अकाल दर्शन (कविता) | धूमिल

'अकाल दर्शन' कविता धूमिल की वर्ष 1966 में बिहार और उड़िया में पड़े भीषण अकाल पर आधारित है। 

Akal Darshan – Sudama Pandey Dhoomil

'अकाल दर्शन' कविता का सारांश 

"अकाल दर्शन" सुदामा पांडे 'धूमिल' की एक प्रभावशाली कविता है, जिसमें कवि भारत में फैली भूख और गरीबी की भयावह स्थिति पर तीखा व्यंग्य करता है और आक्रोश प्रकट करता है। यह रचना न केवल शासन और प्रशासनिक तंत्र की असंवेदनशीलता के प्रति विरोध दर्ज कराती है, बल्कि उन आम लोगों के प्रति गहरी संवेदना भी प्रकट करती है जो अकाल और अभावों के कारण पीड़ित हैं।

'अकाल दर्शन' कविता के कुछ पदों की व्याख्या 

(1)

भूख कौन उपजाता है: 

वह इरादा जो इस तरह देता है 

यह वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर 

हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है? 

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर 

नहीं दिया। 

उसने गलियों और सड़कों और घरों में 

बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया 

और हँसने लगा। 

व्याख्या - अपनी कविता 'अकाल दर्शन' के प्रारम्भ में ही कवि ने पाठकों के सम्मुख एक प्रश्न रख दिया है। यहाँ कवि ने एक व्यक्ति से प्रश्न किया कि भूख को पैदा कौन करता है? वह जो ऐसा इरादा देता है या वह घृणा, जो आँखों पर पट्टी बाँधकर हमें घास के बाज़ार में छोड़ आती है। कवि का तात्पर्य यह है कि भूख पैदा कहाँ से होती है? वह इरादे से होती है या लोगों की घृणा से? 

कवि कहता है कि उस चालाक व्यक्ति ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया बल्कि गलियों, सड़कों और घरों में बाढ़ की तरह फैले अर्थात् बहुत अधिक संख्या में उपस्थित बच्चों की ओर इशारा करके हँसता हुआ चल दिया। कवि कहता है कि उस व्यक्ति ने सांकेतिक रूप से इशारा कर दिया कि इतने अधिक बच्चों के पैदा करने के कारण भूख बढ़ती है। 

विशेष -

  • लाक्षणिकता का प्रयोग। 
  • प्रतीकात्मक शैली।


(2)

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के 

सामने खड़ा हूँ और उस मुहावरे को समझ गया हूँ 

जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है 

जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम 

बदल रहा है। 

लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए) 

पत्ते और छाल 

खा रहे हैं 

मर रहे हैं, दान 

कर रहे हैं। 

जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से 

हिस्सा ले रहे हैं और 

अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं। 

झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है। 


व्याख्या - कवि धूमिल को जब अपने ही सवाल का जवाब नहीं मिला तो उन्होंने कहा कि अचानक मैंने स्वयं को ही अपने सवालों के सम्मुख खड़ा कर लिया है। वे कहते हैं कि मैं उन मुहावरों को अब समझ गया हूँ, जिन्हें लोग आजादी और गांधी के नाम पर प्रयोग कर रहे हैं। उनसे न तो भूख ही मिटती है और न ही देश का मौसम बदलता है। 

कवि आगे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि लोग भूख के कारण बिलबिला रहे हैं। उनके पास खाने को कुछ नहीं है। वे पेड़ों की छालें और पत्तों को उखाड़-उखाड़कर खा रहे हैं। वे भूख से मर रहे हैं, परन्तु फिर भी वे कोई भी जलसा हो या कोई भी जुलूस हो, उसमें ईमानदारी से भाग ले रहे हैं। वे अकाल को मांगलिक गीतों की तरह गा रहे हैं। भूख की आग के कारण उनके चेहरे झुलसे हुए हैं, लेकिन उन पर किसी भी प्रकार की चेतावनी नहीं है अर्थात् भूख होते हुए भी उन पर उक्त बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। 

विशेष -

  • कवि ने व्यंग्यपूर्वक देश की जनसाधारण भोली जनता की यथार्थ तस्वीर खींची है। 
  • चित्रोपमा शैली। 
  • व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग।

अकाल दर्शन (कविता) | धूमिल

भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है। 

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