक - स्थान गंभीर वन की मध्यभाग
नाटक का विषय :-
- यह एक दुखान्त नाटक है।
- भारत दुर्दशा नाटक में तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाया गया एवं दुर्दशा के कारणों को कम करने के साथ ही दुर्दशा करने वालों भी चित्रण किया गया है।
- भारतेंदु ने भारत दुर्दशा नाटक को लस्य रूपक भी कहा है।
- इस नाटक में भारतेंदु जी ने प्राचीन परंपरा के गौरव तथा वर्तमान जीवन की विसंगतियों पर प्रकाश डाला है।
- इस नाटक में प्रतिको के माध्यम से भारतेंदु ने भारत की तत्कालीन दैनिक स्थिति का वर्णन किया है।
- भारत दुर्दशा वस्तुतः एक नाट्य रासक है।
- भारत दुर्दशा में गद्य खड़ी बोली में तथा पद्य ब्रज भाषा में लिखा गया है।
- भारत दुर्दशा हिंदी का संभवत पहला ऐसा नाटक माना जाता है जो राजनीतिक विषय वस्तु पर आधारित है।
- इस नाटक में भारत में विद्यमान असहनीय अंग्रेजी व्यवस्था का चित्रण किया गया है।
भारत दुर्दशा नाटक की समीक्षा
'भारत दुर्दशा' नाटक में भारतेन्दु जी ने भारत दुर्दशा के कारणों पर प्रकाश डालते हुए उचित समाधान प्रस्तुत किए हैं। वे ब्रिटिश राज तथा आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। साथ ही उन्होंने भारत में फैली कुरीतियों, रोग, अहंकार, अपव्यय, आलस्य, मदिरा, फैशन, धर्म, असन्तोष, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत की दुर्दशा का कारण माना है, लेकिन उन्होंने भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण अंग्रेजों की भारत लूटने की नीति को माना है। अत: भारत दुर्दशा भारतेन्दु जी की सफल कृति है। इस नाटक ने नवजागरण के दौर में एक मशाल की भूमिका निभाई, जिसने भारतीयों की लक्ष्यहीन पतनोन्मुखी सोच को नई दिशा प्रदान की। इस प्रकार, यह एक दुखान्त नाटक है, जो प्रतीकात्मक शैली में रचा गया है। इस नाटक में छह अंक हैं।
प्रथम अंक इस अंक में एक योगी लावनी गाता हुआ आता है। वह संक्षेप में प्राचीन गौरव और वर्तमान दुर्दशा का उल्लेख करता है।
द्वितीय अंक इस अंक में भारत स्वयं आकर अपनी दीन-हीन दशा का उल्लेख करता है। 1
तृतीय अंक इस अंक में भारतदुर्देव बड़े ही अभिमान से भारत की हीन और विपन्न अवस्था का वर्णन करता है। इसके बाद भारतदुर्देव के फौजदार सत्यनाश अपने साधारण सैनिकों को नादिरशाह, चंगेज और तैमूर आदि बताते हैं। साथ ही भारत के निजी दोषों का भारतदुर्देव के सैनिकों के रूप में वर्णन किया गया है, इसमें प्रथम कारण धर्म को माना गया है जिसके कारण भारत का पतन हुआ। अन्य कारणों में जातिगत भेद-भाव, वर्ण व्यवस्था, बाल-विवाह निषेध, विधवा विवाह, समुद्र यात्रा निषेध को माना गया है।
चौथा अंक इस अंक में भारतदुर्देव, रोग, आलस्य, मदिरा और अन्धकार को क्रमशः भेजता है। इनसे प्रभावित अकर्मण्य जनता का दयनीय चित्र उपस्थित किया गया है।
पाँचवाँ अंक इस अंक में घर पर बैठकर राजनीति चलाने वाले सम्भ्रान्त शिक्षित समुदाय के लोगों का चित्रांकन है। इसमें सभी वर्ग के लोग हैं; जैसे -सम्पादक, कवि, बंगाली तथा महाराष्ट्रीय महाशय ।
छठा अंक इस अंक में भारत भाग्य अपने पुरातन वैभव का स्मरण कर अपनी वर्तमान हीन अवस्था से क्षुब्ध (दुखी) होकर आत्मघात कर लेता है।
नाटक के कथन :-
- “हा ! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व – करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था “सूच्यग्र नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव” और आज हम उसी भूमि को देखते है कि श्मशान हो रही है । अरे यहाँ की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहाँ गए ?, कथन है।- भारत का
- ”कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है ? देखो तो अभी इसकी क्या-क्या दुर्दशा होती हूँ।”, कथन है।- भारतदुर्दैव का
- ” एक पोस्ती ने कहा, पोस्ती ने पी पोस्त नौ दिन चले ! अढ़ाई कोस । दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूंड़ी के उस पार या इस पार ठीक है।”, कथन है।- आलस्य का
- “संगीत-साहित्य की तो एकमात्र जननी हूँ ।”, कथन है।- मदिरा का
भारत दुर्दशा नाटक से संबंधित प्रश्नोत्तर
उत्तर : भारत दुर्दशा नाटक में 6 अंक हैं।
प्रश्न 2. भारत दुर्दशा का प्रकाशन कब हुआ?
उत्तर : भारत दुर्दशा नाटक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1875 ई. में लिख गया था। इस नाटक में भारतेन्दु जी ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है।
उत्तर : भारत दुर्दशा नाटक में वर्तमान भारत विनाश के मार्ग पर निरंतर बढ़ रहा है। जिस कारण इसकी आर्थिक, राजनीतिक और सामजिक संरचनाएँ पूर्णत: खंडित हो रही है जो चिन्ता की बात है।
उत्तर : भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारत की दुर्दशा का कारण भारत वासियों में आपसी बैर और फूट को बताया है। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों में डाली गई फूट के कारण भारतीयों में आपस में कलह हो गई है, और भारतवासी एक दूसरे से बैर पाल बैठे हैं। यह भारत की दुर्दशा का सबसे प्रमुख कारण है।
उत्तर : भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रमुख मौलिक नाटक- वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873 ई.), सत्य हरिश्चन्द्र (1875), श्री चंद्रावली(1876), विषस्य विषमौषधम् ( 1876), भारत दुर्दशा ( 1880), नीलदेवी (1881) अंधेर नगरी ( 1881 )।
Andher Nagari Natak MCQ
- राष्ट्रभक्ति
- आर्थिक समस्या
- नारी शक्ति चित्रण
- राजनीतिक स्थिति
- सन् 1888
- सन् 1889
- सन् 1886
- सन् 1880
- पांच
- छः
- सात
- आठ
- वैदिक हिंसा हिंसा न भवति
- मुद्राराक्षस
- भारत-दुर्दशा
- सत्य हरिश्चन्द्र
- नाटिका
- नाट्य रासक
- गीति रूपक
- प्रहसन
- भारत भाग्य
- भारत
- भारत दुर्देव
- मंदिरा
- राजनीति
- सामाजिक
- ऐतिहासिक
- (1) और (2) दोनों
- भारत
- भारत भाग्य
- डिसलायल्टी
- भारत-दुर्देव
- डिसलॉयल्टी
- अंधकार
- बौना
- सत्यानाश
- ब्रिटिश राज
- आपसी कलह
- पारिवारिक संबंध
- 1 और 2 दोनों