हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद की शुरुआत 1936 से 1943 के बीच मानी जाती है। 1936 में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी। इस आंदोलन के प्रभाव से साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रेरित रचनाएँ सामने आईं। प्रगतिवादी काव्यधारा से जुड़े प्रमुख साहित्यकारों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, त्रिलोचन और रांगेय राघव विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रगतिवाद को विस्तार से जानने के लिए इस पोस्ट को अंत तक आवश्यक पढ़े।
विभिन्नवाद और नई कविता
छायावाद के पश्चात् हिन्दी साहित्य में नई विधाएँ देखने को मिलीं हैं, जिनमें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता सम्मिलित हैं। इन काव्यान्दोलनों ने अपने पूर्ववर्ती काव्य संस्कारों से संघर्ष करते हुए जन्म लिया है। इन तीनों ही विधाओं में मानव व समाज की वर्तमान स्थिति को दर्शाया गया है। इस पोस्ट में हम प्रगतिवाद की विस्तार से चर्चा करेंगे।
प्रगतिवाद की अवधारणा
प्रगति का अर्थ है-'आगे बढ़ना' या 'उन्नति'। प्रगतिवाद उन विचारधाराओं एवं आन्दोलनों के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है, जो आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों में परिवर्तन या सुधार के पक्षधर हैं। प्रगतिवाद का सम्बन्ध मार्क्सवादी आन्दोलन से है। इस आन्दोलन का प्रवर्तन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाश्चात्य देशों में हुआ। 1935 ई. में पेरिस में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई, जिसने साहित्य के माध्यम से समाजवादी विचारों के प्रचार को साहित्यकार का लक्ष्य घोषित किया। इसकी एक शाखा भारतवर्ष में स्थापित हुई।
1936 ई. में लखनऊ में 'भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' का पहला अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचन्द ने की। मुंशी प्रेमचन्द ने भाषण में घोषित किया कि "साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं है, उसका लक्ष्य समाज का हित होना चाहिए।"
द्वितीय अधिवेशन (1938) की अध्यक्षता डॉ. रबीन्द्रनाथ टैगोर ने की। वस्तुतः मुंशी प्रेमचन्द व टैगोर दोनों ने ही प्रगतिशील को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही ग्रहण किया, जबकि परिवर्तित साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे प्रगतिशीलता से प्रगतिवाद का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता, जहाँ किसी वाद विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, प्रगतिशील कहा जा सकता है, जबकि प्रगतिवाद का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसलिए प्रगतिवाद की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि
"राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।"
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मार्क्सवादी विचारधारा के अनुरूप लिखी गई कविता प्रगतिवादी कविता है। मार्क्स दुनिया के सब मनुष्यों को चाहे वे किसी भी देश व जाति के हों दो जातियाँ या वर्ग मानते हैं
1. शोषक वर्ग
2. शोषित वर्ग।
शोषक वर्ग में पूँजीपति, मिल मालिक, जमींदार आते हैं, जबकि शोषित वर्ग के अन्तर्गत निर्धन, मज़दूर, श्रमिक वर्ग आते हैं।
मार्क्सवादी विचारक समाज में साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। मार्क्सवादी या प्रगतिवादी साहित्य का लक्ष्य भी साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करना तथा शोषित वर्ग को क्रान्ति के लिए शोषक वर्ग के विरुद्ध उकसाना है। इसलिए प्रगतिवादी कविता भी शोषण का विरोध करती है।
प्रगतिवाद का प्रारम्भ 1936 ई. में हुआ। 1936 से 1943 ई. के बीच के काल की कविता "प्रगतिवादी" कविता है। साम्यवादी (मार्क्सवादी) विचारधारा से प्रभावित कवि प्रगतिवादी कवि कहलाए। कुछ प्रमुख प्रगतिवादी कवि निम्नलिखित हैं- रामेश्वर करुण, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह 'सुमन', डॉ. रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री, मन्नूलाल शर्मा, डॉ. महेन्द्र भटनागर, सुदर्शन चक्र। प्रगतिवाद के अन्य कवियों में मलखान सिंह, चन्द्रदेव शर्मा, गणपति चन्द्र भण्डारी, विजय चन्द्र मेघराज, मान सिंह, मनुज देपावत, हरिनारायण विद्रोही आदि।
प्रगतिवादी काव्य की प्रवृत्तियाँ
प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं।
शोषण का विरोध
प्रगतिवादी काव्य में पूँजीवादी वर्ग के प्रति घृणा का भाव व्यक्त किया गया है। इन कवियों का मानना है कि पूँजीपति वर्ग निर्धनों का रक्त चूसकर खुद सुख की नींद सोते हैं। प्रगतिवादी कवि यह नहीं चाहते कि एक व्यक्ति सुखपूर्ण जीवन बिताए और दूसरा व्यक्ति जीवन की जरूरी आवश्यकताओं के लिए तरसता रहे, इसलिए प्रगतिवादी कवि शोषित वर्ग को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करना चाहते हैं। वह शोषितों का शोषकों के विरुद्ध क्रान्ति के लिए आह्वान करते हैं। प्रगतिवादी कवियों ने शोषित और शोषक का तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करके सामाजिक विषमता का उद्घाटन किया है।
समतामूलक समाज का निर्माण
प्रगतिवादी कवि एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, जहाँ सभी को एक समान माना जाता हो, उनके अधिकार और कर्त्तव्य एक समान हों, लोगों से किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाता हो और यह तभी सम्भव है, जब लोग धर्म, जाति, वर्ग, भाषा इत्यादि से ऊपर उठकर मनुष्य को मनुष्य समझें, उसे किसी वर्ग विशेष से जोड़कर न देखें। इसी सामाजिक समानता की वकालत प्रगतिवादी साहित्य करता है।
शोषित वर्ग की दयनीय स्थिति का वर्णन
प्रगतिवादी विचारकों का मत है कि शोषक वर्ग निरन्तर किसान, मजदूर व गरीबों का शोषण करके अपने लिए ऐश्वर्यपूर्ण संसाधनों को एकत्रित करता है, किन्तु निम्न वर्ग अत्यधिक श्रम करने के उपरान्त भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता और सदैव अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर रहता है।
नारी विषयक दृष्टिकोण
प्रगतिवादी कवियों ने नारी के सन्दर्भ में नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। प्रगतिवादी साहित्यकार ने नारी को पुरुष के समकक्ष माना है, उन्होंने नारी को उतने ही अधिकार देने की बात कही है, जितने कि पुरुषों को दिए गए हैं।
प्रगतिवादी साहित्य महलों में रहने वाली राजकुमारियों की बात नहीं करता। यह तो स्वस्थ कृषक बालिकाओं और मजदूरनियों का चित्रण करता है। यह साहित्य नारियों को मुक्त करने की बात भी कहता है
"मुक्त करो नारी को मानव चिर बंदिनी नारी को।"
यथार्थवादी दृष्टिकोण
प्रगतिवादी साहित्य में यथार्थ को प्रकट किया गया है। प्रगतिवादी लेखक सुन्दर, भव्य एवं औदात्त (महानता) का चित्रण करना उतना आवश्यक नहीं मानता, जितना जीवन के यथार्थ रूप का चित्रण करना।
वर्तमान जीवन में जितने दुःख, परेशानियाँ एवं कुरूपता विद्यमान हैं। प्रगतिवादी साहित्य उनकी यथार्थ अभिव्यक्ति करता है। यथार्थवादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए कवि मानव तथा प्रकृति को समकक्ष देखता है। प्रगतिवादी कवियों ने ग्रामीणों के प्रति सहानुभूति प्रकट की है। पन्त ने ग्राम्या में लिखा है
"देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से सोच रहा हूँ जटिल जगत पर जीवन पर जन-मन से।"
उपयोगितावाद
प्रगतिवादी आलोचक उसी कृति को साहित्य रचना मानते हैं, जिसका मानव जीवन में अधिक-से-अधिक महत्त्व हो। उनके अनुसार सच्चा साहित्य वह है, जो जन-जीवन को प्रगति के पथ पर अग्रसर करे।
प्रतीक योजना
नवीन दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के लिए प्रगतिवादी कवियों ने नवीन प्रतीकों को अपनाया है। इन कवियों के काव्य में प्रलय, ताण्डव, मशाल आदि प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं पर इन कवियों ने प्राचीन प्रतीकों को लिया है, तो कहीं पर नवीन प्रतीकों को ग्रहण किया है। निराला के काव्य 'कुकुरमुत्ता' में गुलाब के पुष्प को पूँजीपति वर्ग का प्रतीक माना गया है।
भाषा-शैली
प्रगतिवादी साहित्य का सम्बन्ध जन-जीवन से होने के कारण इस धारा का साहित्यकार सरल एवं स्वाभाविक भाषा-शैली को अपनाने का पक्षपाती है। स्पष्ट, यथार्थ तथा वास्तविक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वह सरल, सुबोध एवं व्यावहारिक भाषा का प्रयोग करता है।
वह परम्परागत उपमानों एवं प्रतीकों को त्यागकर नवीन विचारधाराओं को व्यक्त करने के लिए नूतन उपमानों तथा प्रतीकों की योजना करता है, जब उसे शक्ति की तुलना करनी पड़ती है, तो वह भीम, हनुमान आदि को न अपनाकर टैंक और बुलडोजर की ओर आकर्षित होता है।
प्रगतिवादी कवि परम्परागत और प्राचीन छन्दों का बहिष्कार करके नवीन मुक्तक छन्दों की ओर बढ़ता है। इस प्रकार प्रगतिवादी साहित्य वैयक्तिकता की नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की बात करता है। यह छायावादी कल्पना से बाहर आकर जन-जीवन को स्पष्ट करने वाला साहित्य है।
प्रगतिवादी काव्य और उसके प्रमुख कवि
प्रगतिवाद काव्य के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं
रांगेय राघव (1923-1962 ई.)
रांगेय राघव का जन्म 1923 ई. में हुआ, उन्होंने अल्पायु में लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया था। 1942 ई. में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद एक रिपोर्ताज 'तूफानों के बीच' लिखा, जो हिन्दी में चर्चा का विषय बना। रांगेय राघव बहुमुखी प्रतिभा के प्रगतिवादी कवि थे। इन्होंने कविता के साथ-साथ कहानियाँ, उपन्यास और आलोचनाएँ लिखीं, कविता के क्षेत्र में ये प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही क्षेत्रों में सक्रिय रहे। 'अजेय खण्डहर', 'मेधावी', और 'पांचाली' उनकी प्रबन्धात्मक कृतियाँ हैं, जिसमें नवीन विषय-योजना के साथ-साथ नूतन प्रबन्ध-विन्यास भी लक्षित होता है।
रांगेय राघव वर्ष 1947 में हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, वर्ष 1954 में डालमिया पुरस्कार, वर्ष 1957 और 1959 में उत्तर प्रदेश सरकार का पुरस्कार, 1961 ई. में राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए। 1966 ई. में मरणोपरान्त उन्हें महात्मा गांधी पुरस्कार दिया गया। रांगेय राघव की कविताओं में समाजवादी चिन्तन और उससे अनुप्राणित सामाजिक संवेदना की शक्ति है। 'राह के दीपक' कविता संग्रह को प्रगतिशील धारा में रखा जाता है, जिसमें युगीन यथार्थ के सन्दर्भ में प्रकृति-छवि का भी अंकन किया गया है। रांगेय राघव का काव्य-संग्रह है-पिघलते पत्थर, श्यामला, अजेय, खण्डहर, मेधावी, राह के दीपक, पांचाली, रूपछाया।
रामविलास शर्मा (1912-2000 ई.)
रामविलास शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में 1912 ई. में हुआ था। वे हिन्दी साहित्य में एक आलोचक, भाषा-विज्ञानी, तथा चिन्तक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक कवि तथा आलोचक के रूप में हिन्दी साहित्य के विकास में रामविलास शर्मा का योगदान महत्त्वपूर्ण है। इन्हें हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना को व्यवस्थित करने तथा यथार्थ दृष्टि प्रदान करने का श्रेय भी दिया जाता है। अज्ञेय द्वारा सम्पादित 'तार सप्तक' के एक कवि के रूप में इनकी काव्य रचनाएँ अत्यधिक प्रसिद्ध हुईं।
ये प्रगतिशील लेखक संघ के मन्त्री तथा 'हंस' के सम्पादक भी रहे। इनकी कविताओं का सौन्दर्य सादगी, वेग और सहजता है। 'रूप तरंग', 'सदियों से सोए जाग उठे', 'प्रतिनिधि कविताएँ', 'चाँदनी', 'परिणति', 'सिलहार', 'शारदीया', 'नीलाभ झील पर', 'दिवा स्वप्न' इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। रामविलास शर्मा जी वर्ष 1986-87 में हिन्दी अकादमी के प्रथम सर्वोच्च सम्मान 'शलाका सम्मान' से सम्मानित साहित्यकार हैं। इसके अतिरिक्त 1991 ई. में इन्हें प्रथम 'व्यास सम्मान' से भी सम्मानित किया गया था।
नागार्जुन (1911-98 ई.)
नागार्जुन का जन्म 1911 ई. में अपने ननिहाल सतलखा गाँव, जिला मधुबनी बिहार में हुआ था। इनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। मैथिली में ये 'यात्री' नाम से काव्य लिखते थे। ये 'दीपक' पत्रिका के सम्पादक भी रहे हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने के बाद इन्होंने नागार्जुन नाम ग्रहण किया। ये प्रगतिवादी काव्य के सशक्त हस्ताक्षर कहलाते हैं।
राजनीतिक रूप से ये साम्यवादी विचारधारा के कवि थे। यही कारण है कि इनकी कविताओं में सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। इन्होंने
जीवन के संघर्ष कष्ट आदि की अनुभूतियों को लेकर आक्रोश, भ्रष्टाचार, अखण्डता, मज़दूर, किसानों की लाचारी पर खूब लिखा है। इनकी कविताओं में मानवीय पीड़ा का स्वर स्पष्ट दिखाई देता है। आधुनिक हिन्दी के कबीर कहे जाने वाले नागार्जुन ने प्रचण्ड आत्मविश्वास के साथ समाज में उभरने वाली विसंगतियों पर चोट की है। उन्होंने हमेशा जनता का पक्ष लिया।
नागार्जन की मूल चेतना सामाजिक अन्याय के प्रतिकार में व्यक्त होती है। आजादी से पहले और आजादी के बाद के भारत में औपचारिक अन्तरों को छोडकर कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ, न ही भूख कम हई, न ही अशिक्षा, न ही वंचित वर्गों के साथ होने वाला अन्याय। नागार्जन ने इन सभी पक्षों को अपनी कविता में खुलकर व्यक्त किया है। उनकी मूल संवेदना मार्क्सवादी है, किन्तु इन पक्षों की अभिव्यक्ति के दौरान जहाँ मार्क्सवाद की यान्त्रिकता भी उनके आड़े आई, उन्होंने उसको भी फटकार दिया। नागार्जुन ने भूख के प्रभाव और भोजन की प्राप्ति के असीम सुख का प्रस्तुतीकरण किया है। भूख सिर्फ़ मनुष्य की नहीं, बल्कि हर मूल प्राणी की है। नागार्जुन अपनी कविता 'प्रेत का बयान' में भुखमरी के शिकार मृत्यु को प्राप्त एक अध्यापक की दशा का यथार्थ चित्रण करते हैं। 'अकाल और उसके बाद' कविता में भी उन्होंने 'भूख' की भयावह स्थिति का वर्णन करते हैं। नागार्जुन अपनी व्यंग्य कथा रचना 'चना जोर गरम' में भ्रष्टाचारी एवं स्वार्थपरक अवसरवादी लोगो की पोलें खोलते हैं।
नागार्जुन की भस्मांकुर कृति में बरवै छन्द का प्रयोग हुआ है।
नागार्जुन जन-जन के कवि हैं, वंचित वर्गों के कवि हैं। वे स्वयं की वेदना तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने दलित समस्या पर चिन्तन और लेखन भी किया हैं। उनकी कविता 'हरिजन गाथा' सिद्ध करती है कि व्यक्ति की संवेदना सिर्फ़ जन्म के संयोग से निर्धारित नहीं होती। वे इस कविता में दलितों की मुक्ति के लिए सशक्त क्रान्ति का आह्वान करते नज़र आते हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं- युगधारा (1956 ई.), सतरंगे पंखों वाली (1959 ई.), प्यासी पथराई आँखें (1962 ई.), तुमने कहा था (1980 ई.)।
प्रगतिवादी रचनाकार एवं उनकी प्रमुख रचनाएँ
प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाऍं
1. केदारनाथ अग्रवाल (1911–2000)
- युग की गंगा
- ने कहा था मैंने
- आग का आईना
- गंगा मेरे भीतर बहती है
2. नागार्जुन (1911–1998)
- पत्थर की बैंच
- युगधारा
- अन्नपूर्णा
- सतरंगे पंखों वाली
3. त्रिलोचन (1917–2007)
- धरती, गुलाब और चाँद
- ताप के ताए हुए दिन
- अरधान
- उस जनपद का कवि हूँ
4. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (1915–2002)
- हिल्लोल
- युग का मोल
- नवगाथा
- मिट्टी की बारात
5. केदारनाथ सिंह (1934–2014) (नई कविता/उत्तर प्रगतिवाद)
- अब तक
- जमीन पक रही है
- यहाँ से देखो
- उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
6. धूमिल (1936–1975)
- संसद से सड़क तक
- कल सुनना मुझे
- सुदामा पांडे का प्रजातंत्र
7. कुमार विमल (जन्म 1942)
- सृजन और सरोकार
- गंध और गिरा
- शब्द सेतु
8. अरुण कमल (जन्म 1954)
- अपने यहाँ
- नया पतझड़
- पुतली में संसार
- कविता से लंबी उम्र
9. राजेश जोशी (जन्म 1946)
- कुछ अनकहा
- एक दिन लौटेगा हंस
- मेरा पापा और इल्ली (बाल साहित्य)
- प्लेटो का कैफ़े
कथाकार
1. राहुल सांकृत्यायन (1893–1963)
- वोल्गा से गंगा
- दिवोदास
- राजसिंह
- भागो नहीं दुनिया को बदलो (गद्य)
2. रांगेय राघव (1923–1962)
- कब तक पुकारूँ
- सीढ़ियाँ
- घरौंदे
- चीवर
3. यशपाल (1903–1976)
- दिव्या
- देशद्रोही
- मनुष्य के रूप
- मेरी तेरी उसकी बात
- झूठा सच (महत्त्वपूर्ण उपन्यास)
आलोचक
1. रामविलास शर्मा (1912–2000)
- भारतीय पुनर्जागरण और अंग्रेजी शासन
- भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण
- निराला की साहित्य साधना (तीन खंड)
2. शिवदान सिंह चौहान (1906–1974)
- प्रगतिवाद और प्रयोगवाद
- नई कविता की भूमिका
3. नामवर सिंह (1926–2019)
- कविता के नए प्रतिमान
- छायावाद
- दूसरी परंपरा की खोज
- इतिहास और आलोचना
छायावाद और प्रगतिवाद में अंतर
प्रगतिवाद के कवि कालक्रमानुसार
- नागार्जुन (1911–1998)
- केदारनाथ अग्रवाल (1911–2000)
- शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (1915–2002)
- रामविलास शर्मा (1912–2000)
- त्रिलोचन (1917–2007)
- मुक्तिबोध (1917–1964)
- शमशेर बहादुर सिंह (1911–1993)
- भवानी प्रसाद मिश्र (1913–1985)
- रघुवीर सहाय (1929–1990)
- केदारनाथ सिंह (1934–2014)
- धूमिल (सुदामा पांडेय) (1936–1975)
- कुमार विमल (1946– )
- अशोक वाजपेयी (1941– )
- अरुण कमल (1954– )
- राजेश जोशी (1955– )
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