कितनी नावों में कितनी बार (कविता) | सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'

'कितनी नावों में कितनी बार' कविता का सारांश

'कितनी नावों में कितनी बार' कविता में अज्ञेय अपनी मानवीय संवेदनाओं को परिष्कृत कर रहे हैं। उन्होंने सत्य की खोज में आने वाली विभिन्न बाधाओं का प्रस्तुत कविता के माध्यम से वर्णन किया है। कवि ने सत्य तक पहुँचने के लिए अगणित बाधाओं को पार किया है, हालाँकि कवि के सामने संसार की कुहासे रूपी अनेक बाधाएँ, धुँधलके आए लेकिन उसने सत्य की छोटी-से-छोटी ज्योति का सहारा लेकर उस तक पहुँचने का प्रयास किया। कवि को संसार के बहुत से अनर्गल विचार, बन्धन आदि के जहाज उस सत्य से बहुत दूर खींचकर ले गए, लेकिन कवि ने हार नहीं मानी। वह सत्य का ही पथ-प्रदर्शक रहा। बहुत-सी अन्तहीन सच्चाइयों ने उसे दुःखी व त्रस्त भी किया, लेकिन वह इन सबसे घबराया नहीं। कहने का तात्पर्य यही है कि कवि ने मार्ग से भटककर असत्य का अनुकरण नहीं किया। वह सतत होकर सत्य की खोज में ही लगा रहा। यहाँ प्रयोगधर्मी अज्ञेय ने बिलकुल नए आयामों के बिम्ब और प्रतीक गढ़े हैं।

कितनी नावों में कितनी बार कविता की व्याख्या


कितनी नावों में कितनी बार' कविता के कुछ पदों की व्याख्या

कितनी दूरियों से कितनी बार 

कितनी डगमग नावों में बैठकर 

मैं तुम्हारी ओर आया हूँ 

ओर मेरी छोटी-सी ज्योति !

कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी

पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में 

पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मण्डल 

कितनी बार मैं, 

धीर, आश्वस्त, अक्लान्त 

ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार... 

और कितनी बार कितने जगमग जहाज 

मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर 

किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में 

जहाँ नंगे अँधेरों को 

और भी उघाड़ता रहता है 

एक नंगा, तीखा निर्मम प्रकाश 

जिसमें कोई प्रभा-मण्डल नहीं बनते 

केवल चौंधियाते हैं तथ्य-तथ्य 

सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयाँ 

कितनी बार मुझे

खिन्न विकल, सन्त्रस्त-कितनी बार।

व्याख्या - प्रस्तुत कविता में अज्ञेय ने मनुष्य के प्रति अपनी गहरी संवेदना को एक नया संस्कार दिया है। प्रस्तुत कविता में कवि ने सत्य की खोज में आने वाली पथ की बाधाओं का वर्णन किया है। कवि कहता है कि हे मेरे सत्य, तुम तक पहुँचने में मैंने अनगिनत बाधाओं को पार किया है। तुम्हारी छोटी-सी ज्योति की ओर देखते हुए संसार की कुहासे रूपी धुंध में मैंने तुम्हारे प्रभा मण्डल को पहचाना और धैर्य को धारण करते हुए आश्वस्त होकर, न थकते हुए मैं न जाने कितनी बार तुम्हें तलाशता हुआ तुम्हारी ओर आया हूँ।

कवि का तात्पर्य है कि मैंने तुम्हें पाने के लिए न जाने कितनी बाधाओं को पार किया। संसार के धुँधलकों में हालाँकि तुम्हारी रोशनी मुझसे दूर होती चली गई, लेकिन मैंने दूर से ही तुम्हारी स्थिति को पहचाना और जग के तथ्यों में न उलझकर मैं बिना थके, धैर्यपूर्वक तुम्हारी ओर आया हूँ।

कवि कहता है कि न जाने कितनी ही बार संसार के चकाचौंध करते तथ्यों ने मुझे मार्ग से भटकाने का प्रयास किया। ऐसी अन्तहीन सच्चाइयों ने मुझे न जाने कितनी बार दुखी, व्याकुल और पीड़ित किया, परन्तु मैं फिर भी इन चकाचौंध वाले तथ्यों को 'सत्य' समझकर विचलित नहीं हुआ। भटका अवश्य, परन्तु फिर सँभलता हुआ अन्ततः तुम्हारी खोज में चला ही आया।

विशेष - 

  • यहाँ कवि के दार्शनिक भाव का परिचय मिलता है।
  • छन्द मुक्त, अतुकान्त, प्रयोगधर्मी कविता।

कितनी नावों में कितनी बार कविता के महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

  1. इस कविता को अज्ञेय ने ल्यूब्लयाना (यूगोस्लाविया) 30 मई, 1966 में लिखा था।
  2. 'कितनी नावों में कितनी बार' अज्ञेय जी की 1962 से 1966 के बीच की रचित कविताओं का संग्रह है।
  3. इस कविता संग्रह में कुल 44 कविताऍं है। 
  4. 'कितनी नावों में कितनी बार' कविता एक छोटी कविता है।
  5. इस कविता के लिए अज्ञेय जी को 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
  6. इस कविता में अज्ञेय ने यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति कई बार सत्य की खोज में भटक जाता है। वह सत्य को अपने पास खोजने की अपेक्षा अधिक दूर-दूर स्थानों पर ढूंढने चला जाता है।
  7. अज्ञेय लिखते हैं कि मानव कई बार इसी उद्देश्य से विदेशों में गया किंतु वहां विदेशी चकाचौंध में खो गया। उस निर्मम प्रकाश ने उसके अंधकार को और बढ़ा दिया। अर्थात उन चौंधियाते प्रकाश ने उसे सत्य से और अधिक दूर कर दिया।
  8. घुम्मकड़ी एक प्रवृत्ति ही नहीं, एक कला भी है। देशाटन करते हुए नये देशों में क्या देखा, क्या पाया, यह जितना देश पर निर्भर करता है उतना ही देखने वाले पर भी। एक नजर होती है जिसके सामने देश भूगोल की किताब के नक्शे जैसे या रेल-जहाज के टाइम टेबल जैसे बिछे रहते है; एक दूसरी होती है जिसके स्पर्श से देश एक प्राणवान प्रतिमा-सा आपके सामने आ खड़ा होता है- आप उसकी बोली ही नहीं, हृदय की धड़कन तक सुन सकते हैं। -एक बूंद सहसा उछली (यात्रावृत्त) से। 

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