सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का जीवन परिचय
अजेय का जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान पर हुआ। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत् में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। इन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया एवं कई दैनिक व साप्ताहिक पत्रों का सम्पादन भी किया। वर्ष 1980 में इन्होंने क्त्सलनिधि' नामक न्यास की स्थापना की, जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। इनका निधन 4 अप्रैल 1987 में हुआ।
साहित्यिक कृतियाँ - अज्ञेय जी की साहित्यिक कृतियाँ निम्न हैं
कविता संग्रह - भग्नदूत, चिता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौदे हुए ये, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार आदि।
कहानियाँ - विपथगा, परम्परा, कोठरी की बात, शरणार्थी व जयदोल।
उपन्यास - शखर एक जीवनी (2 भाग) नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।
'कलगी बाजरे' की कविता का सारांश
'कलगी बाजरे की' कविता में अज्ञेय ने कलगी में सौन्दर्य की रचना की है। कवि बाजरे की कलगी के सौन्दर्य की उपमा के लिए नभ की अकेली तारिका या ओस से भीगी हुई चम्पे की कली का प्रयोग नहीं करना चाहता, क्योंकि कवि की दृष्टि में ये उपमान पुराने हो गए हैं। तात्पर्य यही है कि कवि पुरानी परम्पराओं को तोड़कर नई परिपाटी की शुरुआत करना चाहता है।
'कलगी बाजरे की' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
हरि बिछली घास
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता
या शरद के भोर की नीहार न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह हो
व्याख्या - कवि अपनी नायिका से कहता है कि तुम मुझे हरि बिछली घास में डोलती हुई, छरहरी कलगी बाजरे की सी प्रतीत होती हो। कवि कहता है कि मैं तुम्हें साँझ के आकाश में निकले हुए अकेले तारे के समान भी नहीं कहता और न ही मैं तुम्हें शरद ऋतु की सुबह में ओस के कणों से नहाई हुई कुमुदिनी या चम्पे की ताजी कली कहूँगा।
विशेष -
- यहाँ कवि (अज्ञेय) प्रयोग धर्मी है। वह अपनी प्रेयसी के लिए नए उपमान गढ़ना चाहता है।
- उपमा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग।
- मानवीकरण अलंकार का भी प्रयोग।
(2)
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है या कि मेरा मैला है।
बल्कि केवल यहीः ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगीः
तुम्हारे रूप के तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो
तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?
व्याख्या - कवि कहता है कि ऐसी कोई बात नहीं है कि मेरे हृदय में तुम्हारे प्यार के प्रति रुक्षता है या मेरा हृदय बिलकुल बेरंग और सूना है और न ही यह बात है मेरे प्यार में कोई कमी या मैलापन है, बल्कि प्रेमिका के सौन्दर्य को रूपायित करने वाले इन पुराने उपमानों के देवता कूच कर गए हैं अर्थात् अब ये उपमान लम्बे समय से प्रयोग होने के कारण महत्त्वहीन हो गए हैं।
कवि कहता है यदि बर्तनों को अधिक घिसा जाए तो उन पर चढ़ा हुआ मुलम्मा अर्थात् उनकी कलई उतर जाती है। इससे बर्तन बेजान हो जाता है। उसकी चमक खो जाती है, परन्तु हे मेरी प्रेयसी क्या अपने रूप को स्वयं ही नहीं पहचान पाओगी, क्योंकि इसके ज्यादा समीप तो तुम ही हो। तुम्हारे इस रूप का जादू मुझ पर चढ़ा हुआ है। अतः इसी जादू से सम्मोहित होकर अपने किसी गहरे बोध या स्वयं के प्रसार से मैं तुम्हें यह कहूँ कि तुम एक हरी बिछी घास हो या हवा में लहलहाती हुई किसी छरहरे बाजरे की कलगी हो।
विशेष -
- कवि अपनी प्रेयसी के लिए नए उपमान गढ़ रहा है। उसे पुराने उपमानों का प्रयोग करना अब बेइमानी लगता है।
- मानवीकरण अलंकार।
(3)
आज हम शहरातियों को
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फूल से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक बिछली घास है,
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली बाजरे की।
व्याख्या - कवि कहता है कि हमारे जैसे शहरी लोग अपने मालंच अर्थात् घर के बगीचे में साज-सजावट के लिए जूही का फूल उगाते हैं और उस पर मुग्ध होते हैं। कवि कहते हैं कि हम जैसे शहरी लोगों को उस ऐश्वर्य, सच्चे औदार्य, सृष्टि के विस्तार का बोध ही नहीं है, जो हरी बिछली घास में है या फिर शरद ऋतु की सांध्य-वेला में आकाश के रिक्त पृष्ठ पर लहलहाते बाजरे की कलगी में है।।
विशेष -
- यहाँ कवि ने अपने दार्शनिक भाव का परिचय दिया है।
- उपमा अंलकार का प्रयोग।
कलगी बाजरे की कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
- अज्ञेय रचित 'कलगी बाजरे की' कविता 'हरी घास पर क्षण भर संग्रह (1949) से ली गयी है।
- कलगी बाजरे की कविता की रचना कवि ने कलकत्ता में 10 नवम्बर 1949 ई. को की।
- कवि को अपनी प्रेमिका हरी बिछली अर्थात् मुलायम घास के समान सुकोमल दिखायी देती है।
- कवि अपनी प्रेमिका को लालिमा युक्त आकाश की तारिका अथवा शरद के भोर की कुहासा (नीहार) से नहायी हुई कुमुदिनी (कमल) या चम्पे की टटकी (लहकती) हुई कली नहीं कहता ।
- कवि पुराने घिसे-पिटे उपमानों को मैले होने की बात करते हैं।
- पुराने उपमानों के देवता अर्थात् प्रस्तुत करने वाले अब कूच कर गये हैं।
- कवि का मानना है कि बासन (बरतन) अधिक घिस जाये तो उसका मुलम्मा (कलई, रंग) उतर जाता है।
- कवि नये उपमानों की बात करते हुए प्रेयसी से कहते हैं कि क्या इन नये उपमानों से तुम्हारे सौंदर्य का बखान करूँ तो तुम पहचान नहीं पाओगी ?
- बिछली घास को प्यारे का नया प्रतीक एवं नये उपमानों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
- नारी के सुगढ़ छरहरी देहयष्टि की तुलना कलगी बाजरे से की गयी है।
- 'कलगी बाजरे की' कविता का मुख्य प्रतिपाद्य नवीन उपमानों को स्थापित करना है।
अज्ञेय की कविता एवं उनके काव्य संग्रह
Kalgi Bajre Ki kavita MCQ
- बावरा अहेरी
- कितनी नावों में कितनी बार
- हरी घास पर क्षण भर
- आँगन के पार द्वार
- हरी बिछली घास
- ललाती साँझ के नभ की तारिका
- टकी कली चम्पे की
- नीहार न्हाई कुँई
- प्रकृति का उन्मुक्त सौन्दर्य
- कृषि और किसान का भावनात्मक संबंध
- प्रेम की उदात्तता
- परंपरागत उपमानों की प्रभावहीनता नये उपमानों के प्रयोग पर बल।
- बिछली घास
- जूही का फूल
- नभ की अकेली तारिका
- टटकी कली चम्पे की
- उनका हृदय उथला मना है।
- उनका प्यार मैला है।
- उनकी प्रियतमा इन उपमानों से कहीं अधिक सुंदर है।
- ये उपमान मैले होकर अपनी अर्थवत्ता खो चुके हैं।
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