'हरी घास पर क्षण-भर' कविता का सारांश
'हरी घास पर क्षण-भर' कविता अज्ञेय की नवीन चेतना का प्रतीक है। माली, चौकीदार सामाजिक बन्धनों के प्रतीक हैं। सहज प्रणय की स्थिति में आत्म-विस्मृति मुक्ति के बोध का प्रतीक है। वह नागरिक सभ्यता पर व्यंग्य इसलिए करते हैं कि इसमें साबुन की चिकनाहट है और करुणा एवं सहानुभूति का अभाव है।
अज्ञेय की दृष्टि में सहज प्रेम का विकास व्यक्ति स्वातन्त्र्य का प्रतीक है। इसलिए वह क्षण-भर के लिए अपने बन्धु के मुख तथा आँखों को निहारना और उसके आन्तरिक मन में झाँकना चाहते हैं। इस प्रकार इनका निहारना दमित वासना की विकृति का परिणाम नहीं है। इसलिए वह अपने बन्धु के साथ हरी घास पर बैठना नगरी की 'बुदकती-अकुलाहट' से पलायन नहीं मानते। इसके साथ वहाँ से चलने को तैयार हो जाते हैं। यथा
"चलो-उठें अबः
अब तक हम थे बन्धु
सैर को आए-
(देखे है क्या कभी घास पर लोट-पोट होते समभैये शोर मचाते?)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले से दुबके प्रेमी बैठे हैं।
वह हम हों भी, तो यह हरी घास ही जाने,
(जिस के खुले निमन्त्रण के बल जग ने उसे सदा सैंदा है और वह नहीं बोली)
'हरि घास पर क्षणु भर' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास
माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,
और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह
सदा बिछी है... हरी, न्योतती, कोई आकर रौंदे।
आओ बैठो तनिक और सटकर,
कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे,
बस नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।
व्याख्या - कवि कहता है कि आओ सभी साथ मिलकर इस ढाल पर उगी हुई मुलायम घास पर बैठें। इस समय कोई माली या चौकीदार भी नहीं है और घास आज के मानव-मन की भावना की तरह है, जो सदा बिछी रहती है, हरी रहती है और बैठने का निमन्त्रण देती है, चाहे उस पर कोई भी आकर बैठ जाए। कवि कहता है कि चलो आओ, जरा इसी हरी बिछी हुई घास पर हम सभी मिलकर बैठें। हमारे बीच केवल स्नेह और प्रेम तो उपस्थित हो, परन्तु सभ्यता या शिष्टता की 'दरार' पैदा करने वाला कोई अनुग्रह नहीं होना चाहिए।
कहने का तात्पर्य यही है कि कवि सामाजिक बन्धनों से दूर स्नेह से युक्त, स्वतन्त्र तथा खोखले आदर्शों से मुक्त ऐसे समाज की परिकल्पना कर रहा है, जो एक-साथ मिलकर आपसी सौहार्द्र से रहता हो।
विशेष -
- कवि खोखले आदशों और पुरानी परिपाटियों से त्रस्त जीवन से दूर स्वतन्त्र होकर जीना चाहता है।
- भाषा शुद्ध सरल खड़ी बोली।
(2)
याद कर सकें अनायास : और न मानें
हम अतीत के शरणाथीं हैं;
स्मरण हमारा जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनाए प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से।
आओ बैठो : क्षण-भरः
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर सेठों की फैयाजी से।
हमें मिला है अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।
आओ बैठो : क्षण-भर तुम्हें निहारूं।
अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूं
चेहरे की, आंखों की अंतर्मन की
और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों कीः
तुम्हें निहारूं,
झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!
व्याख्या - कवि कहता है कि आओ सभी मिलकर इस हरी घास पर बैठकर अतीत को याद करें, लेकिन ये न मानें कि आज हम जो भी अपने अतीत की वजह से हैं। यहाँ बैठकर हम किसी भी अपराध-बोध से मुक्त न हों। हमें ऐसा कोई स्मरण या जीवन का अनुभव एक दूसरे के सामने यहाँ बैठकर याद नहीं करना है जो हमें आमने-सामने बैठकर हीन बना दे और पाप का बोध कराए। कहने का तात्पर्य यही है, यहाँ हम बिलकुल निश्चिन्त होकर बैठेंगे। किसी पुरानी स्मृति के वशीभूत हमें अपने पुराने किए गए अपराधों को याद करके हीनभावना से युक्त नहीं होना है। कवि आगे कहते हैं कि जरा यहाँ थोड़ी देर के लिए बैठो। खुले मन से बैठो और मस्तिष्क से सभी चिन्ताओं को दूर करके बैठो। यह जो क्षण हमें इस हरी घास पर बैठने का मिला है, यह नगर सेठों की उदारता से नहीं मिला है, जो यहाँ बैठकर हम उनका गुणगान करते फिरें। यह हमारे जीवन के धन से ब्याज के रूप में मिला है, इसलिए हम इस पल को सब कुछ भूल कर जीना चाहते हैं।
कवि आगे कहते हैं कि आओ मेरे पास बैठो। तुम मुझे निहारो और मैं तुम्हें निहारता हूँ। आओ हम मिलकर अपनी यादों की उस जानी-पहचानी सुखद अनगिन साथ बिताई हुई स्मृतियों को निहारते हैं। हमें एक-दूसरे को निहारने में यह सोच-सोचकर झिझक नहीं होनी चाहिए कि अपने प्रिय को एकटक निहारना भी वासना का ही एक रूप होता है।
विशेष-
- स्वच्छन्तावादी प्रकृति का वर्णन किया गया है।
- कवि को अपनी प्रेयसी की आँखों में निहारने से कोई संकोच नहीं है। उनकी दृष्टि में सहज प्रेम का विकास व्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रतीक है।
हरी घास पर क्षणभर, कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
- हरी घास पर क्षण भर कविता इसी नाम से संग्रहित काव्य संग्रह से ली गयी है।
- इस कविता को अज्ञेय ने इलाहाबाद में 14 अक्टूबर 1949 ई. को रचा था।
- यह एक लंबी और प्रतीकात्मक कविता है।
- हरी घास सहजता और मुक्ति का प्रतीक माना गया है।
- हरी घास का दूसरा प्रतीक अधुनातन (आज के) मानव की दबी हुई भावना है
- कवि कविता में उस क्षण की बात करते हैं जिसमें मानव सामाजिक बंधनों, शहरी जीवन की यांत्रिकता और अपनी संस्कारगत वर्जनाओं को भूलकर उस क्षण को सहज और मुक्त रूप से 'हरी घास पर' अर्थात् प्रकृति के गोद में बिता सके।
- माली चौकीदारों का समय नहीं है' के माध्यम से कवि कहना चाहता है कि अब कोई बाहरी व्यवधान नहीं है, अर्थात् हमारी भावनाओं पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है।
- कवि व्यवधान में केवल स्नेह के व्यवधान को ही स्वीकारता है।
- मौन की भाषा से मन की भावनाओं को समझने का इस कविता में स्तुत्य प्रयास है।
- कवि कविता में शहरी जीवन से पलायने की बात नहीं कर क्षणभर सृष्टि की स्वाभाविक स्वरूप से रूबरू होने की बात करते हैं।
Hari ghas par kshan bhar Kavita MCQ
प्रश्न 01. 'हरी घास पर ण भर' किसकी कृति है?
- अज्ञेय
- केदार नाथ अवाल
- अशोक वाजपेयी
- रघुवीर सहाय
उत्तर - 1. अज्ञेय
प्रश्न 01. हरी घास पर क्षण भर' कविता का मूल प्रतिपाद्य है -
- नैसर्गिक सौंदर्य के प्रति आकर्षण ।
- कृत्रिमता को त्याग सहज जीवन जीने की लालसा ।
- आधुनिक नगरीय जीवन की विडम्बना।
- उपर्युक्त सभी।
उत्तर - 4. उपर्युक्त सभी
प्रश्न 01. अज्ञेय की रचना नहीं है –
- हरी घास पर क्षण भर
- दूध-बताशी
- सुनहले शैवाल
- आँगन के पार-द्वार
उत्तर - 2. दूध-बताशी
प्रश्न 01. किस कविता में शहरी जीवन पद्धति के दंभ पर कटाक्ष किया गया है?
- अंतःसलिला
- कलगी बाजरे की
- यह दीप अकेला
- हरी घास पर क्षणभर
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