'असाध्यवीणा' कविता का सारांश
वर्ष 1961 में अज्ञेय ने कविताओं का एक संकलन तैयार किया जिसे आँगन के पार कहा गया। आँगन के पार की एक कविता असाध्य वीणा है। असाध्य वीणा का अर्थ है ऐसी वीणा जो अब तक साधी न गई हो। वर्ष 1950-60 के दशक में अज्ञेय पश्चिमी यूरोप व पूर्वी एशियाई देश में भ्रमण करने के पश्चात् इस कविता संग्रह को लिखते हैं। इससे पहले 1959 में इन्होंने पूर्वी एशिया में चीन व जापान की कुछ कविताओं का अनुवाद किया जिसे 'अरी ओ करुणा प्रभामय' आँगन के पार द्वार की कविताओं को रहस्यवादी कविताओं का नाम दिया गया।
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने 'असाध्य वीणा' को जापानी लौकिक कथा पर आधारित माना। इस संग्रह की कविताओं को रहस्यवादी कहे जाने का आशय इन कविताओं में प्रयुक्त एक ऐसे दर्शन से है, जिसका सम्बन्ध ध्यान तथा साधना से था।
डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने अज्ञेय की कविता असाध्य वीणा के बारे में यह लिखा कि यह कविता मौन से स्वर की ओर तथा स्वर से महामौन की ओर मुखर है। इसमें व्यक्ति का समष्टि में विलय है तथा समष्टि का अलग-अलग व्यष्टि में अवतरण हुआ है।
असाध्य वीणा अनुभावन की कविता है अनुभावन अनुभूति व समर्पण के अद्वैत का नाम है। इस कविता में अनुभूति व अभिव्यक्ति के बीच का भेद पूरी तरह समाप्त किया गया। अज्ञेय का मानना था कि आत्मज्ञान व समर्पण से कोई सर्जना सम्भव है। कलाकार स्वयं को समर्पित करके ही कला को अभिव्यक्ति दे सकता है। अज्ञेय के शब्दों में किसी भी रचना को देखकर अपने को पाया जा सकता है। असाध्य वीणा राम की शक्ति पूजा, कुकुरमुत्ता तथा ब्रह्म राक्षस जैसी कविताओं की तरह एक लम्बी कविता है। इस कविता की कथात्मकता किवदन्तियों पर आधारित है। रचनाकार ने एक लघु कथा के माध्यम से अस्पर्शित परम्पराओं के साधन का प्रयास किया, परन्तु ऐसा नहीं है कि ये स्मृतियाँ आधुनिक अनुभूतियों का निषेध कर रही हैं।
19वीं शताब्दी में नवजागरण परक चेतना का विकास हुआ। यह चेतना परम्परा व आधुनिकता के समावेश से खड़ी हुई। नवजागरण के चिन्तकों ने लौकिकता एवं अलौकिकता, आध्यात्मिकता तथा आधुनिकता दोनों के भीतर समावेश किया।
अज्ञेय की यह कविता कुछ इसी प्रयास से जुड़ी दिखती है। इस कविता का नायक प्रियंवद अपनी साधना के द्वारा यह प्रमाणित करता है कि किस प्रकार भौतिक अनुभव आध्यात्म कला तथा रचना में रूपान्तरित होता है। कविता के केन्द्र में अनुभूति समर्पण व समर्पण की अभिव्यक्ति है। अज्ञेय जी ने माना कि कला तो एक ही होती है, परन्तु उस कला की कलात्मक अभिव्यक्ति अलग-अलग होती है। प्रियंवद की साधना से असाध्य वीणा के तार सहसा झनझनाते थे। उन तारों में तैरते संगीत का असर राजा-रानी तथा सभासदों पर अलग-अलग पड़ा।
असाध्यवीणा कविता की मूल संवेदना
- अहम् के विलय, पूर्ण समर्पण एवं सृष्टि के साथ अद्भुत तदात्म्य स्थापित होने पर ही अलौकिक एवं चमत्कारिक सृजन संभव किया गया है ।
- सृजन की साधना को पूर्ण समर्पण से, अहंकाररहित होकर तथा लक्ष्य के स्वरूप में लय होकर ही साधना संभव हुई है।
'असाध्य वीणा' के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
आ गए प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफागेह !
राजा ने आसन दिया। कहाः
"कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप !
भरोसा है अब मुझको
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!"
व्याख्या - वज्रकीर्ति द्वारा निर्मित 'असाध्य वीणा' को बजाने प्रियंवद नामक एक साधक आता है। राजा प्रियंवद को देखकर अत्यन्त हर्षित होता है और उसे विश्वास है कि एक दिन यह वीणा अवश्य ही मुखरित एवं झंकृत होगी।
राजा प्रियंवद को यथोचित आसन देकर उनका अभिनन्दन करते हुए कहता है-है तात् आप भले पधारे अर्थात् आपके पधारने से मैं धन्य हो गया। आपका यहाँ आना मेरे लिए शुभ है और अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे जीवन की इच्छा आज पूरी हो जाएगी, यह असाध्य वीणा निश्चित ही मुखरित एवं झंकृत होगी।
विशेष -
- यहाँ कथा का प्रारम्भ नाटकीय शैली में हुआ है। अचानक प्रियंवद के आगमन पर राजा प्रसन्न हो उसका यथोचित स्वागत करता है।
- साधक के लिए दिए गए तीन नाम प्रियंवद, केशकम्बली और गुफागेह उसकी चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करने में समर्थ है।
- यहाँ राजा की आस्था एवं विश्वास का चित्रण हुआ है।
- तत्सम शब्दावली एवं बोलचाल की भाषा प्रयुक्त है।
- अलंकार छेकानुप्रास।
(2)
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ाः
हठ-साधना यही थी उस साधक की
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन लीला।"
राजा रुके
साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गए सब जाने-माने कलावन्त,
सब की विद्या हो गई अकारथ, दर्प, चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप व्रजकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
तात ! प्रियंवद !
लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यहः
सब उदग्र पर्युत्सुक,
जान-मात्र प्रतीक्षमाण।"
केशकम्बली गुफागेह ने खोला कम्बल
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच,
कर के प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोलाः "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य साधक हूँ
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी
व्याख्या - असाध्यवीणा जिस वृक्ष की लकड़ी से निर्मित हुई उस वृक्ष का वर्णन करते हुए राजा आगे कहता है, "ऐसे किरीट वृक्ष की लकड़ी निकालकर वज्रकीर्ति नामक साधक ने इस वीणा को अपना सम्पूर्ण जीवन लगाकर गढ़ा था। इस वीणा की पूर्णता के साथ ही वज्रकीर्ति का जीवन भी पूर्ण हो गया। मानो यह वीणा ही उसके जीवन का एकमात्र साध्य थी। यह साधना पूर्ण होते ही उसके जीवन की साध भी पूरी हो गई और वह दिवंगत हो गया। यहाँ भी केवल यह वीणा रह गई। उसके नाम की अक्षय निधि के रूप में। राजा कुछ देर को रुके और फिर साँस लेकर बोले, "उस महान् वृक्ष से वज्रकीर्ति द्वारा निर्मित इस वीणा को मुखरित-झंकृत करने के लिए दूर-दूर से कलाकार आए, परन्तु कोई भी इस वीणा के तारों को साधने में सफल न हो सका। उनकी विद्या निष्फल हुई, अभिमान खण्ड-खण्ड हो गया। इसी कारण यह वीणा 'असाध्य वीणा' के नाम से विख्यात हो गई, किन्तु मेरा दृढ़ विश्वास है कि साधक वज्रकीर्ति का कठोर तप व्यर्थ नहीं जाएगा, उसकी साधना उचित और सही थी, किन्तु इतना सही है कि यह वीणा उस दिन मुखरित और झंकृत होगी, जब कोई सच्चा स्वर-सिद्ध साधक इसे गोद में रख लेगा।
इसके पश्चात् राजा प्रियंवद को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, प्रियंवदे, यह वज्रकीर्ति द्वारा निर्मित वीणा तुम्हारे सम्मुख है, इसे उठा लो और साधने का प्रयास करो। मैं, रानी तथा सारी सभा प्रतीक्षा में है कि कब यह वीणा मुखरित और झंकृत होगी। राजा के वचन सुनकर प्रियंवद ने अपना कम्बल खोलकर धरती पर चुपचाप बिछाया और उस पर वीणा को रख दिया। फिर स्वयं पलक बन्द कर, प्राणवायु को खींचकर वीणा को प्रणाम किया।
तदनन्तर वीणा के उन अस्पर्शित तारों को स्पर्श कर वह राजा से बोला कि वह कलाकार नहीं है। कलाकार तो महान् होते हैं, वह तो मात्र शिष्य है, कला का पुजारी है और साधक है, जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी है।
विशेष -
- यहाँ पर राजा को वीणा के बजने का दृढ़ विश्वास है।
- संवाद के मध्य में रुककर लम्बी साँस लेकर पुनः बोलना औपन्यासिकता का लक्षण है। इससे रोचकता में वृद्धि हुई है।
- 'प्रणाम' करने से प्रियंवद का वीणा के प्रति आदर-भाव व्यक्त हुआ है।
- यहाँ कवि साधक प्रियंवद की विनम्रता और पूर्वजों के प्रति व्यक्त श्रद्धा की भावना का वर्णन करता है।
- विरोधाभास अलंकार।
(3)
"हाँ मुझे स्मरण है:
बदली-कौंध पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पटपट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
चौकें खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरे में छनकर आती
पर्वती गाँव के उत्सव ढोलक की थाप।
गडरिये की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुल सुँघनी की आतुर फुरकनः
ओस-बूंद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल,
कि झरते-झरते मानो
हरसिंगार का फूल बन गई।
भरे शरद् के ताल, लहरियों की सरसर ध्वनि।
व्याख्या - प्रियंवद अपने कथन को आगे बढ़ाते हुए कहता है, कि मुझे याद है, जब आकाश में बादलों के मध्य बिजली कौंधती थी और झर-झर करके वर्षा होने पर किरीट वृक्ष के पत्तों पर जल की बूँदें गिरकर पट-पट की ध्वनि उत्पन्न करती थीं। घनी रात में वर्षा की फुहार महुए के वृक्षों पर पड़ती थी और वह चुपचाप टपकता रहता था, जिससे उसके नीचे बसेरा लेने वाले पक्षी चिहुँक जाते थे। वन में प्रवाहित निर्झर शिलाओं को दुलारता जल कल-कल ध्वनि के साथ तीव्रता के साथ प्रवाहित होता था। गाँवों में मंगलगान गाए जाते थे, जो कुहरे की दीवार को भेदकर जंगल तक सुन पड़ते थे। ढोलक पर पड़ने वाली थाप भी स्पष्ट सुनाई देती थी।
इधर जंगल के बीच गड़रिया अनमनी बाँसुरी बजाकर वातावरण को संगीतमय कर देता था और कठफोड़वा लकड़ी में घुसकर ठक-ठक की ध्वनि के बहाने ताल देता था। फुलसुंघनी इधर-उधर उड़ती फिरती थी, मानो उसकी यह आतुरता संगीत की लय पर होने वाला, मस्त कर देने वाला नृत्य हो।
पत्तों पर प्रातः की ओस लुढक जाती थी, जो बहुत कोमल और तरल होती थी, जिसके झरते-झरते ऐसा प्रतीत होता था मानो वो हरसिंगार का फूल है। हरसिंगार के फूलों का झरना भी मन को मुग्ध कर देता था। शरद ऋतु के आगमन पर जंगल के सब सरोवर जलयुक्त हो जाते थे। सभी लहरों-तरंगों से सर-सर की ध्वनि उत्पन्न होती थी।
विशेष -
- कवि ने स्मृति संचारी भाव के माध्यम से प्रकृति का मोहक चित्रण किया है।
- देशज शब्दों के प्रयोग से प्रकृति का सौन्दर्य वर्णित है।
- पर्वतीय गाँव में उत्सुक ढोलक की थाप प्रयोग अत्यन्त सुन्दर है।
- अलंकार-उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, अनुप्रास।
- नाद सौन्दर्य दृष्टव्य है।
असाध्य वीणा कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
- 1957-58 में जापान-प्रवास के बाद 1961 में रचित 321 पंक्तियों की एक लंबी कविता।
- अज्ञेय के कविता-संग्रह 'आँगन के पार द्वार' में संकलित है।
- वर्णनात्मक एवं प्रतीकात्मक लंबी कविता है।
- चीनी-जापानी लोककथा पर आधारित है तथा मूल कथा ओकाकुरा की पुस्तक 'द बुक ऑफ टी' में 'टेमिंग ऑफ द हार्प' शीर्षक से संकलित है।
- इस कविता में विद्वानों ने बौद्ध दर्शन के तथतावाद का प्रभाव माना है। ।
- 'आँगन के पार द्वार' कविता संग्रह तीन खण्डों में विभक्त - अंतः सलिला, चक्रांत शिला, आसाध्य वीणा।
- किरीटी तरु परम सत्य का तथा वीणा से निकला संगीत सत्य की सशक्त अभिव्यक्ति का प्रतीक।
Asadhyaveena Kavita MCQ
- बावरा अहेरी
- इन्द्रधनु रौंदे हुए
- अरी ओ करुणा प्रभामय
- आँगन के पार द्वार
- राजा ने उसे असाध्य वीणा कहा था।
- वीणा को रोजाना साधा नहीं जा सकता था।
- वीणा को कोई हिला नहीं सकता था।
- वीणा को अब तक कोई बजा नहीं पाया था।
- दक्षिण भारत के जंगलों से
- उत्तराखण्ड के गिरि प्रान्त से
- हिमालय के वनों से
- चीन से
- तथता सिद्धांत
- अष्टांगिक मार्ग
- अनीश्वरवाद
- अनात्मवाद
- बौद्धिकता के आग्रह की प्रबलता
- अहं का विलयन
- सृजन प्रक्रिया के रहस्य की अभिव्यक्ति
- नाटकीयता
- खण्डकाव्य
- प्रबंधकाव्य
- महाकाव्य
- प्रलम्ब काव्य या लंबी कविता
- प्रलय की छाया
- असाध्य वीणा
- ब्रह्म राक्षस
- कामायनी
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