'नक्सलबाड़ी' कविता का सारांश
सन् 1966-67 में उत्तर प्रदेश, बिहार और आन्ध्र प्रदेश में नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रसार हुआ। इस आन्दोलन ने सभी की सोच में परिवर्तन कर दिया। धूमिल ने नक्सलबाड़ी आन्दोलन का पर्याप्त समर्थन किया। धूमिल के काव्य में तत्कालीन राजनीति के प्रति काफी असन्तोष देखने को मिलता है। उसी के फलस्वरूप उन्होंने अपनी कविताओं में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रति समर्थन मुखर किया। धूमिल नक्सलबाड़ी के पक्ष में लोगों को खड़ा करना चाहते हैं।
नक्सलबाड़ी कविता में धूमिल ने स्वातन्त्रयोत्तर भारत की उस निराशाजनक परिस्थिति का चित्रण किया है जिसने नक्सलपन्थी आन्दोलन को जन्म दिया।
'नक्सलबाड़ी' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
'सहमति'
नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो'
जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज नींद के पास है !
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
व्याख्या - कवि धूमिल नक्सलबाड़ी आन्दोलन के समर्थन में कहते हैं कि 'सहमति' शब्द समकालीन नहीं है। इसे हम बालिगों के बीच लागू मत करो। कहने का तात्पर्य यह है कि भूमि अधिग्रहण में व्यवस्था के प्रति हमारी बिलकुल भी सहमति नहीं है। कि भूख का इलाज नींद के पास है अर्थात् भूख से बचने के लिए तुम सो जाओ। कवि कहता है कि जंगल से जिरह करने के बाद उसके साथियों ने उसे समझाया कुछ लोग स्वार्थ के कारण 'शासन की ओर मिलकर जंगल में रहने वाली परन्तु वह व्यक्ति उनकी बातों से सहमत नहीं हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि भोली-भाली जनता को बहकाने लगे और' भूमि अधिग्रहण के लिए वहाँ के लोगों की सहमति लेने लगे, लेकिन वह उनकी बातों में नहीं आए, क्योंकि वह जानते थे मुख जमीन से उगने वाले अनाज से ही मिटती है, नींद से नहीं।
विशेष -
- अपना पक्ष रखने के लिए यहाँ कवि 'धूमिल' ने प्रतीकों का सहारा लिया है।
- लाक्षणिकता का प्रयोग।
और वह सड़क-
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिए आवाज दी थी
नहीं, अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गए हैं। लेखपाल की
भाषा के लम्बे सुनसान में
जहाँ पालो और बंजर का फर्क
मिट चुका है चन्द
खेत हथकड़ी पहने खड़े हैं।
व्याख्या - तत्कालीन राजनीति पर चोट करते हुए धूमिल कहते हैं कि जिस सड़क अर्थात् संसद ने भूमि अधिग्रहण न करने का समझौता किया था, वह स्वार्थ की बलिवेदी पर चढ़ चुका है। वे कहते हैं कि कल जिस संसद को तुमने अपनी आवाज़ दी थी अब वहाँ कोई नहीं है। सभी का स्वार्थसिद्ध हो चुका है। सभी स्वार्थी लोग व्यवस्था के पक्ष में चले गए हैं। लेखपाल की भाषा के सामने अब बंजर और उपजाऊ जमीन का फर्क मिट चुका है। अब सभी खेत सरकार के अधिग्रहण में जाने वाले हैं।
विशेष -
- जनसाधारण के प्रति धूमिल की संवेदना व्यक्त हुई।
- लाक्षणिकता का प्रयोग।
'नक्सलबाड़ी' (कविता) | धूमिल
‘सहमति…
नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिग़ों के बीच चालू मत करो’
—जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
विरोध के लिए सही शब्द टटोलते हुए
उसने पाया कि वह अपनी ज़ुबान
सहुवाइन की जाँघ पर भूल आया है;
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा—
‘मुझे अपनी कविताओं के लिए
दूसरे प्रजातन्त्र की तलाश है’,
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन—
पेट के इशारे पर
प्रजातन्त्र से बाहर आकर
वाजिब ग़ुस्से के साथ अपने चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे।
क्या मैंने ग़लत कहा? आख़िरकार
इस ख़ाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन-सी सुरक्षित
जगह है, जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाथ की
साज़िश के ख़िलाफ़ लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी—
दाएँ हाथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती हैं मगर गाँड
सिर्फ़ बायाँ हाथ धोता है।
और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तहार उतार लिए गए हैं
जिनमें कल आदमी—
अकाल था। वक़्त के
फालतू हिस्सों में
छोड़ी गयी पालतू कहानियाँ
देश-प्रेम के हिज्जे भूल चुकी हैं,
और वह सड़क—
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिए आवाज़ दी थी
नहीं, अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गए हैं। लेखपाल की
भाषा के लम्बे सुनसान में
जहाँ पालो और बंजर का फ़र्क़
मिट चुका है चन्द खेत
हथकड़ी पहने खड़े हैं।
और विपक्ष में—
सिर्फ़ कविता है।
सिर्फ़ हज्जाम की खुली हुई ‘किसमत’ में एक उस्तुरा—
चमक रहा है।
सिर्फ़ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक़ हलाल करती हुई
गन्दगी के ख़िलाफ़।
और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नींद से परेशान।
और एक जंगल है—
मतदान के बाद ख़ून में अन्धेरा
पछींटता हुआ।
(जंगल मुख़बिर है)
उसकी आँखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज़ तुम्हारे चेहरे की हरियाली को
बेमुरव्वत, चाट सकता है।
ख़बरदार!
उसने तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक,
अपनी स्लेट से काट सकता है।
क्या मैंने ग़लत कहा?
आख़िरकार… आख़िरकार…
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