भारतीय परम्परा में कथा एवं कहानियों का इतिहास बहुत पुराना है। संस्कृत साहित्य में बृहत्कथामंजरी, कथा- मरित्सागर, हितोपदेश, पंचतन्त्र आदि कहानियाँ हैं। यद्यपि इनमें कहानी के तत्त्व विद्यमान नहीं हैं, किन्तु इन कथाओं के माध्यम से भारतीय समाज में नीति- नैतिकता और आदर्श की शिक्षाएँ मिलती हैं। कहानी के रूप में साहित्य की जिस विधा का अध्ययन हम करते हैं, वह पाश्चात्य साहित्य के माध्यम से हिन्दी साहित्य में आई है। हिन्दी कहानी के उद्भव और विकास में बांग्ला साहित्य का विशेष योगदान रहा है।
हिंदी कहानी का इतिहास
हिंदी कहानी हिंदी साहित्य की प्रमुख कथात्मक विधा है। आधुनिक हिंदी कहानी का आरंभ 20वीं सदी से माना जाता है। आधुनिक कहानी के पूर्व की कहानी में प्रगतिवाद, मनोविश्लेषणवाद, आदर्शवाद, आदर्शवाद, यथार्थवाद, आँचलिकता आदि की विशेषताओं को अपने में समेटकर आज हमाने सामने हिंदी का नया रूप सामने आया है। इनमें बहुत से कहानीकार का योगदान अविस्मरणीय रहा है।
प्रमुख कहानीकार प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, उदय प्रकाश, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नु भंडारी, ज्ञानरंजन, उषा प्रियंवदा, ओमप्रकाश बाल्मिकी आदि रहे है।
हिंदी की प्रथम कहानी
हिन्दी कहानी का वास्तविक विकास 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन वर्ष 1900 से माना जाता है, लेकिन इससे भी कहानियाँ लिखी गई थीं, जिस कारण हिन्दी की प्रथम कहानी के सम्बन्ध में विद्वानों में प्रायः मतभेद हैं -
- रामरतन भटनागर ने 'मुंशी इंशा अल्ला खाँ' की रानी केतकी की कहानी (1872) को हिन्दी की प्रथम कहानी माना है।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'किशोरीलाल गोस्वामी' की इन्दुमती (1900) को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
- देवीप्रसाद वर्मा ने 'माधवराव सप्रे' की एक टोकरी भर मिट्टी (1901) को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
- डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने 'रामचन्द्र शुक्ल' की ग्यारह वर्ष का समय (1903) को हिन्दी की पहली कहानी माना है।
- रायकृष्ण दास ने राजेन्द्रबाला घोष 'बंग महिला' की दुलाई वाली (1907) को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
उपरोक्त मतों के आधार पर 'इन्दुमती' को हिन्दी की पहली कहानी माना जा सकता है, क्योंकि अन्य कहानियों की अपेक्षा कहानी कला के गुण इस कहानी (इन्दुमती) में अधिक देखे गए हैं।
कहानी का उद्भव और विकास
हिन्दी कहानी के विकास में मुंशी प्रेमचन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान है, उन्होंने अपने लेखन कौशल से कहानी विधा को साहित्य की मुख्य विधा के रूप में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। मुंशी प्रेमचन्द को कहानी विधा का आधार स्तम्भ मानते हुए हिन्दी कहानी की विकास यात्रा को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है -
- प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी कहानी (सन् 1900 ई. से 1915 ई.तक)
- प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी कहानी (सन् 1916 ई से 1936 ई. तक)
- प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी (सन् 1936 ई. से 1950 ई. तक)
- स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी कहानी (सन् 1950 ई. के बाद)
प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी कहानी (1900 - 1915 ई.)
इस काल में हिन्दी कहानी अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी। उसकी शिल्पविधि का विकास हो रहा था और नए-नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही थीं।
हिन्दी में कहानी मुख्यतः द्विवेदी युग से प्रारम्भ होती है, हालाँकि भारतेन्दु युग या उससे पूर्व में भी कहानियाँ लिखी गईं, किन्तु उन्हें हिन्दी की मौलिक कहानी नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सहित अन्य साहित्यकार नाटकों और निबन्धों के लेखन में अधिक सक्रिय थे।
हिन्दी की प्रथम कहानी के अन्तर्गत जिन कहानियों का उल्लेख किया गया है उनके अतिरिक्त इस काल में कुछ अन्य कहानियाँ भी लिखी गईं; जैसे- माधवप्रसाद मिश्र की 'मन की चंचलता', भगवान दास की 'प्लेग की चुड़ैल', वृन्दावनलाल वर्मा की 'राखीबन्द भाई' और 'नकली किला', ज्वालादत्त शर्मा की 'मिलन'।
इसी प्रकार राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' की 'गुलाब और चमेली का किस्सा', 'वीर सिंह वृत्तान्त' आदि रचनाएँ अनूदित या रूपान्तरित हैं। 1860 ई. के आस-पास उस समय के शिक्षा संचालकों की प्रेरणा से बुद्धफलोदय, सूरजपुर की कहानी, धरम सिंह का वृत्तान्त, तीन देवों की कहानी आदि शिक्षात्मक कहानियाँ लिखी गईं, किन्तु ये कहानियाँ अंग्रेज़ी या उर्दू से अनूदित की गई थीं।
द्विवेदी युग में कहानी साहित्य का विशेष विकास हुआ। सरस्वती, इन्दु, कविवचन सुधा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ छपने लगीं। चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' इस युग की सर्वश्रेष्ठ मौलिक कहानी है। रायकृष्ण दास की कहानियाँ भावुकता और आदर्शवाद से परिपूर्ण हैं।
इस युग में बहुत-सी कहानियाँ लिखी तो गईं, किन्तु उन पर भारतीय एवं विदेशी भाषाओं की छाया है। कुछ कहानियाँ काफी लम्बी होने के कारण शुद्ध कहानी की श्रेणी में नहीं आतीं। इस युग के कहानीकारों ने मौलिकता की अपेक्षा अनुवाद कार्य, भाषा के परिष्कार और गद्य के अन्य रूपों पर अधिक बल दिया, जिसके कारण प्रसाद और प्रेमचन्द से पूर्व कहानी साहित्य की रचना बहुत कम हुई। उनमें वास्तविक साधारण जीवन का यथार्थ चित्र न मिल सका।
प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी कहानी (1916 - 1936 ई.)
प्रेमचन्द का युग कहानी कला के विकास का उत्कर्ष युग था। इनके समय से ही आख्यायिका (शिक्षा लेने वाली कल्पित लघु कथा) कहानी के स्थान पर यथार्थ (सच्ची) कहानी का प्रारम्भ हुआ। प्रेमचन्द जी पहले उर्दू में लिखते थे। उनका उर्दू में लिखा हुआ प्रसिद्ध कहानी-संग्रह 'सोजे-वतन' वर्ष 1907 में प्रकाशित हुआ था, जो स्वातन्त्र्य भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण अंग्रेज़ी सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था। वर्ष 1916 में उनकी हिन्दी में लिखित प्रथम कहानी 'पंचपरमेश्वर' प्रकाशित हुई। उनकी कहानियों में 'पंच-परमेश्वर' के अतिरिक्त 'आत्माराम', 'बड़े घर की बेटी', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'वज्रपात', 'रानी सारंगा', 'अलग्योझा', 'ईदगाह', 'पूस की रात,
‘सुजान भगत’, ‘कफन’, ‘परीक्षा' आदि अधिक विख्यात हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानी में जनसाधारण के जीवन की सामान्य परिस्थितियों, मनोवृत्तियों एवं समस्याओं का चित्रण मार्मिक रूप में हुआ है। वे साधारण-से-साधारण बात को भी मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत करने की कला में
सिद्धहस्त (निपुण) थे।
प्रेमचन्द जी की कहानियों में विषय-वैविध्य की जितनी अधिकता देखने को मिलती है, शायद ही यह किसी अन्य कथाकार की कहानियों में देखने को मिले। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं को उठाया है, जैसे - किसानों के शोषण की समस्या, ग्रामीणों की समस्या, छुआछूत, रूदि, अन्धविश्वास, भ्रष्टाचार की समस्या आदि।
प्रेमचन्द की प्रारम्भिक कहानियों में आदर्श का पुट (मिश्रण) था, किन्तु बाद की कहानियाँ यथार्थ से जुड़ी हुई थीं। पंच परमेश्वर, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, दो बैलों की कथा आदि कहानियाँ उनकी प्रारम्भिक कहानियाँ
हैं, जिनमें आदर्श का पुट (मिश्रण) दिखाई देता है। इसी प्रकार कफन, पूस की रात और ठाकुर का कुआँ आदि उनकी यथार्थवादी कहानियाँ हैं, जिनका वर्णन निम्न है
प्रेमचंद्र की प्रमुख कहानी है-
दो बैलों की कथा, पांच परमेश्वर, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, कफन, पूस की रात, ठाकुर का कुआं,ईदगाह, पूस की रात, नमक का दारोगा, शतरंज के खिलाड़ी, मंत्र, सौत आदि।
प्रेमचन्दयुगीन समकालीन कहानीकार
प्रेमचन्दयुगीन समकालीन प्रमुख कहानीकार निम्न हैं :-
1. जयशंकर प्रसाद -
प्रेमचन्द युग के एक प्रतिभाशाली कथाकार के रूप में जयशंकर प्रसाद का नाम लिया जाता है। उनके पाँच कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं-छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल । इन संकलनों में कुल मिलाकर 69 कहानियाँ संकलित की गई हैं। इनकी शुरुआती कहानियाँ बांग्ला कथाशैली से प्रभावित हैं, परन्तु बाद में वे अपनी स्वतन्त्र शैली विकसित कर पाए। इनके दृष्टिकोण में भावात्मकता की अधिकता होने के कारण उनकी कहानियाँ भी भावना से ओत-प्रोत हैं।
प्रसाद जी की कहानियों के कथानक वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक जुड़े हुए हैं। वे देशकाल व वातावरण का चित्रण इस प्रकार करते हैं कि काल्पनिक कहानी में भी ऐतिहासिकता आ जाती है। उनकी कहानी आदर्शवाद का समर्थन करती है। उन्होंने संस्कृति, समाज, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों से कथानक ग्रहण किए हैं। उनकी ऐतिहासिक कहानियों में भारतीय संस्कृति तथा सामाजिक कहानियों में सामाजिक समस्याओं का चित्रण मिलता है।
'आँधी', 'आँसू' एवं 'इन्द्रजाल' सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने वाली कहानियाँ हैं। प्रसाद जी के सभी पात्र सुन्दर, मृदुभाषी और भावुक हैं। नाटकीयता प्रसाद जी की कहानियों का विशेष गुण है। प्रसाद जी की कहानियों की भाषा संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली से युक्त थी। उनकी कहानियों में लोकोक्ति, मुहावरे, सूक्तियों तथा प्रतीकों का भी प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। उनकी भाषा पात्रानुकूल थी। बोलचाल की सामान्य भाषा का प्रयोग कम ही हुआ है। भाषा के माध्यम से वे देशकाल और वातावरण को प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। इनकी कहानियाँ भी मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों की भाँति ही सोद्देश्य थीं। इनकी कहानियों में अनुभूति की तीव्रता, काव्यात्मकता, प्रेम चित्रण, प्रकृति निरूपण एवं कल्पना की प्रचुरता विद्यमान है। उनकी कुछ कहानियों में ऐतिहासिक देशकाल एवं वातावरण की सफल प्रस्तुति की गई है।
प्रमुख कहानी संग्रह: छाया(1912),प्रतिध्वनि(1926),आकाशदीप(1928),आँधी(1931), इंद्रजाल(1936)।
ग्राम -प्रथम कहानी; 1911 ई. में 'इंदु' पत्रिका में प्रकाशित।
2. विश्वम्भरनाथ 'कौशिक' -
उर्दू से हिन्दी में आने वाले लेखकों में विश्वम्भरनाथ 'कौशिक' भी प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रथम कहानी 'रक्षाबन्धन' वर्ष 1913 में प्रकाशित हुई थी। विचारधारा की दृष्टि से कौशिक जी प्रेमचन्द की परम्परा में आते हैं।
इन्होंने भी समाज सुधार को अपनी कहानी कला का लक्ष्य बनाया, उनकी कहानियों की शैली अत्यन्त सरल, सरस व रोचक है। उनकी हास्य और विनोद से परिपूर्ण कहानियाँ 'चाँद' में दुबे जी की चिट्ठियों के रूप में प्रकाशित हुई थीं।
3. आचार्य चतुरसेन शास्त्री
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ऐतिहासिक विषयों पर मार्मिक कहानियों की रचना की।
'अम्बपालिका', 'भिक्षुराज', 'सिंहगढ़ विजय', 'पन्नाधाय', 'रूठी रानी', 'दे खुदा की राह पर' आदि उनकी प्रमुख कहानियाँ हैं।
4. पण्डित बद्रीनाथ भट्ट 'सुदर्शन'
पण्डित बद्रीनाथ भट्ट 'सुदर्शन' का महत्त्व भी कहानी कला के रूप में कौशिक जी के तुल्य माना जाता है। 'सुदर्शन' ने अपनी कहानियों का विषय जीवन की ज्वलन्त समस्याओं को बनाया है। उनकी प्रथम कहानी 'हार की जीत' वर्ष 1920 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई, तब से उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं;
जैसे-'सुदर्शन सुधा' 'सुदर्श सुमन', ‘तीर्थयात्रा’, ‘पुष्पलता’, ‘गल्प मंजरी', 'सुप्रभात', 'चार कहानियाँ', 'नगीना', 'पनघट' आदि। उन्होंने अपनी कहानियों में मानवीय भावनाओं एवं मनोवृत्तियों का चित्रण अत्यन्त सरल और रोचक शैली में किया है।
5. रायकृष्ण दास
रायकृष्ण दास भी प्रसाद की परम्परा के कहानी लेखक हैं। 'अनाख्या', 'सुधांशु' और 'आँखों की थाह' इनकी प्रमुख कहानियाँ हैं। उनकी कहानियों में कवित्वपूर्ण वातावरण और नाटकीयता विद्यमान है। 'अन्तः पुर का आरम्भ' कहानी में इन तत्त्वों को देखा जा सकता है।
6. पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'
पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का प्रवेश हिन्दी कहानी जगत् में वर्ष 1922 में हुआ। उनकी उग्रता के प्रभाव को 'उल्कापात', 'धूमकेतु', 'तूफान' आदि की संज्ञा दी गई है। उन्होंने अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिस्थितियों, सामाजिक रूढ़ियों और राष्ट्र को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों के प्रति गहरा विद्रोह व्यक्त किया। उनके कहानी संग्रह 'दोजख की आग', 'चिंगारियाँ', 'बलात्कार', 'सनकी अमीर' आदि प्रकाशित हुए हैं।
7. ज्वालादत्त शर्मा
ज्वालादत्त शर्मा ने बहुत कम कहानियाँ लिखी हैं, परन्तु हिन्दी जगत् में उनका अच्छा स्वागत हुआ है। उनकी कहानियों में 'भाग्य-चक्र', 'अनाथ बालिका' आदि उल्लेखनीय हैं।
8. चण्डी प्रसाद हृदयेश
चण्डी प्रसाद हृदयेश का दृष्टिकोण आदर्शवादी था, उनकी कहानियों में हमें सेवा, त्याग, बलिदान, आत्म-शुद्धि आदि उच्च भावनाओं का चित्रण मिलता है। उनकी कहानियाँ भावना प्रधान हैं। उनके कहानी संग्रह 'नन्दन-निकुंज वनमाला' आदि नामों से प्रकाशित हुए हैं।
इस युग के कहानी साहित्य में सामाजिक समस्याओं को ही प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों एवं समस्याओं का चित्रण हुआ है। शैली की दृष्टि से इस युग की कहानियाँ प्रायः सुगठित एवं सन्तुलित हैं। कहानियों के आरम्भ और अन्त चमत्कारिक तथा शीर्षक संक्षिप्त एवं सार्थक हैं। पात्रों का चरित्र-चित्रण स्वाभाविक तथा भाषा सरल, पात्रानुकूल एवं परिमार्जित है। इनमें विचार, भाव कला और उद्देश्य लोकरंजन तथा लोकमंगल दोनों पक्षों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है।
प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी (1936 - 1950 ई.)
इस काल में कहानी की पुरानी परम्पराओं के साथ नई परम्पराओं का उदय और विकास हुआ। इस काल की कहानियों ने जीवन और जगत् के विविध पक्षों को अपनी परिधि में समेटने का प्रयास किया। इस काल में जहाँ एक ओर प्रगतिवादी कहानियाँ लिखी गईं, वहीं दूसरी ओर मनोविश्लेषणपरक कहानियाँ व यथार्थवादी कहानियाँ भी लिखी गईं।
प्रगतिवादी परम्परा में मुख्यतः यशपाल, ख्वाजा अहमद अब्बास, अमृतराय, मन्मथनाथ गुप्त, कृष्णचन्द्र, रांगेय राघव, श्री कृष्णदास प्रभृति कहानीकारों को स्थान दिया जा सकता है।
1. यशपाल ने समाजवादी-साम्यवादी दृष्टिकोण से आधुनिक समाज की विषमताओं का उद्घाटन अपनी कहानियों में किया है।
इनके कहानी-संग्रहों में 'पिंजरे की उड़ान', 'वो दुनिया', 'तर्क का तूफान', 'फूलों का कुर्ता', 'तुमने क्यों कहा था कि मैं सुन्दर हूँ', 'उत्तमी की माँ' आदि उल्लेखनीय हैं।
मनोविश्लेषणवादी परम्परा में मुख्यत: जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, प्रभृति कहानीकार आते हैं। जैनेन्द्र कुमार के अनेक कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए; यथा- 'वातायन', 'स्पर्द्धा', 'फाँसी', 'पाजेब', 'जय-सन्धि', 'एक रात', 'दो चिड़ियाँ' आदि।
2. जैनेन्द्र जी ने स्थूल समस्याओं के स्थान पर सूक्ष्म-मनोविज्ञान का चित्रण करते हुए हिन्दी कहानी को नई अन्तर्दृष्टि, संवेदनशीलता और दार्शनिक गहराई प्रदान की है। उनका दृष्टिकोण समाजवादी की अपेक्षा व्यक्तिवादी, भौतिकवादी की अपेक्षा अध्यात्मवादी अधिक है। घटनाओं की अपेक्षा उन्होंने चरित्र-चित्रण को अधिक महत्त्व दिया है। उनकी कहानियों की भाषा शैली प्रायः सरल एवं स्वाभाविक है।
3. भगवती प्रसाद वाजपेयी ने जैनेन्द्र जी की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अनेक कहानियाँ लिखीं, जो 'हिलोर', 'पुष्करिणी', 'खाली बोतल' आदि में संगृहीत हैं। भगवतीचरण वर्मा ने भी इस क्षेत्र में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। उनमें विश्लेषण की गम्भीरता के साथ-साथ मार्मिकता और रोचकता का गुण भी मिलता है। उनके कहानी-संग्रह 'खिलते फूल', 'इंस्टॉलमेण्ट', 'दो बाँके' आदि हैं।
4. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने भी मनोविश्लेषणात्मक कहानियाँ लिखीं, जो 'विपथगा', 'परम्परा', 'कोठरी की बात', 'जयदोल' आदि में संगृहीत हैं।
5. इलाचन्द्र जोशी ने अपनी कहानियों में मनोविश्लेषण के आधार पर सूक्ष्म मानसिक तथ्यों का उद्घाटन मर्मस्पर्शी रूप में किया है। उनके कहानी-संग्रहों में 'रोमाण्टिक छाया', 'आहुति', 'दिवाली और होली' आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यथार्थपरक सामाजिक परम्परा हिन्दी के विभिन्न कहानीकारों ने आधुनिक समाज की विभिन्न परिस्थितियों एवं समस्याओं का उद्घाटन यथार्थपरक दृष्टिकोण से किया है।
6. चन्द्रगुप्त विद्यालंकार ने अपनी कहानियों में राष्ट्रीय एवं सामाजिक समस्याओं का चित्रण अत्यधिक कलात्मक ढंग से किया है। इनके कहानी संग्रहों में 'चन्द्रकला', 'भय का राज्य', 'अमावस', 'निशानियाँ', 'दो धारा' आदि कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें आधुनिक समाज की दुर्बलताओं, कुण्ठाओं, दूषित प्रवृत्तियों आदि का उद्घाटन व्यंग्यात्मक शैली में किया गया है।
स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी कहानी (1950 ई. से अब तक)
स्वतन्त्रता के पश्चात् लिखी गई कहानियों को स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी कहानी कहा जाता है। ये कहानियाँ स्वातन्त्रोत्तर काल की हिन्दी कहानी के विभिन्न रचनात्मक पक्षों और बदलावों की साक्षी रही हैं। वर्ष 1947 में देश को आजादी प्राप्त हुई। इसी के साथ हिन्दी कहानी में नई अभिव्यक्तियाँ उभरी।
प्रमुख कहानी आन्दोलन
आजादी के बाद कहानी साहित्य नई कहानी, सचेतन कहानी, समान्तर कहानी, समकालीन कहानी, अकहानी आदि विभिन्न रूपों से वैविध्यशाली बना है, जिनका विवरण निम्नलिखित है -
1. नई कहानी
वर्ष 1950 के पश्चात् हिन्दी कहानी के क्षेत्र में एक नए आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ, जिसे 'नई कहानी' आन्दोलन की संज्ञा दी गई। इस आन्दोलन के उन्नायकों-राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मोहन राकेश, प्रभृति ने घोषित किया कि नई कहानी का लक्ष्य नए भाव-बोध या आधुनिकता बोध पर आधारित जीवन के यथार्थ अनुभव का चित्रण करना है। नया कहानीकार न अतीत के आदर्शों से जुड़ा है और न ही भविष्य के स्वप्नों से। वह वर्तमान में और वर्तमान में भी केवल अपने भोगे हुए यथार्थ को अपनी दृष्टि का केन्द्र बनाता है।
इस प्रकार नई कहानी में व्यक्तिवाद, यथार्थवाद, अनुभूतिवाद एवं आधुनिकतावाद की प्रतिष्ठा हुई, जिसके फलस्वरूप वह जीवन, समाज और राष्ट्र के व्यापक परिवेश से अलग होकर कहानीकारों के वैयक्तिक जीवन की निजी सीमाओं से आबद्ध हो गई है। इसलिए नई कहानी में व्यक्तिनिष्ठ अहं, काम चेतना, यौनाचार, नारी-पुरुष सम्बन्धों का चित्रण प्रमुख रूप से हुआ है। नई कहानी में दाम्पत्य जीवन की प्रायः सभी स्थितियों एवं पारिवारिक जीवन की विसंगतियों का चित्रण अनुभूतिपूर्ण शैली में हुआ है।
नई कहानी के प्रमुख लेखकों में मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वेद, रमेश बक्षी, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
मोहन राकेश के 'इन्सान के खण्डहर', 'नए बादल', 'जानवर और जानवर', 'एक और जिन्दगी' आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें शहरी जीवन की कृत्रिमता, बाह्य आडम्बर, नारी-पुरुष सम्बन्धी दाम्पत्य एवं पारिवारिक जीवन के विघटन आदि का चित्रण यथार्थ रूप में हुआ है।
निर्मल वर्मा के कहानी संग्रहों में 'परिन्दे', 'एक दिन का मेहमान', 'जलती झाड़ी', 'पिछली गर्मियों में', 'कव्वे और काला पानी' आदि उल्लेखनीय हैं, जिनमें प्राय: पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशी जीवन का चित्रण करते हुए यौन प्रवृत्तियों को प्रमुखता दी गई है।
राजेन्द्र यादव के कहानी-संग्रहों में 'देवताओं की मूर्तियाँ', 'अभिमन्यु की आत्महत्या', 'जहाँ लक्ष्मी कैद है', 'किनारे से किनारे तक', 'प्रतीक्षा', 'अपने पार', 'टूटना और अन्य कहानियाँ', 'छोटे-छोटे ताजमहल' आदि उल्लेखनीय हैं। इन्होंने भी मुख्यतः शहरी जीवन की असंगतियों एवं आर्थिक विषमताओं का चित्रण यथार्थ रूप में किया है।
2. सचेतन कहानी
नई कहानी आन्दोलन की ही प्रतिक्रिया एवं प्रतिद्वन्द्विता में 'सचेतन कहानी' आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवर्तक डॉ.महीप सिंह हैं, जिन्होंने अपनी पत्रिका 'सचेतना' के माध्यम से इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया। सचेतन कहानी नई कहानी की अपेक्षा अधिक सन्तुलित एवं व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक कही जा सकती है।
'सचेतन कहानी' आन्दोलन के साथ जुड़े हुए कहानीकारों में महीप सिंह, मनहर चौहान, रामकुमार भ्रमर, सुखवीर, बलराज पण्डित, कुलभूषण, वेद राही, महरुन्निसा परवेज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
डॉ. महीप सिंह के कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें 'उजाले के उल्लू', 'कुछ और कितना', 'घिराव', 'इक्यावन कहानियाँ', 'कितने सम्बन्ध' आदि उल्लेखनीय हैं।
3. समान्तर कहानी
समान्तर कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक कमलेश्वर हैं, जिन्होंने वर्ष 1971 के आस-पास समान्तर कहानी का प्रवर्तन किया। समान्तर से उनका तात्पर्य कहानी को आम आदमी के जीवन की परिस्थितियों एवं समस्याओं के समान्तर प्रतिष्ठित करने से है, इसलिए उन्होंने कहानी के क्षेत्र में समाज और जीवन को व्यापक रूप में ग्रहण करते हुए उसकी विभिन्न स्थितियों, विषमताओं एवं विद्रूपताओं को अंकित करने का लक्ष्य घोषित किया। समान्तर कहानी में इसी व्यापक लक्ष्य के फलस्वरूप मध्यवर्गीय एवं निम्नवर्गीय समाज की विभिन्न स्थितियों, विषमताओं एवं समस्याओं का अंकन सूक्ष्मतापूर्वक हुआ है। समान्तर कहानी का प्रचार-प्रसार मुख्यतः 'सारिका' पत्रिका के माध्यम से हुआ।
वर्ष 1974-75 में सारिका के दस अंकों में क्रमशः विभिन्न समाना कहानीकारों की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, जिनमें कमलेश्वर के अतिरिक्त कामतानाथ, रमेश उपाध्याय, मधुकर सिंह, धर्मेन्द्र गुप्त, इब्राहिम शरीफ, सुधीर, सतीश जमाली, नरेन्द्र कोहली, हिमांशु जोशी, मणि मधुकर, सनत कुमार, निरूपमा सेवती, मृदुला गर्ग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।।
4. समकालीन कहानी
इस कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक डॉ. गंगा प्रसाद 'विमल' हैं। इस कहानी में समकालीनता और आधुनिकता बोध पर अत्यधिक बल दिया गया है। समकालीन कहानीकार किसी विशेष आन्दोलन से नहीं जुड़े हैं।
5. अकहानी
इस अकहानी आन्दोलन में कुछ ऐसे कथाकार जुड़े जिन्होंने कहानी के स्वीकृत मूल्यों को स्वीकार न करके अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की घोषणा की। डॉ. नामवर सिंह व निर्मल वर्मा इस कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक हैं।
अन्ततः कहा जा सकता है कि हिन्दी कहानी हिन्दी साहित्य की प्रमुख कथात्म विधा है। हिन्दी कहानी ने आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद, मनोविश्लेषणवाद आदि उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। आज हिन्दी कहानी की लोकप्रियता अपने चरम शिखर पर है।