रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय
रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी के प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। इनका जन्म बिहार प्रान्त के मुंगेर जिले में सिमरिया (बिहार) नामक स्थान पर वर्ष 1908 में हुआ था। दिनकर जी 1950-52 तक मुजफ्फरपुर कॉलिज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। वर्ष 1952 में इन्हें भारत की प्रथम संसद में राज्यसभा का सदस्य चुना गया। ये 12 वर्ष तक सांसद रहे। भारत सरकार ने इन्हें 1965 से 1971 तक हिन्दी सलाहकार के पद पर नियुक्त किया।
रामधारी सिंह दिनकर की महत्वपूर्ण कृतियाँ
दिनकर ने गद्य-पद्य दोनों विधाओं में रचनाएँ लिखीं। उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं- प्रणभंग, रेणुका, हुंकार, रसवंती, छन्द गीत, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नील कुसुम, चक्रवात, सीपी और शंख, नए सुभाषित, मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, कोयल और कवित्व, आत्मा की आँखें, उर्वशी (महाकाव्य), परशुराम की प्रतीक्षा, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी (खण्डकाव्य)।
उर्वशी (महाकाव्य) रामधारी सिंह 'दिनकर'
उर्वशी रामधारी सिंह 'दिनकर' की प्रसिद्ध काव्य-नाटक रचना है, जो 1961 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी। इसमें कवि ने उर्वशी और पुरुरवा की प्राचीन कथा को आधुनिक दृष्टि और नए अर्थों से प्रस्तुत किया है। दिनकर की अन्य कृतियों से अलग, उर्वशी में राष्ट्रवाद और वीर रस की प्रधानता दिखाई देती है। इसी कृति के लिए उन्हें वर्ष 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उर्वशी महाकाव्य का पात्र परिचय
उर्वशी के पुरूष पात्र :
पुरूरवा - वेदकालीन प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक ।
महिर्ष च्यवन - प्रसिद्ध भृगुवंशी, वेदकालीन महर्षि।
सूत्रधार - नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र
आयु - पुरूरवा-उर्वशी का पुत्र।
महामात्य - पुरूरवा के मुख्य सचिव।
विश्वमना - राज ज्योतिषी।
उर्वशी के नारी पात्र :
उर्वशी - अप्सरा, यह नायिका है
सुकन्या - च्यवन ऋषि की सहधर्मिणी
औशीनरी -पुरूरवा की पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी ।
निपुणिका, मदनिका - औशीनरी की सखियाँ।
अपाला - उर्वशी की सेविका
अपाला - उर्वशी की सखी
नटी - शास्त्रीय पात्री, सूत्रधार की पत्नी
औशीनरी - पुरुरवा पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी
अप्सराएँ - सहजन्या, रम्भा, मेनका, चित्रलेखा
उर्वशी का भावपक्ष
उर्वशी दिनकर जी का एक प्रसिद्ध महाकाव्य है। 'उर्वशी' का वर्ण्य विषय राजा पुरुरवा और उर्वशी का प्रेमाख्यान है। यह कथावस्तु जितनी प्राचीन है, भारतीय साहित्य के लिए यह उतनी ही परिचित व ग्राह्य है। उर्वशी में बताया गया है कि काम का उदात्त रूप तन की सीमा का अतिक्रमण करके प्राप्त होता है। उर्वशी में प्रमुखतः श्रृंगार रस का प्रयोग हुआ है। इस रस की मुख्य विशेषता इसकी व्यापकता होती है। इसी कारण यह रसों में रसराज कहलाता है।
उर्वशी में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष दिखाए गए हैं। महाराज पुरूरवा उर्वशी को एक निशाचर से बचा लेते हैं, जिससे उर्वशी उनके शौर्य व रूप पर आसक्त हो जाती है। महाराज के स्वर्गलोक से अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर लौटने पर उर्वशी को स्वर्गिक सुख नीरस लगते हैं और वह पुरूरवा के विरह में व्याकुल हो जाती है
"स्वर्ग स्वर्ग मत कहो, स्वर्ग में सब सौभाग्य भरा है।"
महाराज पुरूरवा भी उर्वशी के लिए व्याकुल हैं। उनका मन भी उदास हो जाता है- "मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुप पर छाएँगें"। अन्ततः महाराज पुरूरवा व उर्वशी का मिलन हो जाता है। उस सुख में मग्न पुरूरवा को अपने असीम आनन्द को व्यक्त करने के लिए शब्द भी नहीं मिल पाते। उर्वशी भी उसी असीम आनन्द को प्राप्त करती है। इस प्रकार कवि ने उर्वशी को पुरूरवा के प्रेम के माध्यम से श्रृंगार रस को विस्तृत रूप दिया है। दिनकर जी की यह श्रृंगारिक योजना स्वाभाविकता से अधिक चिन्तनपूर्ण है।
उर्वशी महाकाव्य की एक और महिला प्रधान चरित्र महाराज पुरूरवा की पत्नी 'औशीनरी' की विरह वेदना स्वाभाविक व मर्मस्पर्शी जान पड़ी है। इसका कारण है कि यहाँ कवि ने औशीनरी को चिन्तन का माध्यम नहीं बनाया। औशीनरी की विवशता को कवि ने बहुत मार्मिकता से दिखाया है
"हाय मरण तक जीकर मुझको हलाहल पीना पड़ेगा।"
नारी की असहायता को कवि ने बहुत ही मार्मिक रूप से अपने शब्दों में उकेरा है। नारी अपने दुःख को जीभ तक लाने में भी असमर्थ होती है।
"अवलम्भ है सबको मगर, नारी बहुत असहाय है।
दुःख दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी! उठे जो हूक मन में
जीभ पर लाओ नहीं।"
औशीनरी के प्रस्तुत शब्द कितने मार्मिक व प्रभावी बन पड़े हैं।
"पगली ! कौन सी व्यथा है, जिसको नारी नहीं सहेगी?
कहती जा सब कथा अग्नि की रेखा को चलने दे,
जलता है यदि हृदय अभागिन का, उसको जलने दे।।"
उर्वशी का कलापक्ष
'उर्वशी' का कलापक्ष पुष्ट और अद्वितीय है। उसकी भाषा प्रौढ़ और भावों का अनुसरण करने वाली है। हालांकि उर्वशी में काव्य शास्त्रीय नियमों का पूर्णतः पालन नहीं किया गया है, परन्तु भाव पक्ष की प्रबलता ने कला पक्ष की कमियों को ढक लिया है।
उर्वशी में कवि का अलंकारों के प्रति मोह दृष्टिगत नहीं होता है। अतः इस कारण कवि ने अर्थालंकारों का अधिक प्रयोग किया है। स्पष्टतः उर्वशी में भाव और कला का उचित समन्वय हुआ है।
'उर्वशी' महाकाव्य का सारांश
दिनकर के महाकाव्य उर्वशी में मानवीय मूल्यों का उदात्तीकरण किया गया है। महाराज पुरूरवा, जो प्रतिष्ठान पुर के राजा हैं, स्वर्गलोक में पुरूरवा वहाँ की अप्सरा उर्वशी की एक दानव से रक्षा करते हैं, जिस कारण उर्वशी पुरूरवा पर मुग्ध हो जाती है। पुरूरवा भी उसको चाहने लगते हैं। पुरूरवा व उर्वशी दोनों गन्धमादन पर्वत पर प्रेम में मग्न हो जाते हैं। उधर राजमहल में पुरूरवा की पत्नी महारानी 'औशीनरी' एक पतिपरायण स्त्री है। विरह वेदना में जलते हुए भी और स्वयं को असहाय पाकर भी पति की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझती है। वह पति हित के कार्यों में तल्लीन रहती है।
महाराज पुरूरवा और उर्वशी गन्धमादन पर अपने प्रेम में परस्पर डूबे रहते हैं। फलस्वरूप, पुत्र आयु का जन्म होता है। पुत्र आयु का पालन पोषण महर्षि च्यवण की पत्नी सुकन्या करती है जिसके यौवनावस्था प्राप्त करते ही वे आयु को पुरूरवा उर्वशी के पास ले आती है। शाप के कारण उर्वशी अपने पुत्र को देखते ही स्वर्ग चली जाती है। पुरूरवा अपने पुत्र आयु का राज्याभिषेक कर उर्वशी के विरह से संतृप्त होने के कारण वानप्रस्थ को जाते हैं। सम्पूर्ण महाकाव्य में मानव के उदात्त लक्षणों का वर्णन किया गया है।
प्रथम अंक -
उर्वशी महाकाव्य गीतिनाट्य शैली में लिखा गया है। इस काव्य के प्रथम अंक में दिनकर जी ने मेनका रंभा संवाद में अप्सराओं के प्रेम को स्पर्श शून्य प्रेम बताया है। कभी उनके लिए सूक्ष्म प्रेम की परिणति मांसल प्रेम है। कठोर शरीर के पुरुरवा नर-नारी के भव्य सहज सौन्दर्य के कारण हैं, लेकिन यदि उनमें पर्वत सदृश कठोरता है तो पुष्प सदृश कोमलता भी है।
नारी कोमल होती है और कोमलता की रक्षा कठोर कवच से ही होती है, इसलिए नारी कठोरता का वरण करती है। नर-नारी सौन्दर्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। वह एक दूसरे के बिना अधूरे होते हैं। पुरूरवा द्वारा उर्वशी को दैत्य से छुड़ाने के फलस्वरूप, उर्वशी व पुरूरवा परस्पर प्रेमाकर्षण में बँध जाते हैं। मनुष्यत्व के उदात्त लक्षणों से अनभिज्ञ उर्वशी पुरूरवा के समागम का ही नहीं बल्कि उसके पुत्र का भार भी उठाती है। सहजन्या व उर्वशी जैसी अप्सराएँ इन सबसे अनभिज्ञ ही थी।
"और नारियों में भी श्लघ, गर्भिणी सत्वशील को,
देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा-सी हो आती है
कितनी विवश, किन्तु कितनी लोकोत्तर वह लगती है।"
द्वितीय अंक -
द्वितीय अंक में पुरूरवा की पत्नी औशीनरी एक भारतीय नारी के रूप में सहज भाव के साथ प्रस्तुत होती है। पति गन्धमादन पर्वत पर पराई स्त्री के साथ प्रेम में रत है, यह जानकर भी औशीनरी पतिव्रत धर्म का पालन करती है और प्रतिष्ठानपुर में पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान करती है। एक स्त्री के लिए उसके पति का प्रेम महत्त्वपूर्ण होता है। औशीनरी अपने पति के जीवन में उर्वशी के आगमन से विह्वल हो जाती है और स्वयं को मृत्यु देना चाहती है, परन्तु औशीनरी के लिए यह भी असम्भव हो जाता है।
पुरूरवा अन्य स्त्री का गमन करते हुए भी धर्मबद्ध रहता है। यज्ञ में वह अपनी वामा का स्थान औशीनरी को ही देता है। पुरुष की तृप्ति उसकी विषयों से नहीं अपितु नारी सान्निध्य से ही होती है। अपनी असफलताओं से निराश पुरुष मन नारी का सान्निध्य मिलते ही खो जाता है, भले ही वह माँ के रूप में हो या स्त्री के रूप में। औशीनरी ने पतिव्रत का निर्वाह करने के लिए प्रतिपल अपनी विरह-वेदना को दबाकर रखा। औशीनरी स्वयं को असाध्य मानती है। पुरूरवा का न्याय भी विचित्र है। उसे अपने आनन्द की पूर्ति में औशीनरी का ध्यान भी नहीं है। आदर्श राजा होते हुए भी वह अपनी पत्नी से झूठ बोलता है। गन्धमादन पर्वत पर उर्वशी के साथ प्रेम में रत होते हुए भी वह अपनी पत्नी को झूठा संदेश पहुँचाता है। स्वयं उर्वशी के साथ रमण करते हुए वह औशीनरी को ईश्वर आराधना व यज्ञ अनुष्ठान करने के लिए कहता है
"करती रहें प्रार्थना, त्रुटि होनी नहीं धय साधन में,
जहाँ रहूं मैं भी रत हूँ, ईश्वर के आराधन में।"
तृतीय अंक -
तृतीय अंक में पुरूरवा गन्धमादन पर्वत पर उर्वशी के मिलन में रत रहते हुए विचार करता है कि इन्द्र से उर्वशी के लिए अनुरोध करें, परन्तु फिर भिक्षा माँगना राजा के लिए प्रतिकूल धर्म मानता है। अपहरण नीति विरुद्ध मानता है। स्वर्ग पर आक्रमण करना भी वह धर्म विरुद्ध मानता है। वह बिना कारण किसी अन्य की भूमि पर अतिक्रमण नहीं करना चाहता
"नहीं बढ़ाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर
न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हरने को।।"
प्रेम में विह्वल मनुष्य अंतर्द्वन्द्र में उलझा रहता है। क्या सही क्या गलत वह इसी निर्णय को करता रहता है। प्रस्तुत काव्य में दिनकर जी एक प्रमुख उददेश्य यह भी रहा है कि काम की अग्नि मन्द होने पर ज्ञान की ज्योति भी शान्त हो जाती है। पुरूरवा के हृदय में ज्ञान फिर प्रज्जवलित होता है। प्रत्येक मानव अपने वासनात्मक क्षेत्र से ऊपर उठने का प्रयत्न करता रहता है
कौन है अंकुश इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ।
पर सरोवर में किनारे कष्ट में जो जल रही है।
आग है कोई नहीं, जो शान्त होती
और खुलकर खेलने से भी निरन्तर भागती है।
आत्मिक प्रेम के वशीभूत होने पर सौन्दर्य केवल दर्शनीय वस्तु ही रह जाता है। मानव को इन काम विषयक आकर्षण से मुक्त होने में अनेक बाधाओं से गुजरना पड़ता है। पुरूरवा की कामना मानवत्व से देवत्व तक प्राप्त करना चाहती है।
मानव की देवत्व प्राप्त करने की आकांक्षा तथा कामाग्नि उसे भौतिक संसार के जाल में फैलाए रहती है
"काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को,
उच्च लोक से गिरा हीन, पशु-जन्तु बना देता है
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर,
पहुँचा देता उसे किरण से वित अति उच्च शिखर पर।।"
उर्वशी पुरूरवा के सामने प्रश्न उठाती है कि निर्जन स्थानों में मौन रूप में ब्रह्म व्याप्त है, नभ में ज्योति पुंज बनकर पाताल में अन्धकार बनकर व्याप्त है। यदि ब्रह्म प्रत्येक वस्तु में है, तो कुछ वस्तुओं से वह पलायन क्यों है पुरूरवा, ऐसी कौन-सी नई बात है, जो तुम्हें शून्य की ओर आकर्षित कर रही है।
चतुर्थ अंक -
चतुर्थ अंक में महर्षि च्यवण की पत्नी सुकन्या उर्वशी के पुत्र 'आयु' को गोद ले लेती है। सुकन्या के इस कर्म पर महर्षि च्यवन स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। संसार में नारी का स्थान गौरवमयी है। नारी के कारण नर शरीरवादी हो जाता है। नर-नारी एक दूसरे के प्रेम में आकर्षित हो संसार सागर से पार हो जाते हैं।
दिनकर जी इस काव्य में स्पष्ट करते हैं कि मानव जीवन संसार में रहकर किस प्रकार संघर्षरत रहता है। सत्य के लिए वह जीवनभर अन्तर्द्वन्द्व में घिरा रहा है। वह इन ऊँचाइयों को छूना चाहता है जहाँ सांसारिक सुख-भोग उसे तुच्छ लगने लगते हैं। वह उर्ध्व गमन प्राप्त कर उदात्तीकरण को प्राप्त करना चाहता है। प्रेम से मनुष्य ब्रह्मत्व को प्राप्त कर सकता है, परन्तु प्रेम से उसका संदेह नारी से हो जाता है। वह उसके यौवन पर रीझ जाता है। अज्ञानरूपी आच्छादन से वह नारी के बाह्य रूप में खो जाता है।
नारी असीम व शाश्वत होती है। कवि दिनकर नर-नारी के मिलन की अनिवार्यता को मानकर उसे समाधि की स्थिति तक पहुँचाकर योग में निर्लिप्त करना चाहते हैं, परन्तु मानव भोग साधना में लिप्त है। पुरूरवा व उर्वशी का पुत्र आश्रम में पलकर सुयोग्य हो जाता है। सुकन्या उसे पुरूरवा व उर्वशी को सौंप देती है। पुत्र आयु से मिलते ही उर्वशी शापवश स्वर्ग चली जाती है। यहाँ भी कवि की प्रतीकात्मकता है। मानव के लिए भोग लालसा से मुक्त होने का उचित समय यही है।
पुरूरवा भोग आनन्द को छोड़कर अलौकिक आनन्द की ओर प्रवृत्त होता है। अतः सम्पूर्ण काव्य में प्रेम उदात्तीकृत रूप की व्यंजना हई है। पुरूरवा पुत्र आयु को औशीनरी को सौंपकर वानप्रस्थ की ओर चल देता है। औशीनरी आयु की जन्मदात्री न होने पर भी उसे निर्विरोध अपनाती है। उसकी विनम्रता और समर्पित भावना अद्वितीय है। दिनकर जी ने अपने इस उर्वशी महाकाव्य में नारी के स्वरूप को विराट अभिव्यक्ति दी है।
'उर्वशी' (तृतीय अंक) के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है।
जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फुल कानन में
अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में डूब गयी है,
अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का;
शब्दों से बनाती हैं जो मूर्तियाँ, तुम्हारे दग से।
उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं।
खड़ा सिहरता रहता मैं आनन्द-विकल उस तरु-सा
जिसकी डालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक नहीं हों,
या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हों।
व्याख्या -
पुरूरवा गन्धमादन पर्वत पर उर्वशी से कहते हैं कि हे प्रिये! जब से हम, तुम मिले हैं और अभिसारों में डूब चुके हैं, न जाने कितनी रातें इसी तरह श्वेत श्वेत का श्रृंगार करके आकाश में विचरण कर चुकी हैं और न जाने कितनी ही अमावस्या चन्द्रमा ले जा चुकी है और उतनी ही पूर्णिमाएँ चन्द्रमा को ले आई हैं अर्थात् न जाने कितनी अमावस्या और पूर्णिमाएँ बीत चुकी हैं। हे उर्वशी, जब से हम और तुम इस रूप में अगम और फूलों से भरे हुए वन में मिले हैं। मेरी अपलक दृष्टि किसी आश्चर्य और विस्मय में डूब सी गई है। मुझे अपनी ही व्याकुल वाणी का कोई अर्थ ही नहीं सूझता। मेरी वाणी जो भी शब्दों की मूर्तियाँ बनाती है, वे तुम्हारी इन आँखों के अश्रुजल से गलकर खो जाती हैं। मैं उस वृक्ष की भाँति आनन्द से विकल होकर सिहरता रहता हूँ जिसकी शाखाओं पर प्रसन्न गिलहरियाँ कूद रही हों या जिसके पत्तों में कोई कोयल छिपकर कूक रही हो।
विशेष -
- श्रृंगार रस का प्रयोग।
- रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग।
सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है,
अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में।
पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का,
जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को
जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली
रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं।
नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है?
बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को
चिर-अतृप्त, उद्भांत महोदधि लहराता रहता है।
वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बहु-वलय में
खिंची नहीं, विक्रम-तरंग पर चढ़ी हुई आती है।
हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?
व्याख्या -
उर्वशी, पुरूरवा के प्रेम में आसक्त होकर स्वयमेव ही पुरूरवा के पास चली आई। लेकिन, स्वभाववश नारी को तब ही अच्छा लगता है, जब उसका प्रेमी उससे प्रणय निवेदन करे। इस पर उर्वशी पुरूरवा से कहती है कि हे पुरू, मैं आ तो गई, लेकिन ये आना वैसा ही जिस प्रकार कोई चुम्बक लोहे को खींच लेती हैं। लेकिन इस तरह आने में कोई प्रसन्नता नहीं होती, न वो सुख मिलता। सुख तो उसमें मिलता है जब किसी सुन्दर कन्या को प्रेम से उद्वेलित होकर महापराक्रमी बलशाली पुरुष या तो बलपूर्वक उनका हरण कर लेते हैं या युद्ध करके उन्हें जीत लाते हैं।
उर्वशी उदाहरण देते हुए कहती है कि नदियाँ अपने आप ही आकर सागर में विलीन हो जाती है, लेकिन सागर उनकी ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं देता। वह तो सुबह की बेला को अपने आलिंगन में भरने को अतृप्त होकर ललसाता रहता है। वह सुन्दरी धन्य है, जो सम्मान पूर्वक अपने प्रेमी के बाहों में घिरी हुई, उसके आकर्षण में खिंची हुई न होकर उसके पराक्रम के कारण आती है। हे पुरू! फिर यह बताओ जब तुम्हें लगता है कि इन्द्र से मुझे माँगने में तुम्हारा अपयश हो जाता, तो फिर तुमने मेरा अपहरण क्यों नहीं किया?
विशेष -
- नारी की स्वाभाविकता यही है कि उससे कोई पुरुष प्रणय-निवेदन करे, न कि वह।
- नारी के स्वभाव का बहुत सुन्दर यथार्थ चित्रण किया है।
- उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त तथा रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है।
(3)
हाय, तृषा फिर वहीं तरंगों में गाहन करने की!
वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का
झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में?
ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर?
विविध सुरों में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारों को,
बिठा-बिठा कर विविध भाँति रंगों में, रेखाओं में
कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में,
बहुत पढ़ा मैंने अनेक लोकों में तुम्हें जगाकर।
पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ,
मायाविनि ! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है?
कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था?
और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझको भ्रमा रही हो?
व्याख्या -
पुरूरवा, उर्वशी से कहते हैं कि हाय, अब फिर से वही प्यास, इच्छा मन में जगी है कि मैं तुम्हारे उन प्रेम रंगों में डूब जाऊँ। मेरे मन में फिर से वही लोभउठा है कि मैं उस चेतना-सिन्धु से पार चला जाऊँ। तुम्हारी उफनती हुए यौवन की लहर में कूदकर अपने शरीर की आग बुझा लूँ। हे उर्वशी, क्या ये प्रणय आकाश की शून्यता पर ठहर नहीं सकता? मन करता है कि तुम्हारी वीणा के इन तारों से विभिन्न सुरों को छेड़ दूँ। मैं विभिन्न रंगों रेखाओं में, कभी हृदय की उष्ण धड़कनों को और कभी मानसरोवर के शीतल दर्पण में मैंने तुम्हें कई बार जगाकर पढ़ा है। परन्तु हे उर्वशी तुम फिर भी पूर्व रूप से मुझसे शायद ही खुली हो या मैं तुम्हें फिर भी पूर्ण रूप से पढ़ नहीं पाया। कहने का तात्पर्य यही है कि मेरी कामनाएँ तुम्हारे प्रति तृप्त ही नहीं हुई।
हे मायाविनि, वह बन्द कली है, या महान् सागर का तट है? कहाँ तो अभी पर्वत के उच्च शिखर पर काल का विलय को रहा था और कहाँ मेरी यह इच्छा (प्यास) रूपी नदी फिर से नीचे आकर बहने को तैयार है। इस पर्वत की आसुरी शक्ति के बेचैन द्वन्द्व में फँस गया हूँ। हे उर्वशी क्या मैं स्वयं भ्रमित हो गया हूँ या तुम जानबूझकर मुझे भ्रमा रही हो?
विशेष -
- कवि ने पुरूरवा के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का विश्लेषण किया है। उर्वशी के प्रेम में फँसकर पुरूरवा स्वयं को भ्रमित व पागल मान बैठे हैं। उनकी काम-तृप्ति हो नहीं पा रही उसे बुझाने पर और बढ़ती-सी जा रही है।
- सन्देह, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग।
उर्वशी महाकाव्य के महत्त्वपूर्ण तथ्य
अध्ययनकाल में कवि रामधारी दिनकर जी की 'बारदोली-विजय' और 'प्रणभंग' नामक दो कृतियाँ प्रकाशित हुई।
1961 ई. में प्रकाशित काव्य-नाटक - गीतिनाट्य।
1972 ई. में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित ।
यह महाकाव्य आठ वर्ष में पूर्ण काव्य हुआ।
पुरूरवा उर्वशी के ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन आख्यान पर आधारित कृति ।
"मनुष्य के इस द्वंद्व का, साकार से ऊपर उठकर निराकार तक जाने की इस आकुलता अथवा ऐन्द्रियता से निकलकर अतीन्द्रिय जगत् में आँख खोलने की इस उमंग का प्रतीक पुरूरवा है किंतु उर्वशी द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त है। देवियों में द्वन्द्व नहीं होता, वे त्रिकाल अनुद्विग्न, निर्मल और निष्पाप होती हैं। द्वन्द्वों की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे तब होती है, जब वह माता अथवा पूर्ण मानवी बन जाती हैं जब मिट्टी का रस उसे पूर्ण रूप से भिसिक्त कर देता है।"
"नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत खोज है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते, तन से मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँचकर निपस्पंद हो जाता है।"
"और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।"
"इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।" -
"देश और काल की सीमा से बाहर निकलने का एक मार्ग योग है, किंतु, उसकी दूसरी राह नर-नारी-प्रेम के भीतर से भी निकलती है, मनुष्य का यह अनुमान अत्यंत प्राचीन है।"
पाँच अंकों में विभक्त कामाध्यात्म की रचना इस प्रकार है -
1. प्रथम अंक सूत्रधार- सूत्रधार और नटी के परस्पर संवाद से उर्वशी की प्रेमकथा प्रारंभ होती है।
2. दूसरा अंक- यह कथा दो तथ्यों को लेकर है। पहला पतिव्रता स्त्री की 'मति' और दूसरा पुरुष का 'स्वभाव'।
3. तीसरा अंक- उर्वशी रूपी काम वृक्ष का तना है। इसमें एक ओर दाम्पत्य की निर्मल लहरियाँ है तो वही दूसरी ओर पुरुष की गहन गंभीरता भी है।
4. चौथा अंक- चयवन सुकन्या के आश्रम में उर्वशी के पुत्र 'आयु' का पालन-पोषण होता है हुआ दिखाया गया है।
5. पाँचवां अंक- उर्वशी राजा पुरुरवा के पास चली आती है।
उर्वशी के संबंध में विद्वानों के कथन
1. हजारीप्रसाद द्विवेदी - 'दिनकर जी अहिंदीभाषियों के बीच हिंदी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।'
2. हरिवंशराय बच्चन - "दिनकर जी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी-सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।"
3. नामवर सिंह - "दिनकर जी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।"
4. स्वयं दिनकर जी उर्वशी के संदर्भ में लिखते हैं- "इस कथा को लेने में वैदिक आख्यान की पुनरावृत्ति अथवा वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्तन मेरा ध्येय नहीं रहा। मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का।"
उर्वशी महाकाव्य संबंधित प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौनसी कृति दिनकर के विद्यार्थीकाल में प्रकाशित हुई?
- सामधेनी
- प्रणभंग
- कुरुक्षेत्र
- बापू
उत्तर - 2. प्रणभंग
प्रश्न 2. 'दिनकर जी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।' यह कथन किसका है?
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- हजारीप्रसाद द्विवेदी
- बच्चनसिंह
- नामवर सिंह
उत्तर - 4. नामवर सिंह
प्रश्न 3. 'इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है।' उर्वशी काव्य की इस पंक्ति में किस द्वार की ओर संकेत किया गया है?
- मुक्ति का द्वार
- स्वर्ग का द्वार
- हृदय का द्वार
- ज्ञान का द्वार
उत्तर - 3. हृदय का द्वार
प्रश्न 4. "बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमंथन करते हैं, वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।"
उपर्युक्त पंक्तियों में किसका वर्णन है?
- 'साकेत' में चित्रकूट का।
- असाध्यवीणा में वन-प्रान्तर का।
- रश्मिरथी में परशुराम आश्रम का।
- 'कामायनी' में सारस्वत्-प्रदेश का।
उत्तर - 3. रश्मिरथी में परशुराम आश्रम का
प्रश्न 5. प्रकाशन वर्ष की दृष्टि से 'दिनकर' की काव्य कृतियों का सही क्रम किस विकल्प में है ?
- रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, रसवंती, उर्वशी
- रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी
- कुरुक्षेत्र, रसवंती, रश्मिरथी, उर्वशी
- उर्वशी रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, रसवंती
उत्तर - 2. रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी
प्रश्न 6. पुरुरवः ! पुरस्तं परेहि, दुरापना वात इवाहमस्मि ।
'उर्वशी' का तृतीय अंक इस बीज-भाव पर केन्द्रित है। इसका स्रोत है!
- ऋग्वेद
- यजुर्वेद
- तैत्तिरीय उपनिषद्
- ब्रह्मवैवर्त पुराण
उत्तर - 4. ब्रह्मवैवर्त पुराण
प्रश्न 7. दिनकर की किस कृति का कथानायक कर्ण है?
- कुरुक्षेत्र
- रश्मिरथी
- परशुराम की प्रतीक्षा
- उर्वशी
उत्तर - 2. रश्मिरथी
प्रश्न 8. 'मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल' पंक्ति किससे संबंधित है?
- परशुराम से
- कृपाचार्य से
- द्रोणाचार्य से
- पितामह भीष्म से
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