भवानी प्रसाद मिश्र का जीवन परिचय
भवानी प्रसाद मिश्र आधुनिक हिन्दी कविता के समर्थ कवि हैं। उनके प्रयोगवाद और नई कविता से सम्बद्ध रहे हैं। मिश्र जी का जन्म सन् 1913 में होशंगाबाद जिले (मध्य प्रदेश) के टिगरिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता पं. सीताराम मिश्र शिक्षा विभाग में अधिकारी थे तथा साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे। हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेज़ी तीन भाषाओं पर मिश्र जी का अच्छा अधिकार था।
मिश्र जी ने हाई स्कूल की परीक्षा होशंगाबाद से, बी.ए. की परीक्षा सन् 1935 में जबलपुर में रहकर उत्तीर्ण की। सन् 1946-50 तक मिश्र जी महिलाश्रम वर्धा में शिक्षक रहे। सन् 1952-1955 तक हैदराबाद में 'कल्पना' मासिक पत्रिका का सम्पादन किया तथा सन् 1956-58 तक आकाशवाणी के कार्यक्रमों का संचालन किया। सन् 1958-72 तक गांधी प्रतिष्ठान, गांधी स्मारक निधि और सर्व सेवा संघ से जुड़े रहे तथा 'सम्पूर्ण गांधी वाङमय' का सम्पादन किया। वे अपने अन्त समय अर्थात् सन् 1985 तक गांधी प्रतिष्ठान से जुड़े रहे।
साहित्यिक परिचय - भवानी प्रसाद मिश्र जी का बचपन मध्य प्रदेश के प्राकृतिक अंचलों में बीता। अतः वे प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति गहरा आकर्षण रखते हैं। उनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा-मध्य प्रदेश के प्राकृतिक वैभव का चित्रण मिलता है। मिश्र जी ने कविता लिखने की शुरुआत लगभग सन् 1930 से की। उनकी कुछ कविताएँ पण्डित ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादन में निकलने वाले हिन्दू पंच में हाई स्कूल पास होने से पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। सन् 1932-33 में वे माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आए। वे 'कर्मवीर' में मिश्र जी की कविताएँ प्रकाशित करते रहे हैं।
'हंस' में उनकी काफी कविताएँ छपी और फिर अज्ञेय जी ने इन्हें दूसरे सप्तक में प्रकाशित किया। उन्होंने चित्रपट (सिनेमा) के लिए संवाद लिखे और मद्रास के एबीएम में संवाद निर्देशन भी किया। मद्रास से वे मुम्बई आकाशवाणी के निर्माता बन गए और आकाशवाणी केन्द्र, दिल्ली में भी उन्होंने काम किया। मिश्र जी को अपनी रचनाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1972), पद्म श्री पुरस्कार व शिखर सम्मेलन (1983) से अलंकृत किया गया।
साहित्यक कृतियाँ - भवानी प्रसाद मिश्र जी की काव्य कृतियाँ निम्न हैं -
काव्य संग्रह - गीत फरोश, चकित है दुख, गांधी-पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, तुम आते हो, इदम् न मम, शरीर कविताः फसलें और फूल, मानसरोवर दिन, सम्प्रति, अँधेरी कविताएँ, तूस की आग, कालजयी, अनाम और नीली रेखा तक।
बाल कविताएँ - तुकों के खेल
संस्मरण - जिन्होंने मुझे रचा
निबन्ध संग्रह - कुछ नीति कुछ राजनीति।
'गीत फरोश' कविता का सारांश
'गीत फरोश' शीर्षक कविता मिश्र जी की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें कवि ने व्यंग्यात्मकता की सृष्टि की है। आज के इस भौतिकवादी युग में भावना या गीत का, अर्थ शून्य हो गया है। महानगरीय जीवन की विषमताओं से व्यक्ति केवल अर्थोपार्जन में ही लगा है। मिश्र जी ने व्यंग्यात्मक शब्दावली में गीतों के विक्रय की बात कही है, जिस प्रकार एक दुकानदार ग्राहक को सन्तुष्ट करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न प्रकार का माल दिखाता है, उसी प्रकार ये आज के कवि भी भिन्न-भिन्न भावों से सम्बन्धित गीतों की रचना कर अपने सहृदय एवं श्रोता को सन्तुष्ट करना चाहता है। यह आज के कवि की विवशता है, नहीं तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। यदि कवि यह न बेचे तो उसका जीवन-यापन कठिन हो जाएगा। इसलिए वह तरह-तरह के गीत और कविता लिखता रहता है। कवि व्यंग्यात्मक भाषा में एक दुकानदार की भाँति व्यावसायिक दृष्टि रखकर कहता है कि उसके पास तरह-तरह के गीत हैं और उसके अलग-अलग मूल्य हैं। मेरे गीत बेकाम नहीं है अर्थात् उनका भी एक मूल्य है।
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गजब का है, ढा कर देखें।"
भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी इस कविता में बेरोज़गारी और समाज के नग्न यथार्थ पर व्यंग्य किया है। कवि ने अपनी इस कविता के माध्यम से कलाकारों की लाचारी की व्यथा का भी चित्रण किया है।
'गीत फरोश' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह तरह के गीत बेचता हूँ
मै किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ भवानी प्रसाद मिश्र द्वारा रचित कविता 'गीत फरोश' से उधृत हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि व्यंग्यपूर्ण भाषा में अपने गीतों को बेचने की विवशता का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या - इन पंक्तियों में कवि कहता है कि जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीतों को बेचता हूँ, क्योकि इन गीतों द्वारा ही मैं अपनी जीविका चलाता हूँ। मेरे पास विभिन्न प्रकार के गीतों का संकलन है तथा मैं सभी प्रकार के गीतों को बेचकर अपना जीवन-निर्वाह करता हूँ। कवि ने व्यंग्यात्मक रूप में यह कहने का प्रयास किया है कि आज जीवन में कवि कर्म करना भी कठिन हो गया है और मैं इस प्रकार विवश हो गया हूँ कि अपने इन गीतों को बेचकर मैं अपना भरण-पोषण करता हूँ, क्योंकि यदि मैं इन गीतों को नहीं बेचूँगा तो मेरा जीवन यापन करना कठिन हो जाएगा।
विशेष -
कवि ने अपनी गीत बेचने की विवशता को उजागर किया है।
भाषा - सरल व खड़ी बोली
शैली - लयात्मक
छन्द - गेय
रस - शान्त
अलंकार - रूपक
(2)
जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अपने गीतों की विशेषताओं का वर्णन किया है।
व्याख्या - कवि इन पंक्तियों में एक दुकानदार की भाँति अपने गीतों को बेच रहा है, वह कहता है कि आप पहले माल देखिए फिर मैं उसका दाम बताऊँगा अर्थात् आप मेरे गीतों को देखिए उनके भावों को समझिए। मेरे सभी गीतों का मूल्य अलग-अलग है। कवि के गीत बेकाम के नहीं हैं अर्थात् व्यर्थ के नहीं हैं, बल्कि काम के हैं। कवि अपने गीतों की गुणवत्ता का महत्त्व भी अपने ग्राहकों को बताता है। कवि के गीतों में विभिन्न भाव छिपे हैं। कुछ मस्ती से भरे हुए गीत हैं, कुछ निराशा से, कुछ मनोरंजन से परिपूर्ण हैं, तो कुछ निराशाओं अथवा चिन्ताओं को दूर करने वाले भी हैं। इसके अतिरिक्त कवि के पास ऐसे भी गीत हैं, जो किसी प्रियतम को पास बुला लाने में सक्षम हैं।
विशेष -
कवि इन पंक्तियों में अपने गीतों की भिन्न-भिन्न विशेषताएँ बता रहा है।
भाषा-सरल व स्पष्ट
शैली-चित्रात्मक शैली
छन्द-तुकान्त व गेय
रस-शान्त
अलंकार-रूपक
शब्द-शक्ति-अभिधा
(3)
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अक्ल जगी मुझको;
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान।
जी, आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान।
मैं सोच-समझकर आखिर,
अपने गीत बेचता हूँ।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने गीत बेचने की व्यथा का वर्णन करता है।
व्याख्या - कवि अपने मन की व्यथा को व्यक्त करते हुए कहता है कि आरम्भ में मुझे अपने गीतों का मोल-भाव करते हुए संकोच होता था। मेरे मन में यह विचार आता था कि कोई व्यक्ति अपने मन की संवेदनाओं, भावों को कैसे बेच सकता है? किन्तु कुछ समय बाद मुझे यह बोध हुआ कि आज के समाज में लोग अपने ईमान को भी बेच देते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वार्थ पूर्ति में लगा है। देश में चारों ओर नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। सभी व्यक्ति स्वार्थी हो गए हैं, इसलिए कवि सोचता है यदि लोग अपना ईमान आदि बेचकर अपने जीवन को सम्पन्न बना रहे हैं, तो मैं अपने गीतों को बेचकर अपना जीवन यापन क्यों नहीं कर सकता? इसलिए अब कवि को अपने गीतों को बेचने में कोई ग्लानि महसूस नहीं होती। कवि ने सोच-विचारकर ही अपने गीतों को बेचने का निर्णय लिया है।
विशेष -
इन पंक्तियों में कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि व्यक्ति अपनी मजबूरीवश उन कार्यों को भी करने से पीछे नहीं हटता, जिनसे उसे ग्लानि की अनुभूति हो।
भाषा-खड़ी बोली
छन्द-गेय
रस-शान्त
अलंकार-रूपक
काव्यगुण-प्रसाद
(4)
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,
यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है।
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है!
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
मैं सीधे-सीधे और अटपटे गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ।
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - यह कविता आधुनिक युग की रचना-धर्मिता और उन कवियों पर करारा व्यंग्य है, जिन्होंने साहित्य को सौदेबाजी का विषय बना दिया है।
व्याख्या - कवि के पास विभिन्न प्रकार के भावों के गीतों का संकलन है। कवि कहता है कि यह गीत देखिए, यह सुबह का गीत है अर्थात् इस गीत के गाने से मन में आशा का संचार एवं नई स्फूर्ति होती है। कुछ गीत लाजवाब हैं, वे व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहेंगे। कुछ गीत ऐसे हैं जिनकी रचना कवि ने 'पूना' में की थी। कुछ गीत पर्वतीय स्थलों के दृश्यों को निरूपित करने वाले हैं। कवि के गीत हर बाधा को पार करने वाले हैं। कुछ गीत भूख और प्यास भगाने वाले हैं तो कुछ गीत भूत को श्मशान से जगाने वाले हैं, कुछ गीत भुवाली (एक पहाड़ी पर्यटन स्थल) की सुगन्धित वायु से महकते हैं तथा भुवाली पर्वत की स्वच्छ हवा की अनुभूति कराते हैं। कवि के पास कुछ गीत ऐसे भी हैं जिन्हें सुनकर तपेदिक जैसा रोग भी ठीक हो जाता है। यदि इनमें से कोई गीत आपको पसन्द नहीं आया तो चिन्ता की कोई बात नहीं। मेरे पास और भी कई प्रकार के गीत हैं और आप चाहें तो मैं इन गीतों को गाकर भी सुना सकता हूँ।
विशेष -
कवि ने परिस्थितिवश लिखे गए अपने गीतों की विशेषताओं का व्यंग्यपूर्ण वर्णन किया है।
भाषा-सहज व खड़ी बोली
छन्द-गेय व तुकान्त
रस-शान्त
अलंकार-रूपक
शब्द-शक्ति-अभिधा
(5)
जी, छन्द और बे-छन्द पसन्द करें,
जी, अमर गीत और वे जो तुरन्त मरें।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ कलम और दावात,
इनमें से भाए नहीं, नए लिख दूँ।
इन दिनों की दुहरा है कवि-धन्धा,
है दोनों चीजें व्यस्त, कलम, कन्धा।
कुछ घण्टे लिखने के कुछ फेरी के,
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के।
मैं नए पुराने सभी तरह के गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - पूँजीवादी व्यावसायिक युग में हर चीज़ बिकाऊ है। इसी का वर्णन कवि ने किया है।
व्याख्या - कवि कहता है कि उसके कुछ गीत छन्दबद्ध हैं, तो कुछ छन्दमुक्त। कुछ गीत अमरता का बोध कराने वाले हैं, तो कुछ मृत्यु का बोध कराने वाले हैं। कवि कहता है कि इसमें कुछ भी उचित या अनुचित नहीं हैं, जो उसके गीत किसी को न भाएँ अर्थात् जी श्रीमान ! मैंने बहुत सोच-समझकर अपने गीत बेचने का निर्णय लिया है। आज तो व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ईमान भी बेच देते हैं और मैं तो अपने द्वारा लिखे गए गीतों को ही बेच रहा हूँ फिर मेरे गीत बेचने पर तरह-तरह के सवाल क्यों किए जा रहे हैं?
मेरे लिखे हुए गीत किसी को पसन्द आएँ या ना आएँ इसमें कोई बुरा मानने वाली बात नहीं है। मेरे पास सभी साधन उपलब्ध हैं। मैं अभी कलम-दवात ले आता हूँ और आप जैसा गीत चाहते हैं, वैसा ही लिख देता हूँ। कवि कहता है कि आज के समय में कवि कर्म दोहरा व्यापार बन गया है और इसमें वह बहुत व्यस्त रहता है। कवि की व्यस्तता का कारण एक ओर तो गीतों को लिखने में और दूसरी ओर उन्हें बेचने में लगने वाला समय है। कवि कहता है कि गीतों को लिखने और उन्हें बेचने में जितना समय लग रहा है उसका प्रभाव मैं तुम पर नहीं पड़ने दूँगा। मैं नित नए-नए गीत बेचता हूँ।
विशेष -
इन पंक्तियों में कवि ने अपनी काव्य-मंजूषा व लेखनी के बल पर गीतों के खरीदारों को रिझाने की कोशिश की है।
भाषा-सरल व प्रवाहमयी
शैली-चित्रात्मक व बिम्बात्मक
छन्द-गेय
अलंकार-रूपक
शब्द-शक्ति-लक्षणा
(6)
जी, गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ;
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का !
कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इल्मी
यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत।
जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश में कवि व्यावसायिक बनकर ग्राहक से संवाद कर रहा है। वह बता रहा है कि उसके पास बहुत से गीत हैं और वह पाठक की इच्छानुसार गीत रचना करता है।
व्याख्या - कवि कहता है कि उसके पास गीतों की एक विशाल मंजूषा है, जिसमें से ग्राहक अपनी इच्छानुसार गीतों का चयन कर सकता है। इनमें से कुछ गीत जन्मोत्सव के हैं अथवा कुछ मृत्यु का बोध कराने वाले हैं, जोकि निराशाबोधक हैं। कवि के रचना संसार में कुछ गीत विजय का भाव जागृत करने वाले हैं तो कुछ नैराश्य का भाव जागृत करने वाले हैं। कुछ गीत रेशम के समान सुन्दर सुकोमल हैं, तो कुछ गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित होकर रचे गए हैं। कुछ गीत पित्त रोग से उत्पन्न क्रोध भाव को उजागर करने वाले हैं, तो कुछ बादी से उत्पन्न शिथिलता का बोध कराते हैं।
कवि एक सौदागर की भाँति अपने पाठकों को भिन्न-भिन्न भावों के गीत दिखाकर सन्तुष्टि का अनुभव कराना चाहता है। कुछ गीत इल्मी या ज्ञानवर्द्धक हैं तो कुछ गीत चलाऊ हैं अर्थात् रंगमंचीय हैं, कुछ सोच-सोचकर मृत्यु का बोध कराने वाले गीत हैं। कुछ गीत दुकान से घर जाने वाले हैं अर्थात् दिन भर की थकान को दूर करने वाले हैं। कवि कहता है कि इसमें मज़ाक (दिल्लगी) की कोई बात नहीं है। मैं दिन-रात इसी प्रकार के गीत लिखता रहता हूँ। इन गीतों को लिखकर अपना सृजन कार्य करता रहता हूँ, जिसके कारण यह गीत तरह-तरह के बन जाते हैं।
विशेष -
कवि ने पाठक की इच्छा व माँग के आधार पर लिखे गए विभिन्न प्रकार के गीतों का वर्णन किया है।
भाषा-सरल खड़ी बोली
छन्द-गेय
अलंकार-मानवीकरण
शैली-चित्रात्मक
रस-शान्त
शब्द-शक्ति-अभिधा
(7)
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,
गाहक की मर्जी अच्छा, जाता हूँ;
मैं बिल्कुल अन्तिम और दिखाता हूँ-
या भीतर जाकर पूछ आइए, आप;
है गीत बेचना वैसे बिल्कुल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार हार
कर गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ;
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कलाकार की कला का मोल-भाव करने को महापाप बताया गया है।
व्याख्या - कवि कहता है कि मेरे गीतों का अब भण्डार लग गया है, इसलिए मैं अब आपको इनमें से कुछ हटाकर दिखाऊँगा। जैसे आपको पसन्द हैं, वैसे ही गीत मैं आपको दिखाऊँगा। अब मैं आपको अपना अन्तिम गीत दिखाता हूँ। कवि गीतों को बेचते हुए ग्राहक से कहता है कि वैसे तो मेरे लिए इन गीतों को बेचना उनका मोल-भाव करना, पाप करने के समान है, परन्तु मैं भी लाचार हूँ, मुझे अपनी जीविका चलानी है, इसलिए मैं हारकर गीत बेचता हूँ। जी हाँ हुजूर! मैं गीत बेचता हूँ, क्योंकि मेरी बेरोजगारी व मजबूरी ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तरह-तरह के व किस्म-किस्म के गीत बेचता हूँ।
विशेष -
कवि ने पाठक की इच्छा व माँग के आधार पर लिखे गए विभिन्न प्रकार के गीतों का वर्णन किया है।
भाषा-सरल खड़ी बोली
छन्द-गेय
अलंकार-मानवीकरण
शैली-चित्रात्मक
रस-शान्त
शब्द-शक्ति-अभिधा
गीत फरोश (कविता) | भवानी प्रसाद मिश्र
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा !
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको;
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान -
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,
यह गीत गजब का है, ढाकर देखे,
यह गीत जरा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है !
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ !
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें,
जी, अमर गीत और ये जो तुरत मरें !
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ कलम और दावात
इनमें से भाएँ नहीं, नए लिख दूँ,
मैं नए पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का !
कुछ और डिजायन भी हैं, यह इल्मी,
यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत !
यह दुकान से घर जाने का गीत !
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत,
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,
गाहक की मर्जी, अच्छा, जाता हूँ,
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ,
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
Geet farosh MCQ
प्रश्न 01. भवानीप्रसाद मिश्र का प्रथम काव्य गीतफरोश का प्रकाशन वर्ष है-
- 1955
- 1956
- 1957
- 1958
उत्तर - 2. 1956
प्रश्न 01. गांधी पंचशती' का रचयिता कौन है?
- सियारामशरण गुप्त
- भवानी प्रसाद मिश्र
- काका कालेलकर
- जयशंकर प्रसाद
उत्तर - 2. भवानी प्रसाद मिश्र
प्रश्न 01. भवानीप्रसाद मिश्र का प्रथम काव्य है-
- गीतफरोश
- चकित है दुख
- खुशबू के शिलालेख
- बुनी हुई रस्सी
उत्तर - 1. गीतफरोश
प्रश्न 01. 'गीत फरोश' में कवि क्या कहना चाहता है?
- कवि के लिए सुनहरे अवसर बहुत हैं
- दूसरों के मनमाफिक कविता लिखने और बेचने के लिए कवि विवश है।
- कवि पैसे के लिए गीत लिखता है
- कवि ज्ञान और संवेदना से हीन होता जा रहा है
उत्तर - 2. दूसरों के मनमाफिक कविता लिखने और बेचने के लिए कवि विवश है।
प्रश्न 01. भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'सतपुड़ा के जंगल' में गोंड जाति निम्नलिखित में से किनको पालकर बैठी है?
- मुर्गे और तीतर
- हिरण और मुर्गाबी
- भेड़ और बकरी
- गधे और ऊंट
उत्तर - 1. मुर्गे और तीतर
प्रश्न 01. 'सतपुड़ा के घने जंगल' में कवि ने कितनी पहाड़ियों का वर्णन किया है-
- दो
- एक
- पाँच
- सात
उत्तर - 4. सात
प्रश्न 01. भवानीप्रसाद की व्यंग्य-रचना है-
- गीतफरोश
- परिवर्तन जिए
- त्रिकाल-सन्ध्या
- ये सभी
उत्तर - 4. ये सभी
प्रश्न 01. भवानीप्रसाद की व्यंग्य-रचना है-
- गीतफरोश
- परिवर्तन जिए
- त्रिकाल-सन्ध्या
- ये सभी
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