Hindi Sahitya : हिन्‍दी साहित्‍य का विभाजन, वर्गीकरण, नामकरण व प्रमुख कवि

अतीत के किसी भी तथ्‍य, तत्त्‍व एवं प्रवृत्ति के वर्णन, विवरण, विवेचन व विश्‍लेषण को, जो काल विशेष या कालक्रम की दृष्टि से किया गया हो, इतिहास कहा जा सकता है।

हेरोडोटस ने इतिहास की व्‍याख्‍या भौतिकवादी दृष्टि से करते हुए स्‍पष्‍ट किया कि प्रत्‍येक सत्ता अपने चरम उत्‍कर्ष पर पहुँचकर अन्‍त में अपकर्ष की ओर अग्रसर हो जाती है। 

हिन्दी साहित्य का इतिहास

    हिंदी साहित्‍य का इतिहास दर्शन

    अतीत के किसी भी तथ्यतत्त्व एवं प्रवृत्ति के वर्णनविवरण, विवेचन व विश्लेषण कोजो काल विशेष या कालक्रम की दृष्टि से किया गया होइतिहास कहा जा सकता है।

    तेन महोदय ने साहित्य के विकास की व्याख्या के निम्‍न तीन आधारभूत सूत्र बताए - जातिवातावरण और श्रण।

    हडपन महोदय ने युग चैतमा व परम्परा दोनों का समन्वय किया तथा साहित्यकार के निष्ट विशिष्ट व्यक्तित्व को ही विकास का आधार माना हैं।

    मार्क्सवादी चिन्तकव्यक्ति के स्थान पर समाज की आर्थिक परिस्थितियों एवं वर्ग संघर्ष के आधार पर साहित्य की व्याख्या करते हैं। जबकि फ्रॉयडवादी विचारक मानसिकअंतर्द्वंद्व की ही साहित्य विकास का मूल कारण मानते हैं।

    आई ए रिचर्स जैसे महान विद्वानों ने काव्य के रैली पक्ष की व्याख्या मनोवैज्ञानिक तथा अर्थ विज्ञान के आधार पर की है।

    हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियाँ

    हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियों का परिचय निम्नलिखित है :-

    1. वर्णानुक्रम पद्धति : 

    इस पद्धति में लेखकों एवं कवियों का परिचय उनके नामों के वर्णों के क्रम में दिया जाता है; जैसे- नगेन्द्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी (न, ह, क्रम)। इस पद्धति में कालक्रम अलग-अलग होने के बाद भी कवि को एक साथ रखा जाता है; जैसे-कबीर व केशव। दोनों का नाम 'क' अक्षर से तो है, परन्तु कालक्रम भिन्न है। एक का कालक्रम भक्तिकाल तो दूसरे का रीतिकाल है। 'डॉ. शिवसिंह सेंगर' एवं 'गार्सा-द-तासी' दोनों ने इस पद्धति का प्रयोग किया है। इस पद्धति से लिखे ग्रन्थ अनुपयोगी व दोषपूर्ण माने जाते हैं।

    2. कालानुक्रमी पद्धति :

    इस पद्धति में कवियों एवं लेखकों का विवरण ऐतिहासिक कालक्रमानुसार तिथिक्रम से होता है। रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाकर इतिहास ग्रन्थ में उनका क्रम निर्धारित किया जाता है। 'जॉर्ज ग्रियर्सन' व 'मिश्रबन्धुओं' ने इस पद्धति का प्रयोग किया है।

    3. वैज्ञानिक पद्धति :

    इस पद्धति में इतिहास लेखक पूर्णतः तटस्थ रहकर तथ्यों का संकलन करता है। वह तथ्यों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करके प्रस्तुत करता है। इस पद्धति में क्रमबद्धता तथा तथ्यों की पुष्टता अनिवार्य है। वैज्ञानिक पद्धति भी दोषपूर्ण है, क्योंकि इतिहास लेखन तथ्यों की ही नहीं, बल्कि व्याख्या व विश्लेषण की भी माँग करता है। अतः विश्लेषण अनिवार्य है।

    4. विधेयवादी पद्धति : 

    यह पद्धति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस पद्धति के जन्मदाता तेन थे। तेन महोदय ने इस पद्धति को तीन शब्दों में बाँटा है - 1. जाति,  2. वातावरण,  3. क्षण।

    इस पद्धति से इतिहास लिखने की परम्परा की शुरुआत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने की। 

    साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं कि "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।"

    हिन्दी साहित्य के प्रमुख इतिहास ग्रन्थकारों का संक्षिप्त परिचय 

    1. गार्सा-द-तासी 

    हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा की शुरुआत 'गार्सा-द-तासीने कीजोकि एक फ्रेंच विद्वान् थे।उनकी इस लेखन परम्परा की शुरुआत उनके द्वारा रचित ग्रन्थ इस्त्वार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी से हुई। यह दो भागों में है - प्रथम भाग का प्रकाशन 1839 ई. व द्वितीय भाग का प्रकाशन 1847 ई. में हुआ।  

    2. शिवसिंह सेंगर 

    इतिहास से संबंधी दूसरी रचना शिवसिंह सरोज हैजिसकी रचना शिवसिंह सेंगर ने 1883 ई. में की थी। शिवसिंह सरोज में लगभग एक हजार कवियों की रचनाएँ व जन्मकाल (जीवन चरित्र) दिया गया हैपरन्तु उनमें अधिकांश तथ्य अविश्वसनीय हैं। 

    3. सर जॉर्ज ग्रियर्सन

    द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान जॉर्ज ग्रियर्सन की कृति है। जिसका प्रकाशन 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' में अनेक विद्वानों ने इस ग्रन्थ को साहित्य का प्रथम इतिहास माना है।

    ग्रियर्सन ने गार्सा-द-तासी व शिवसिंह सेंगर के द्वारा एकत्रित सामग्री का उपयोग करते हुए अपने ग्रंथ को और भी प्रमाणित बनाने का प्रयास किया।  

    4. मिश्रबन्धु

    मिश्रबन्धु द्वारा रचित मिश्रबन्धु विनोद ग्रन्थ हिन्दी साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसे कृष्ण बिहारी मिश्रशुकदेव बिहारी मिश्र तथा गणेश बिहारी मिश्र इन तीनों भाइयों ने लिखा था। इसकी रचना चार भागों में हुईजिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई. तथा चौथा भाग 1914 ई. में प्रकाशित हुआ।

    5. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वर्ष 1929 में 'हिन्दी साहित्य का इतिहासनामक पर लिखा। यह ग्रन्थ पहले हिन्दी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा, परंतु बाद में इसे स्‍वतन्‍त्र पुस्‍तक का रूप दिया गया। 

    हिन्दी साहित्य का इतिहास ग्रन्‍थ को हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास का प्रस्‍थान बिन्‍दु कहा गया है। 

    6. डॉ. रामकुमार वर्मा 

    डॉ. रामकुमार वर्मा जी ने हिन्‍दी साहित्‍य इतिहास को दो भागों में प्रकाशित करवाया, जिनमें से एक भाग वर्ष 1938 में हिन्‍दी साहित्‍य का आलोचनात्‍मक इतिहास नाम से प्रकाशित हुआ। 

    डॉ. रामकुमार वर्मा जी, शुक्‍ल जी के वीरगाथाकाल को चारण काल कहना अधिक श्रेष्‍ठ मानते थे। इससे पहले के साहित्‍य को उन्‍होंने संधिकाल नाम दिया है। 

    7. हजारीप्रसाद द्विवेदी 

    शुक्‍ल जी के बाद हिन्‍दी जगत् में जारीप्रसाद द्विवेदी जी का महत्तपूर्ण स्‍थान है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने निम्न पुस्तकें लिखी है -
    1. हिन्दी साहित्य की भूमिका
    2. हिन्दी साहित्य का उद्भव एवं विकास
    3. साहित्य का आदिकाल

    डॉ. रामकुमार वर्मा जी, शुक्‍ल जी के वीरगाथाकाल को चारण काल कहना अधिक श्रेष्‍ठ मानते थे। इससे पहले के साहित्‍य को उन्‍होंने संधिकाल नाम दिया है। 

    हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन और नामकरण

    हिन्दी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन के कई आधार हो सकते हैं; जैसे-

    • प्रवृत्ति के आधार पर (सन्त काव्य, सूफी काव्य, भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद)। 
    • विकासवादिता के आधार पर (आदिकाल, मध्यकाल, आधुनिक काल) 
    • सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटनाओं के आधार पर (स्वच्छन्दतावाद, स्वातन्त्र्योत्तर काल) 
    • प्रधानकर्ता के आधार पर (भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, प्रसाद युग)। 

    इस प्रकार काल विभाजन का आधार निम्नलिखित होना चाहिए -

    • काल विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों और आदर्शों में समानता के आधार पर होना चाहिए।
    • कालों का नामकरण मूल साहित्य चेतना को आधार बनाकर करना चाहिए।
    • कालों का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरम्भ और समापन के अनुसार होना चाहिए।
    • काल की मूल प्रवृत्ति का निर्धारण प्रमुख ग्रन्थों के आधार पर करना चाहिए।

    हिन्दी के प्रमुख इतिहासकारों द्वारा किए गए काल विभाजन

    हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक इतिहासकारों; जैसे-गार्सा-द-तासी एवं शिवसिंह सेंगर ने काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया, परन्तु कुछ इतिहासकारों द्वारा किया गया काल विभाजन निम्न है -

    जॉर्ज ग्रियर्सन का काल विभाजन

    काल विभाजन के सम्बन्ध में सबसे पहला प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन का है। उन्होंने 'द मार्डन वर्नाक्युलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्थान' नामक ग्रंथ लिखा।  

    जॉर्ज ग्रियर्सन का काल विभाजन इस प्रकार है :-

      1. चारण काल (700-1300 ई.)
      2. 15वीं शताब्दी का धार्मिक पुनर्जागरण
      3. जायसी की प्रेम कविता
      4. ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय (1500-1600 ई.)
      5. मुगल दरबार रीतिकाव्‍य (1580-1692 ई.)
      6. तुलसीदास
      7. रीतिकाव्य
      8. तुलसी के अन्य परवर्ती (1600-1700 ई.)
      9. 18वीं शताब्दी (1700-1800 ई.)
      10. कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान
      11. महारानी विक्‍टोरिया के शासन में हिन्‍दुस्‍तान एवं विविध।

     मिश्रबन्धुओं का काल विभाजन 

    मिश्रबन्धुओं ने 'मिश्रबन्धु विनोदनामक पुस्‍तक लिखी जो चार भागों में विभक्‍त हैजिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई. में प्रकाशित हुए तथा चौथा भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ। 

    मिश्रबन्‍धुओं ने हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास को 8 भागों में विभाजन किया, जो इस प्रकार है :-

    1. प्रारम्भिक काल

    • पूर्वारम्भिक काल (700-1343 वि.)
    • उत्तरारम्भिक काल (1344-1444 वि.)

    2. माध्यमिक काल 

    • पूर्वमाध्यमिक काल (1445-1560 वि.)
    • प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561-1680 वि.)

    3. अलंकृत काल

    • पूर्वालंकृत काल (1681-1790 वि.)
    • उत्तरालंकृत काल (1791-1889 वि.)

    4. परिवर्तन काल (1890-1924 वि.)

    5. वर्तमान काल (1926 वि. से अब तक)

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का काल विभाजन

    हिंदी साहित्‍य में सर्वोच्‍च स्‍थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्‍तक हिन्दी साहित्य के इतिहास (1929 ई.) को प्राप्‍त हैजो नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हिंदी साहित्‍य-शब्‍द-सागर’ की भूमिका में लिखा गया था।

    जिसमें काल विभाजन इस प्रकार किया है - 

    1. आदिकाल या वीरगाथाकाल (संवत् 1050-1375)
    2. पूर्वमध्यकाल या भक्तिकाल (संवत् 1375-1700)
    3. उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल (संवत् 1700-1900)
    4. आधुनिक काल या गद्यकाल (संवत् 1900-1984)

    डॉ. रामकुमार वर्मा का काल विभाजन

    डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्‍य का आलोचनात्‍मक इतिहास’ (1938) में 1693 ई. से 1693 ई. तक की कालावधि को हि लिया गया है। इनके द्वारा काल विभाग इस प्रकार किया गया :-

    1. सन्धिकाल (750-1000 वि.)
    2. चारणकाल (1000-1375 वि.)
    3. भक्तिकाल (1375-1700 वि.)
    4. रीतिकाल (1700-1900 वि.)
    5. आधुनिक काल (1900 वि. से अब तक)

    डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त का काल विभाजन

    गणपतिचन्‍द्र गुप्त जी ने हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास लेखन की परम्‍परा में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। गुप्‍त जी ने सन् 1965 में अपनी पुस्तक 'हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' में काल विभाजन इस प्रकार किया है -

    1. प्रारम्भिक काल या आदिकाल (1184-1350 ई.)
    2. मध्यकाल पूर्व मध्यकाल (1350-1600 ई.)
    3. मध्यकाल उत्तर मध्यकाल (1600-1857 ई.)
    4. आधुनिक काल (1857 से अब तक)
    हिन्दी साहित्य का काल विभाजन pdf

    विभिन्न कालखण्डों के नामकरण

    साहित्येतिहासकारों द्वारा विभिन्न कालों के लिए सुझाए गए नाम निम्न हैं

    आदिकाल
    • वीरगाथा काल - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
    • आदिकाल - हजारीप्रसाद द्विवेदी
    • चारणकाल - डॉ. रामकुमार वर्मा
    • बीज वपन काल - महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • सिद्ध सामन्त युग - राहुल सांकृत्यायन
    • आरम्भिक काल - मिश्रबन्धु
    • प्रारम्भिक काल - डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त

    भक्तिकाल

    • माध्यमिक काल - मिश्रबन्धु
    • भक्तिकाल - हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा
    • पूर्व मध्यकाल - डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त


    रीतिकाल

    • अलंकृत काल - मिश्रबन्धु
    • रीतिकाल - हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा
    • श्रृंगार काल - विश्वनाथ त्रिपाठी
    • कला काल - डॉ. भगीरथ मिश्र

    आधुनिक काल

    • वर्तमान काल - मिश्रबन्धु
    • गद्यकाल - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
    • आधुनिक काल - हजारीप्रसाद द्विवेदी

    सर्वमान्‍य हिन्‍दी साहित्‍य का नामकरण व काल विभाजन 

    हिंदी साहित्‍य का काल विभाजन तथा नामकरण में सभी साहित्‍येतिहासकारों  द्वारा सर्वमान्‍य चार भागों में भाटा गया है-

    1. आदिकाल (1000 ई. से 1350 ई.)
    2. भक्तिकाल (1350 ई. से 1650 ई.)
    3. रीतिकाल (1650 ई. से 1850 ई.)
    4. आधुनिक काल (1850 ई. से अब तक)

    1. आदिकाल (1000 ई. से 1350 ई.)

    आदिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास का आरंभिक काल है, जिसका समयकाल 10वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी (1050 से 1375 विक्रम संवत्) तक माना जाता है। आदिकाल नाम हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला। 

    इस काल में संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति का गहरा प्रभाव था। यह मुख्य रूप से धार्मिक और शास्त्रीय साहित्य का काल था। 

    आदिकाल की प्रमुख विशेषताएँ :

    1. ऐतिहासिकता का अभाव
    2. युद्ध वर्णन में सजीवता
    3. संकुचित राष्ट्रीयता
    4. आश्रयदाताओं की प्रशंसा
    5. प्रामाणिकता में सन्देह
    6. कल्पना की प्रचुरता
    7. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता
    8. डिंगल-पिंगल भाषा का प्रयोग
    9. अलंकारों का स्वाभाविक समावेश
    10. विविध छन्दों का प्रयोग

    आदिकाल की प्रमुख रचनाएँ और साहित्यकार :

    • विजयपाल रासो - नल्लसिंह
    • कीर्तिलता, कीर्तिपताका - विद्यापति
    • खुमाण रासो - दलपतिविजय
    • बीसलदेव रासो - नरपति नाल्ह
    • पृथ्वीराज रासो - चंद बरदाई
    • परमाल रासो - जगनिक
    • खुसरो की पहेलियाँ - अमीर खुसरो
    • विद्यापति की पदावली - विद्यापति

    आदिकालीन साहित्य

    1. सिद्ध साहित्य  

    बौद्ध धर्म के वज्रयान का प्रचार करने के लिए सिध्दों ने जो साहित्य जन भाषा में लिखा उसे ही हम सिद्ध साहित्य है।

    सिद्धों का समयकाल 8वीं से 13वीं शती तक माना जाता है। सरहपा प्रथम सिद्ध कवि थेे। 

    कुछ प्रमुख सिद्ध कवि हैं - सरहपा, लुइपा, कण्हपा, नागार्जुनतिलोपा, छत्रपा, मलिपा, शबरपा आदि।

    2. जैन साहित्य

    जिस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्र में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया, उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु जो साहित्य लिखा वह जैन साहित्य कहलाता है। 

    जैन साहित्य की रचना अवधि 8वीं से 13वीं शती तक मानी गयी है। 

    आदिकालीन जैन साहित्य के प्रमुख कवि - देवसेन, शालिभद्र सुरि, चन्दनबाला रास, विजयसेन सूरि आदि।

    3. नाथ साहित्य

    हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, नाथ साहित्य के "नाथ-पंथ या नाथ-सम्प्रदाय के सिद्ध-मत, योग-मार्ग, सिद्ध-मार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत मत एवं अवधूत- सम्प्रदाय नाम भी प्रसिद्ध हैं।"

    नाथ पंथ के लोगों को कनफटे योगी कहा जाता है। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरखनाथ माने जाते हैं, परंतु 'ज्योतिरेश्वर' के 'वर्णरत्नाकर' और 'ज्ञानेश्वर' को प्रामाणिक मानकर 'मत्स्येन्द्रनाथ' को 'नाथपंथ' का आदि प्रवर्तक माना जाता है।

    जिस प्रकार सिद्धों की संख्या 84 है उसी तरह नाथों की संख्या 9 है। इनका समय 12वीं शती से 14वीं शती तक माना जाता है।

    प्रसिद्ध नाथ संत- भगवान गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, जयाधरनाथ, और श्रीनाथ। 

    4. चारण-साहित्य

    विभिन्न क्षेत्रों में चारण जाति ने कई उत्कृष्ट कवि, इतिहासकार, विद्वान, निष्ठावान राजदरबारी और योद्धा प्रदान किए हैं। चारण काव्य 8-10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखे गये हैं। 

    प्रमुख कवि -  कविराजा बाँकीदास, सूर्यमल्ल मिश्रण, कविराजा दयालदास और कविराजा श्यामलदास आदि। 

    5. रासो साहित्य

    आदिकालीन रासो साहित्य में मूलतः सामंती व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा साहित्य है, इसके गंथों में अधिकतर वीर गथाऍं है। जिसका संबंध पश्चिमी हिंदी प्रदेश से है। इसे देश भाषा काव्य के नाम से भी जाना जाता है।

    आचार्य शुक्ल के अनुसार, वीरगीत परम्परा का प्राचीनतम ग्रन्थ 'बीसलदेव रासो' है।

    प्रमुख रासो ग्रन्थ एवं ग्रंथकार :

    • पृथ्वीराज रासो - चंदबरदाई
    • बीसलदेव रासो - नरपति नाल्ह
    • परमाल रासो - जगनिक
    • विजयपाल रासो - नल्लसिंह भाट
    • हम्मीर रासो - शार्ङ्धर
    • खुमान रासो- दलपति विजय
    • बुद्धिरासो - जल्हण

    6. लौकिक साहित्य 

    लोक संवेदना से उपजा साहित्‍य लौकिक साहित्‍य होता है। आदिकालीन साहित्‍य में लौकिक साहित्य विपुल मात्रा में रचा गया था। इनमें वियोग श्रृंगार का काव्य संदेश रासक सर्व प्रमुख है। अमीर खुसरो की पहेलियाँ और मुकरियाँ, रोड़ा कवि द्वारा रचित गद्य पद्य मिश्रित धोलामारुरादुहा, बसन्त विलास आदि भी लौकिक साहित्य का प्रमुख अंग है।

    2. भक्तिकाल (1350 ई. से 1650 ई.)

    यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना जाता है। शुक्लजी ने संवत् 1375 वि. से 1700 वि. तक के काल-खंड को ही हिंदी साहित्य का भक्तिकाल कहा है तथा डॉ. नगेन्द्र के अनुसार भक्तिकाल की समय सीमा 1350 ई. से 1650 ई. तक मानी है। 

    इस काल को जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल,  आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा है। 

    भक्तिकाल के प्रमुख सम्प्रदाय व उनके आचार्य

    1. श्री सम्प्रदाय – रामनुजनाचार्य
    2. ब्रम्ह सम्प्रदाय – मध्वाचार्य 
    3. रुद्र सम्प्रदाय – विष्णु स्वामी/ बल्लभाचार्य 
    4. सनकादि सम्प्रदाय – निम्बकाचार्य 
    5. गौड़ीय सम्प्रदाय – चैतन्य महाप्रभु आदि। 

    भक्तिकाल की विशेषताएँ 

    1. भक्ति का उत्कर्ष - ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति में वृद्धि।

    2. निर्गुण और सगुण भक्ति - निर्गुण (निर्गुण ब्रह्म) और सगुण (राम, कृष्ण) भक्ति का प्रचार।

    3. साधारण भाषा का प्रयोग - हिंदी, अवधी, ब्रज आदि में काव्य रचनाएँ।

    4. प्राकृतिकता और प्रेम - ईश्वर से प्रेम और समर्पण को प्रमुखता।

    6. आध्यात्मिक संदेश - आत्मा की मुक्ति और परमात्मा के साथ मिलन।

    7. उत्तम आचार और शील - भक्ति के साथ अच्छे आचार और शील का पालन।

    8. संतों की विविधता - निर्गुण और सगुण भक्ति के संतों की विविधता।

    9. सामाजिक सुधार - जातिवाद, अंधविश्वास और पाखंड का विरोध।

    भक्तिकाल का वर्गीकरण

    हिन्‍दी साहित्‍य के भक्तिकाल को दो धाराओं में वर्गीकरण किया गया है: निर्गुण भक्ति काव्य, सगुण भक्ति काव्य।

    इन दोनों धाराओं की दो-दो उपधाराएं हैं -

    1. निर्गुण भक्ति काव्य : ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्‍य) और प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्‍य)

    2. सगुण भक्ति काव्य : कृष्ण भक्ति शाखा और राम भक्ति शाखा 

    हिन्दी साहित्य का काल विभाजन एवं नामकरण

    3. रीतिकाल (1650 से 1850 ई.)

    रीति का अर्थ है : पद्धति । अर्थात् रस, अलंकार, गुण, ध्वनि एवं नायिका भेद आदि काव्यांगों के विवेचन करते हुए तथा इनके  लक्षण बताते हुए लिखे गये काव्य की प्रधानता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया । 

    रीतिकाल की समय-सीमा अधिकतर विद्वानों ने लगभग 1650 से 1850 ई. तक स्वीकार की है। 

    रीतिग्रंथों, रीतिकाव्यों तथा अन्य प्रवृत्तियों के कवियों की रचनाओं में भी श्रृंगार रस की प्रधानता हाने के कारण इस काल को श्रृंगारकाल भी कहा जाता है । इसके साथ ही इस काल को अलंकार काल और कला काल की संज्ञाएँ भी दी गई, लेकिन रीतिकाल नाम ही सर्वाधिक सार्थक एवं प्रचलित नाम है । 

    रीति काल की प्रमुख विशेषताएँ -

    शृंगारी काव्य: रीतिकाव्य में श्रृंगार रस का बहुत अधिक प्रयोग हुआ। इस समय के कवि प्रेम, सौंदर्य, और आकर्षण को प्रमुख रूप से चित्रित करते थे।

    अलंकारों का प्रयोग: रीतिकाव्य में अलंकारों (रूपक, अनुप्रास आदि) का अत्यधिक प्रयोग हुआ। कवि काव्य में शास्त्रीय अलंकारों को शामिल करते थे।

    काव्यशास्त्र: इस काल में काव्यशास्त्र पर बल दिया गया और कवियों ने काव्य के नियमों का पालन करते हुए अपनी रचनाएँ लिखीं।

    रीतिकाल की काव्यधाराएँ -

    1. रीतिबद्ध कवि
    2. रीतिमुक्त कवि
    3. रीतिसिद्ध कवि
    हिन्दी साहित्य वस्तुनिष्ठ प्रश्न उत्तर pdf

    4. आधुनिक काल (सन् 1850 ई. से अब तक)

    भारतेन्दु युग (सन् 1850 – 1900 ई.)

    हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के प्रथम चरण को भारतेन्दु युग माना गया है। इस युग की समय सीमा 1857 से 1900 ईस्वी तक मानी जाती है, परंतु अलग-अलग विद्वानों के द्वारा इसकी समय सीमा अलग-अलग बतायी गई है। 

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्पादक, संगठनकर्ता, साहित्यकारों के नेता और समाज सुधारवादी विचारक थे। इन सब के चलते ही इस युग को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी गई है। 

    इस काल में हिन्दी के प्रचार उदन्त मार्तण्ड, कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन आदि पत्र-पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है। इस युग में हिन्दी गद्य की सर्वांगीण विकास हुआ है और उसमें उपन्यास, कहानी, आलोचना, जीवनी, नाटक, निबन्ध, आदि विधाओं में अनूदित तथा मौलिक रचनाएं लिखी गयीं।

    भारतेंदु युग के प्रमुख लेखक : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बाबा सुमेर सिंह, बदरी नारायण प्रेमघन, राधाकृष्ण दास, प्रताप नारायण मिश्र, अम्बिका दत्त व्यास और ठाकुर जगमोहन सिंह आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।

    हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल

    द्विवेदी युग (सन् 1900 – 1920 ई.)

    हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग के बाद का समय को द्विवेदी युग का नाम दिया गया है। इस युग का नाम महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से रखा गया है। 

    डॉ. नगेन्द्र ने इस युग को ‘जागरण-सुधार काल’ भी कहा जाता है तथा इसकी समयावधि 1900 से 1918 ई. तक माना। वहीं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग को ‘नई धारा: द्वितीय उत्थान’ के अन्तर्गत रखा है तथा समयावधि सन् 1893 से 1918 ई. तक माना है। कहींं कही इस काल की समय अवधि 1900 से 1920 ई. तक भी देखने को मिलती हैं। 

    द्विवेदी युग के प्रमुख कवि : महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', मैथिलीशरण गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, बाबू गुलाब राय, गया प्रसाद शुक्ल "सनेही", गोपालशरण सिंह, लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि। 

    छायावाद (सन् 1920 - 1936 ई.)

    हिंदी साहित्य के 1920 से 1936 ई. के बीच के समय को हिंदी साहित्‍य का छायावाद कहा जाता है। इस काल के नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। छायावाद को 'साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग' भी कहा जाता है।

    डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “छायावाद, स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।'' 

    छायावाद के चार स्‍तंभ कवि : जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत एवं पंडित माखन लाल चतुर्वेदी।  

    प्रगतिवाद (सन् 1936 - 1943 ई.)

    हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद युग का आरंभ सन् 1936 - 1943 ई. तक माना जाता है। 1936 वर्ष में ही प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन लखनउ में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता महान लेखक प्रेमचंद ने की थी। इसके बाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रचनाएँ हुई। 

    हिंदी साहित्‍य के प्रगतिवाद युग के प्रवर्तक या जनक कार्ल मार्क्स को माना जाता है। तथा काव्य की बात की जाए तो प्रगतिवाद युग में काव्य के प्रवर्तक या जनक के रूप में सुमित्रानंदन पंत को माना गया है। राजनीति में जो मार्क्सवाद है, साहित्‍य में उसे ही प्रगतिवाद के नाम से जाना जाता है।

    प्रगतिवादी धारा के साहित्यकार : नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रांघेय राघव, शिवमंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन आदि।

    प्रयोगवाद  ( 1943 से 1954 )

    प्रयोगवाद का आरम्भ सन् 1943 ई० में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के सम्पादकत्व में प्रकाशित 'तार सप्तक' से माना जाता है।  तार सप्तक' में सात कवि संगृहीत हैं। अज्ञेय को ही प्रयोगवाद का जनक माना जाता है

    'प्रयोगवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग नंददुलारे वाजपेयी ने 'प्रयोगवादी रचनाएँ' शीर्षक से निबंध में किया। नंद दुलारे वाजपेयी ने प्रयोगवाद को 'बैठे ठाले का धंधा' कहा है।

    प्रगतिवाद के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ

    1. अज्ञेय - 'हरी घास पर क्षण भर', 'इत्यलम', 'इन्द्रधनुष ये रौदे हुए'।

    2. धर्मवीर भारती -'अन्धायुग', 'कनुप्रिया', 'ठण्डा लोहा' ।

    3. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना - 'बाँस के पुल', 'एक सूनी नाव', 'काठ की घंटियाँ' ।

    4. मुक्तिबोध - 'चाँद का मुँह टेढ़ा है', 'भूरी-भूरी खाक धूल'।

    5. गिरिजा कुमार माथुर - 'धूप के धान', 'शिला पंख चमकीले', 'नाश और निर्माण' ।

    6. भारत भूषण अग्रवाल - 'ओ अप्रस्तुत मन' ।

    7. नरेश मेहता - 'संशय की एक रात', 'बन पाँखी'।

    नयी कविता  ( 1954 से अब तक) 

    हिन्दी साहित्य में नयी कविता सन् 1950 ई. के बाद की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों तथा नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। यह हिंदी साहित्‍य के प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिन्दी कविता की नवीन धारा है। 

    'नयी कविता' नाम अज्ञेय का दिया हुआ है। नयी कविता के संबंध में अलग- अलग विद्वानों के अपने मत है- कुछ लोग 'नयी कविता' का आरम्भ सन् 1954 में जगदीश गुप्त द्वारा सम्पादित 'नयी कविता' पत्रिका के प्रकाशन से माना जाता है। जबकि बच्चन सिंह ने 'नयी कविता' का आरम्भ सन् 1951 से माना हैं। 

    नयी कविता के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ

    1. भवानी प्रसाद मिश्र - सन्नाटा, गीत फरोश, चकित है दुःख।

    2. कुंवर नारायण - चक्रव्यूह, आमने-सामने, कोई दूसरा नही।

    3. शमशेर बहादुर सिंह - काल तुझ से होड़ है मेरी, इतने पास अपने, बात बोलेगी हम नहीं।

    4. नरेश मेहता - वनपांखी सुनों, बोलने दो चीड़ को, उत्सव। 

    5. दुष्यंत कुमार - सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, साये में धूप।

    6. श्रीकांत वर्मा - दिनारम्भ, भटका मेघ, माया दर्पण, मखध।

    7. रघुवीर सहाय - हँसो-हँसो जल्दी हँसो, आत्म हत्या के विरुद्ध।

    8. जगदीश गुप्त - नाव के पाँव, शब्द दंश, बोधि वृक्ष, शम्बूक।

    हिन्दी साहित्य की गद्य विधाएं

    हिन्दी उपन्यास

    उपन्यास का उद्भव यूरोप में रोमाण्टिक (प्रेम प्रसंगयुक्त) कथा साहित्य में हुआ, जो मूलतः भारतीय प्रेमाख्यानों से प्रेरित था। हिन्दी में उपन्यास का आविर्भाव 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ। 

    'परीक्षा गुरु' (1882 ई.) को हिन्दी के प्रथम मौलिक उपन्यास के रूप में माना जाता है।

    प्रथम चरण -  प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास

    हिन्दी में उपन्यास विधा का श्रीगणेश भारतेन्दु युग से ही मानना उचित होगा। हिन्दी उपन्यास का आरम्भ बंगला तथा अंग्रेजी व मराठी भाषी उपन्यासों के हिन्दी में अनुवाद से माना जाता है।

    भारतेन्दु हरिश्चन्द तथा उनके समकालीन लेखकों ने बंगला तथा मराठी भाषा से अनुवाद करने का कार्य किया। हालाकि इस युग में मौलिक उपन्यास लेखन कार्य भी हुआ, लेकिन हिन्दी से पूर्व बंगला तथा मराठी भाषा में उपन्‍यास का आराम्‍भ हो चुकी थी, अतः पहले पहल इनके अनुवाद के रूप में ही हिन्दी उपन्यास विद्या का आरंभ माना जाता है। 

    भारतेन्दु एक जागरूक कलाकार थे। उन्होंने अनुवाद के अलावा एक मौलिक उपन्यास 'कुछ आपबीती कुछ जगबीती' भी लिखना आरम्भ किया था, जो असमय में ही उनकी मृत्यु हो जाने के कारण आरम्भ होकर ही रह गया।

    अतः भारतेन्दु युग के प्रथम उपन्यासकार लाला श्रीनिवास दास को माना जाता है। जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी में मौलिक उपन्यास की रचना की। अपने उपन्यास 'परीक्ष गुरु' में उन्होंने सामान्य भाषा में सामान्य जन चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया।

    प्रेमचन्द पूर्व युग के अन्य उपन्यासकारों में प्रसिद्ध हैं- देवकीनन्दन खत्री, बाबू गोपालराम, किशोरीलाल गोस्वामी, अयोध्यासिंह उपाध्याय आदि।

    2. द्वितीय चरण - प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी उपन्यास

    हिन्दी उपन्यास के विकास के दूसरे चरण का आरंभ उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के आगमन से माना जाता है। हालाँकि प्रेमचंद के पूर्व से ही हिन्दी उपन्यासों में कथावस्तु, शैली तथा उद्देश्य आदि में अन्तर आने लगा था, जो प्रेमचंद के उपन्यास 'सेवा सदन' से और पूर्णतः स्पष्ट हो गया।

    हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद का स्थान अद्वितीय है। उन्होंने पहली बार हिन्दी-उपन्यास में चरित्र चित्रण को प्रधानता दी। प्रेमचन्दजी ने उपन्यासों में यथार्थ की भूमिका पर पात्रों के चरित्र चित्रण की ओर ध्यान दिया। 

    कृषक वर्ग और राष्ट्रीय आन्दोलन की अभिव्यक्ति अपने उपन्यासों में की। उनकी सबसे बड़ी विशेषता सरलत और अकृतिमता है। हिन्दी-उपन्यास क्षेत्र में यथार्थवादी विचारधारा का प्रकाशन प्रेमचन्द से ही होता है।

    हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'प्रेमचंद' शताब्दियों से पददलित, अपमानित और निष्पेषित कृषकों की आवाज थे, पर्दे में कैद, पद-पद पर लांछित और असहाय नारी जांति की महिमा के जबरदस्त वकील थे; गरीबी और बेकसों के महत्व के प्रचारक थे।

    प्रेमचन्द के अनेक उपन्यासों में 'गोदान' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

    प्रेमचन्द युग में जयशंकर प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखकर अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। इनका 'कंकाल' यथार्थवादी उपन्यास है। 'तितली' में नारी भावना का प्रकाशन है। 'इरावती' उनका अधूरा ऐतिहासिक उपन्यास है। 

    प्रेमचन्द युग के अन्य उपन्यासकारों में प्रसिद्ध हैं- विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक', प्रतापनारायण श्रीवास्तव, जैनेन्द्रकुमार तथा वृन्दावनलाल वर्मा, जयशंकर प्रसाद, बृजनन्दन सहाय, पाण्डेय बेचैन शर्मा 'ग्य', भगवती प्रसाद वाजपेयी आदि।

    3. तृतीय चरण -  प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास

    प्रेमचंदयुगीन उपन्यासों में तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। लेकिन उसी यथार्थवादी चित्रण को उनके बाद के लेखकों ने अपनी अधिक या अतियथार्थवादी शैली के माध्यम से एक नये स्वरूप व शैली को स्वरूप दिया, जिसे प्रगातिवादी विचारधारा कहा जाता है।

    प्रगतिवादी उपन्यासों में मजदूर, किसान और मध्यम वर्ग के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों का चित्रण है। इनमें शोषित वर्ग में उभरती शक्ति और चेतना को मुखरित किया गया है।

    इस नयी प्रगतिवादी चेतना को लेकर उपन्यास लिखने वालों में प्रमुख हैं- यशपाल, कृष्णचन्द्र, उपेन्‍द्रनाथ अश्‍क, नागार्जुन, रांगेय राघव, श्रीकृष्णदास, अमृतराय आदि।

    इस युग में प्रगतिवादी विचारधारा के कारण कई मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखे गए। साथ ही भी काफी लिखे गए। आँचलिक उपन्यासकारों में प्रमुख नाम आता है- फणीश्वरनाथ रेणु, रांघेय राघव आदि।

    हिन्दी उपन्यास

    हिन्‍दी कहानी

    आधुनिक हिन्दी कहानी का विकास संस्कृत-कथा-साहित्य की परम्परा में न होकर, पाश्चात्य साहित्य विशेषतया अँग्रेज़ी साहित्य के प्रभाव रूप में हुआ।

    उपन्यासों की भाँति कहानियों की रचना का प्रारम्भ भी भारतेन्दु युग हुआ।

    कुछ आलोचकों ने ब्रजभाषा में लिखी गयी भक्त कवियों की कथा - दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता तथा दो सौ चौरासी वैष्णवों की वार्ता को आधुनिक हिन्दी कहानी का प्रारम्भ माना; परन्तु कहानी के तत्वों के अभाव के कारण ऐसा नहीं है।

    कुछ आलोचकों ने हिन्दी के प्रारम्भिक गद्यकारों- सदामुखलाल के सुखसागर, लल्लूलाल के प्रेमसागर, सदलमिश्र के नासिकेतोपाख्यान तथा इंशाअल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी को हिन्दी की प्रारम्भिक कथा-कृतियाँ माना है लेकिन यहाँ भी तत्व नहीं मिले।

    कहानी का काल विभाजन

    हिंदी की आधुनिक कहानी का प्रारंभ हम भारतेंदु काल से ही मानें तो उपयुक्त रहेगा।

    आलोचक राजकुमार कहानी के सन्दर्भ में लिखते हैं-"कहानी बोरे की तरह है। और यथार्थ माल की तरह। कहानी इस बाहर पड़े यथार्थरूपी माल को अपने भीतर भरती हैं। यथार्थ के वज़न से कहानी की श्रेष्ठता या महानता का मूल्यांकन होता है। जिसमें जितना ज़्यादा यथार्थ, उतनी ही बड़ी वह कहानी।"

    • प्रेमचंद पूर्व कहानी

    माधवप्रसाद मिश्र, किशोरीलाल गोस्वामी, गिरिजादत्त वाजपेयी, रामचंद्र शुक्ल, बगमहिला, विद्यानाथ शर्मा, वृन्दावनलाल वर्मा,

    • प्रेमचंदयुगीन कहानी

     जयशंकर प्रसाए, विश्वम्भरनाथ 'कौशिक', आचार्य चतुरसेन शास्त्री, पण्डित बद्रीनाथ भट्ट 'सुदर्शन', रायकृष्ण दास, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

    • प्रेमचंदोत्तर कहानी

    जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, प्रभृति कहानीकार आते हैं। 

    • समकालीन कहानी

    ऋता शुक्ला, सारा राय, गीतांजलि श्री, मधुसूदन आनंद, संजय खाती, पंकज बिष्ट, भैरव प्रसाद गुप्त, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, श्रीकांत वर्मा

    हिन्दी नाटक

    हिंदी में नाटक के उद्भव एवं विकास को 19वीं सदी से स्वीकार किया जाता है लेकिन दशरथ ओझा ने नाटक को 13वीं सदी से स्वीकार करते हुए 'गाय कुमार रास' को हिंदी का पहला नाटक (Hindi ka Pahla Natak) माना है |उन्होंने मैथिली नाटकों, रासलीला तथा अन्य पद्यबद्ध नाटकों की चर्चा करते हुए मिथिला के नाटकों को हिंदी के प्राचीनतम नाटक माना है लेकिन अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं क्योंकि इन रचनाओं में नाटक के अनिवार्य तत्त्वों का अभाव है।

    अन्य विधाओं की भांति वास्तव में नाटक साहित्य का विकास भी भारतेंदु युग में ही हुआ |

    संस्कृत नाटकों की परंपरा के ह्रास के बाद नाटक के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा अभाव सामने आया | हिंदी के आदिकाल और मध्यकाल में नाटक को विशेष प्रोत्साहन नहीं मिला । यह ठीक है कि लोक-जीवन में पारंपरिक नाट्य प्रचलित रहा और भाषा नाटक भी लिखे गए हैं। भारतेंदु से पूर्व ब्रज भाषा में नाटक लिखे गए थे |

    जैसे प्राणचंद चौहान कृत 'रामायण महानाटक' तथा बनारसी दास जैन कृत 'समय सार नाटक', विश्वनाथ सिंह रचित 'आनंद रघुनंदन' आदि | 

    इस प्रकार 1610 ईसवी से लेकर 1850 ईसवी की अवधि में लगभग 14 नाटक प्राप्त हुए हैं। परन्तु इन्हें भी विद्वान् हिंदी के वास्तविक नाटक मानने के पक्ष में नहीं हैं।

    'कालचक्र' नाम की अपनी एक पुस्तक में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने लिखा है 'हिंदी नई चाल में ढली, सन 1873 ईस्वी में'। इसी पुस्तक में (कालचक्र) में उन्होंने 'नहुष' (बाबू गोपाल चंद्र गिरिधरदास द्वारा रचित) को हिंदी का पहला नाटक, राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा रचित शकुंतला को हिंदी का द्वितीय नाटक तथा विद्यासुंदर (भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित) को हिंदी का तृतीय नाटक माना है। 'नहुष' ब्रज भाषा में रचित नाटक है । वस्तुतः हिंदी नाटक का विकास भारतेंद युग से हुआ।

    हिंदी नाटक के विकास (Hindi Natak ka Vikas ) को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है :

    • भारतेंदु युग के नाटक
    • द्विवेदी युग के नाटक 
    • प्रसाद युग के नाटक 
    • प्रसादोत्तर युग के नाटक 

    1. भारतेंदु युग के नाटक : 

    भारतेंदु जी ने नाट्य-रचना के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया | उनकी नाट्य-रचनाओं को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है - अनुदित नाटक, रूपांतरित नाटक और मौलिक नाटक | भारतेंदु जी ने संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया ।

    विद्या सुंदर, पाखंड विखंडन, कर्पूर मंजरी, मुद्राराक्षस रत्नावली और दुर्लभ बंधु भारतेंदु जी के अनुदित नाटक हैं।

    भारतेंदु जी के द्वारा रचित मौलिक नाटकों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषम औषधम, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी आदि का नाम प्रमुख है ।

    उनके द्वारा रचित मौलिक नाटकों में से कुछ नाटक अन्य भाषाओं के नाटकों का रूपांतरित रूप प्रकट होते हैं ।

    भारतेंदु जी से प्रेरणा प्राप्त करके अनेक लेखक नाटक लेखन के क्षेत्र की ओर प्रवृत्त हुए । इनमें अंबिकादत्त व्यास, देवकीनंदन त्रिपाठी, श्री नंदन सहाय, राधा कृष्ण दास, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, दुर्गादत्त, गोपालराम गहमरी, प्रताप नारायण मिश्र, किशोरी लाल गोस्वामी, श्रीनिवास दास बालकृष्ण भट्ट आदि का नाम प्रमुख है।

    भारतेंदु युग में देशभक्ति की भावना, राष्ट्रीय जागरण, समाज सुधार, सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति नाटकों के माध्यम से की गई ।

    पौराणिक नाट्य धारा के अंतर्गत राम, कृष्ण, सीता, सुदामा, रुक्मणी आदि के पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर कई नाटक लिखे गए । ऐतिहासिकता के आधार पर महाराणा प्रताप, संयोगिता स्वयंवर, मीराबाई, हमीर आदि को लेकर नाट्य-रचनाएं लिखी गई | राष्ट्रीय धारा के अंतर्गत वे नाटक आते हैं जो देश की दुर्दशा का चित्रण करते हैं तथा इसके लिए उत्तरदायी तत्वों पर प्रकाश डालते हैं। सामाजिक नाटकों के अंतर्गत वे नाटक उल्लेखनीय हैं जिनमें रूढ़ियों, अंधविश्वासों व गलत परम्पराओं पर चोट की गई है। नारी जीवन को लेकर अनेक नाटक लिखे गए | इनमें मयंक मंजरी (किशोरी लाल गोस्वामी) और रणधीर प्रेम मोहिनी ( श्री निवासदास ) महत्वपूर्ण है ।

    2. द्विवेदी युग के नाटक : 

    द्विवेदी युग में हिंदी-नाटक विकास की उस गति को खो बैठा जो उसने भारतेंदु युग में प्राप्त की थी। इस युग के नाटककारों को एक तो परंपरागत रंगमंच उपलब्ध नहीं हो पाया और दूसरे इनका मध्य-वर्ग से संबंध टूट गया | द्विवेदी-युग के नाटकों में सुधारवादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस युग के अधिकांश नाटक सुधारवादी दृष्टिकोण के कारण उपदेशात्मक डॉक्यूमेंट्री बन कर रह गये | पारसी रंगमंच हिंदी क्षेत्र पर छा गया और हिंदी रंगमंच अपना अस्तित्व खोने लगा |

    इस युग के कुछ प्रमुख नाटककारों में आगा हश्र कश्मीरी, पंडित राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब, हरि कृष्ण जौहर आदि का नाम लिया जाता है।

    3. प्रसाद युग के नाटक : 

    जयशंकर प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं । उन्होंने कवि होने के साथ-साथ कहानी, उपन्यास और नाटक के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया | वस्तुतः कवि के बाद प्रसाद नाटककार के रूप में ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए । प्रसाद ने आरंभ में कल्याणी परिणय, करुणालय, प्रायश्चित आदि रूपक लिखे किंतु उनके प्रतिभा का उदय 'राज्यश्री' से हुआ | उसके बाद विशाखदत्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूंट, कामना, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी जैसे नाटक लिखकर उन्होंने हिंदी नाटक को विशेष आयाम प्रदान किए। 

    उनके नाटकों का मुख्य स्वर राष्ट्रीय-चेतना, सांस्कृतिक चेतना व देशभक्ति होते हुए भी उनके नाटकों में मानवीय करुणा और विश्व बंधुत्व की भावना का एक विशेष स्वर सुनाई देता है

    प्रसाद के समकालीन नाटककार उनके समक्ष कोई विशेष पहचान नहीं बना पाए फिर भी वियोगी हरि द्वारा रचित 'छदम योगिनी' और मैथिलीशरण गुप्त कृत 'तिलोत्तमा 'विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक कृत 'भीम' आदि कुछ ऐसे नाटक है जिन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई ।

    4. प्रसादोत्तर नाटक : 

    प्रसादोत्तर काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक हिंदी नाटक कई धाराओं में विभक्त रहा | इस काल में एक ओर प्रसाद की नाट्य परंपरा का ही अनुसरण होता रहा तो दूसरी ओर यथार्थवादी और सामाजिक समस्या मूलक प्रवृत्तियों के आधार पर नाटक लिखे गए | प्रसाद की नाट्य परंपरा की वास्तविक पुनरावृति कभी संभव नहीं हुई क्योंकि प्रसाद का अपना एक व्यक्तित्व और अपनी प्रतिभा थी जिसका मुकाबला कोई अन्य नहीं कर पाया ।

    प्रसादोत्तर युग में हरिकृष्ण प्रेमी, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, गोविंद बल्लभ पंत और वृंदावन लाल वर्मा आदि नाटककारों ने ऐतिहासिक नाटक रचना की परंपरा को अक्षुण्ण रखा | 

    जहां प्रसाद जी ने प्राचीन भारत के गौरवमयी चित्र प्रस्तुत किए थे वहीं हरि कृष्ण प्रेमी ने अपने नाटकों में मध्यकाल को स्थान दिया | उनके नाटकों में रक्षाबंधन, शिवा साधना, कीर्ति स्तंभ, प्रकाश स्तंभ आदि नाटक उल्लेखनीय है।

    जगदीश चंद्र माथुर द्वारा रचित 'कोणार्क' और 'शारदीया' नाटक भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे गये उल्लेखनीय नाटक है।

    इस युग के नाटकों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यदि इस युग में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नाटक लिखे भी गए हैं तो उन्हें समसामयिक आधार पर एक नए रंग में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए मोहन राकेश द्वारा रचित नाटक 'लहरों के राजहंस' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से होते हुए भी मनुष्य के उस अंतर्द्वद्ध को अभिव्यक्त करता है जो आधुनिक मानव के लिये अधिक प्रासंगिक लगता है | 

    मोहन राकेश द्वारा रचित 'आधे अधूरे' आधुनिक मध्यमवर्गीय परिवार की त्रासद अभिव्यक्ति है | नरेश मेहता और मन्नू भंडारी के नाटकों में आधुनिक बोध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | इनमें आजकल के पढ़े-लिखे पति पत्नी के बीच पैदा हुए तनाव की अभिव्यक्ति की गई है।

    निष्कर्षतः

    आधुनिक हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के मुकाबले में हिंदी नाटक का विकास अपेक्षाकृत मंद गति से हुआ है और आने वाले समय में इस विधा का और अधिक क्षरण होना स्वाभाविक है । क्योंकि नाटक वास्तव में रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए लिखे गए होते हैं। लेकिन वर्तमान में रंगमंच की तरफ दर्शकों का अधिक रुझान नहीं है। फिर भी कुछ साहित्यकार अपने प्रयासों से नाटक विधा को न केवल जीवित रखे हुये हैं बल्कि समय की मांग के अनुरूप उसमें नये तत्त्वों का समावेश कर उसे रुचिकर भी बना रहे हैं।

    हिन्दी निबन्ध

    हिन्दी निबन्ध गद्य साहित्य की एक विधा है, इस विधा में लेखक किसी विषय के सम्बन्ध में अपने विचारों को स्वच्छन्द रूप से साहित्यिक शैली में व्यक्त करता है। निबन्ध एक ऐसी कलाकृति है, जिसके नियम लेखक द्वारा ही आविष्कृत होते हैं। निबन्ध में सहज, सरल और आडम्बरहीन ढंग से व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है। 

    हिन्दी निबन्ध पश्चिम की देन है। हिन्दी में साहित्यिक निबन्धों का विकास आधुनिक काल से माना जाता है। 

    हिन्दी निबन्ध के विकास-क्रम को मुख्यतः चार भागों में बाँटा गया है:-

    1. भारतेन्दु युग  2. द्विवेदी युग  3. शुक्ल युग   4. शुक्लोत्तर युग।

    1. भारतेन्दु युग

    हिन्दी निबन्ध की विकास यात्रा का प्रारम्भिक चरण भारतेन्दु युग है। इससे पूर्व के लिखे निबन्धों में निबन्ध शैली के गुण विद्यमान नहीं थे। डॉ. शिवदान सिंह चौहान ने 'भारतेन्दु' को हिन्दी का प्रथम निबन्धकार माना है। 

    इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं- प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', बालमुकुन्द गुप्त आदि ।

    2. द्विवेदी युग

    द्विवेदी युग का नामकरण महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के नाम पर हुआ। इन्होंने 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादन कार्य वर्ष 1903 में संभाला था। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से इन्होंने लेखकों की भाषा को संस्कारित व परिमार्जित किया, जिसका प्रभाव लेखकों पर पड़ा। 

    द्विवेदी युग के प्रमुख निबंधकार - महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, अध्यापक पूर्णसिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी गोविंद नारायण मिश्र, पद्मसिंह शर्मा, श्यामसुंदरदास, बाल मुकंद गुप्त आदि है। 

    3. शुक्ल युग

    हिन्दी निबन्ध के तृतीय चरण को शुक्ल युग की संज्ञा दी गई है। आचार्य शुक्ल के निबन्ध क्षेत्र में आने से निबन्धों को एक नया आयाम एवं नई दिशा प्राप्त हुई। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वच्छन्दतावाद की कल्पना-प्रवण भाषा को हिन्दी की परम्परा से असम्बद्ध मानते हुए लेखकों से आग्रह किया है कि अपने विचारों को हिन्दी की विशिष्ट प्रकृति की परिधि में ही अभिव्यक्त करें। 

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध में विचारों का गूढ़-गुम्फित विन्यास, पूर्वापर वाक्यों और अनुच्छेदों का जनक-जन्य सम्बन्ध, व्यंग्य-विनोद की अनुरंजकता, भावों का रसात्मक विनियोग, भाषा का विषयानुरूप प्रयोग प्राप्त होता है।

    शुक्ल युग के प्रमुख निबंधकार - डॉ॰ गुलाब राय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माखनलाल चतुर्वेदी, वियोगी हरि, राय कृष्णदास, वासुदेव शरण अग्रवाल, शांतिप्रिय द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, निराला आदि। 

    4. शुक्लोत्तर युग

    शुक्ल जी ने वैचारिक व मनोविकार सम्बन्धी निबन्ध को उत्कर्ष की चरम ऊँचाई पर पहुँचा दिया था। इस युग में निबन्ध अन्य दिशाओं की ओर भी अग्रसर रहा; जैसे-विचारात्मक निबन्ध, समीक्षात्मक निबन्ध, व्यक्तित्वव्यंजक निबन्ध आदि। 

    शुक्लोत्तर निबन्धकार - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. नगेन्द्र, रामधारी सिंह 'दिनकर', जैनेन्द्र, प्रभाकर माचवे, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' आदि उल्लेखनीय हैं।

    हिन्दी आलोचना

    19वीं सदी में खड़ी बोली हिंदी गद्य साहित्य के विकास के साथ-साथ ही आलोचना का उद्भव और विकास आरंभ हुआ। हिंदी आलोचना का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। हिंदी के मानक स्वरूप को निर्धारित करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी आलोचना के विकास को नयी दिशा और गति प्रदान की। 

    हिंदी आलोचना के प्रतिमान निर्धारण में रामचंद्र शुक्ल प्रस्थान बिंदु माने जाते हैं। वास्तव हिंदी आलोचना का सुसंगत विकास शुक्ल युग से ही माना जाता है। हिंदी आलोचना की यह विचार-प्रक्रिया नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नगेंद्र, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पांडे आदि के माध्यम से विकसित होते हुए समकालीन विमर्शों तक पहुँचती है।

    हिन्दी की अन्य गद्य विधाएँ: रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा साहित्य, आत्मकथा, जीवनी और रिपोर्ताज, डायरी।

    हिन्दी का प्रवासी साहित्य -  भारतीय मूल के विदेशों में रहने वालों लोगों के सृजनात्मक लेखन को प्रवासी साहित्य कहा जाता है और जिन्होंने 'हिन्दी' को केन्द्र में रखकर या माध्यम बनाकर हिन्दी में लिखा है, वे 'प्रवासी हिन्दी साहित्यकार हैं'।

    हिंदी साहित्‍य के प्रमुख इतिहास ग्रंथ एवं उनके ग्रंथकार

    ग्रंथकार ग्रंथ
    गार्सा-दा-तासी इस्त्वार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी (1839)
    शिवसिंह सेंगर शिवसिंह सरोज (1883)
    जॉर्ज ग्रियर्सन ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान (1888)
    मिश्रबन्धु मिश्रबन्धु विनोद (1913)
    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास (1929)
    डॉ. नगेन्द्र व डॉ. हरदयाल हिन्दी साहित्य का इतिहास
    आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952), हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940), हिन्दी साहित्य : उद्भव व विकास (1952)
    डॉ. गणपतिंचन्द्र गुप्त हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास (1965)
    सं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा हिन्दी साहित्य का इतिहास (1933)
    डॉ. भगीरथ मिश्र हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास (1902)
    डॉ. नगेन्द्र रीतिकाव्य की भूमिका (1949)
    विश्वनाथ प्रसाद मिश्र हिन्दी साहित्य का अतीत (1960)
    परशुराम चतुर्वेदी उत्तरी भारत की सन्त परम्परा (1951)/td>
    डॉ. मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी भाषा और साहित्य (1960 लगभग), राजस्थानी पिंगल साहित्य (1961 लगभग)
    डॉ. नलिन विलोचन शर्मा हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शन (1960)
    पं. महेशदत्त शुक्ल हिन्दी काव्य संग्रह (1873)
    पं. रामनरेश त्रिपाठी कविता कौमुदी (1928)
    बाबू श्यामसुन्दर दास हिन्दी भाषा एवं साहित्य (1930)
    सूर्यकान्त शास्त्री हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास (1930)
    आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिन्दी साहित्य का इतिहास
    मैनेजर पाण्डेय इतिहास एवं साहित्य दृष्टि (1981)
    डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास (1986)
    डॉ. टीकम सिंह तोमर हिन्दी वीर काव्य (1954)
    प्रभुदयाल मीतल चैतन्य सम्प्रदाय और उसका साहित्य (1968 लगभग)
    ब्रजरत्न दास खड़ी बोली हिन्दी साहित्य का इतिहास (1998)
    डॉ. श्रीकृष्ण लाल आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास (1900-1925)
    डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय आधुनिक हिन्दी साहित्य (1850-1900)
    मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी साहित्य की रूपरेखा (1939)
    डॉ. रामकुमार वर्मा हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938)
    डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास (1985)
    नागरी प्रचारिणी सभा हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास (1961)
    बच्चन सिंह हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास (1996)
    अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔष हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास (1931)


    Hindi Sahitya ka Itihas FAQ :-

    प्रश्‍न 01. हिंदी साहित्य को कितने काल में बांटा गया है?

    उत्‍तर - हिंदी साहित्‍य का काल विभाजन तथा नामकरण में सभी साहित्‍येतिहासकारों  द्वारा सर्वमान्‍य चार भागों में भाटा गया है-

    1. आदिकाल (1000 ई. से 1350 ई.)
    2. भक्तिकाल (1350 ई. से 1650 ई.)
    3. रीतिकाल (1650 ई. से 1850 ई.)
    4. आधुनिक काल (1850 ई. से अब तक)

    प्रश्‍न 02. गार्सा द तासी के इतिहास ग्रंथ का नाम क्या है?

    उत्‍तर -  हिंदी का सर्वप्रथम इतिहास ग्रंथ "इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानीगार्सा द तासी द्वारा ही लिखा गया है।

     

    प्रश्‍न 03. हिंदी साहित्य का आरंभ कब और कैसे हुआ?

    उत्‍तर -  हिंदी साहित्‍य का आरम्भ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे छोटे शासनकेन्द्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी। ऐसे में हिंदी साहित्‍य का विकास हुआ, तथा हिंदी का उद्भव शौरसेनीअर्धमागधी तथा मागधी अपभ्रंश से हुआ है।

    प्रश्‍न 04. आधुनिक हिन्‍दी साहित्य के इतिहास के जनक किसे माना गया है।

    उत्तर - भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक माना जाता है।