बादल को घिरते देखा है – नागार्जुन | सारांश, भावार्थ व विश्लेषण

'बादल को घिरते देखा है' कविता का सारांश

कवि नागार्जुन एक घुमक्कड़ स्वभाव के थे। वे अपने जीवन में अधिकांशतः यायावर ही बने रहे और बहुत सी यात्राएँ की और जीवन के प्रत्येक चित्र का बहुत ही सूक्ष्मता से अध्ययन किया।

अपनी किसी यात्रा में वे हिमालय की दुर्गम चोटियों पर पहुँच गए और वहाँ की अनुभूति को ग्रहण करके उसे 'बादल को घिरते देखा है' कविता के रूप में स्पष्ट कर दिया। उन्होंने प्रकृति की सूक्ष्म अनुभूतियों को इस कविता में अभिव्यक्त किया है।

वस्तुतः यह प्रसंग इन्होंने अपनी मानसरोवर यात्रा के दौरान लिखा। इसमें 'उन्होंने उस यात्रा की स्मृतियों को अपनी इस कविता में स्थान दिया है। इसमें उन्होंने पहाड़ों की दुर्गम घाटियों में पहुँचने के बाद जो मनोरम दृश्य देखा उसका अतुलनीय वर्णन करते हैं। उन्होंने वहाँ छोटी-छोटी ओस की बूंदों के समान बादलों को देखा अनेक स्वच्छ व कल-कल बहते हुए नदी-झरनों को देखा। उमस और गर्मी से परेशान होकर मानसरोवर में प्रवास करते हुए हंसों को उन्होंने देखा तथा उनकी प्रणय क्रीड़ा का आनन्द लिया। सूर्योदय के पश्चात्-की सौन्दर्यता का वर्णन, पर्वत पहाड़-झरनों की उस समय की शोभा का वर्णन आदि सूक्ष्म रूप से उल्लिखित किया। उन्होंने चकवा-चकवी, जो रात को बिछड़ जाते हैं और दिन में मिल जाते हैं, उस प्रणय मिलन को भी अपनी आँखों से अनुभव किया।

उन्होंने वहाँ कस्तूरी मृग को कस्तूरी की मधुर सुगन्ध के पीछे भागते देखा। कवि कहते हैं उन्होंने मानसरोवर में आकर अलकापुरी और उसके राजा धनपति कुबेर को ढूँढने का प्रयत्न किया, परन्तु वे नहीं मिले और उन बादलों को भी ढूँढने का प्रयास किया जो यक्ष के लिए दूत बनकर उसकी प्रेमिका के पास गए थे, परन्तु वे नहीं मिले।

नागार्जुन कहते हैं या तो वे बादल बरस गए होंगे या ये सभी घटनाएँ (अलकापुरी व दूत आदि बादल) कवि की कपोल कल्पना भी हो सकते हैं, परन्तु जो कुछ भी वहाँ नागार्जुन ने अनुभव किया, वह अद्भुत था, इसलिए कवि ने 'बादल को घिरते देखा है' कविता में उसका साक्षात् वर्णन करने का प्रयत्न किया है।

प्रस्तुत कविता में कवि ने वहाँ के सौन्दर्य और निवासियों का भी वर्णन किया है। यहाँ के लोग देवदार के वनों में भोज पत्रों से बनाकर अपनी कुटियाओं में रहते हैं। वहाँ के निवासी अपने श्रृंगार के लिए विभिन्न दिव्य सुगन्ध वाले फूलों का प्रयोग करते हैं। नागार्जुन कहते हैं कि मैंने यहाँ मृगछाल पर पालथी मारकर बैठे योगियों को भी देखा है और मदिरा के नशे में धुत अपनी कोमल उँगलियों से बंशी बजाते हुए किन्नर-किन्नरियों को भी देखा है।

बादल को घिरते देखा है

'बादल को घिरते देखा है' कविता के कुछ पदों की व्याख्या

(1)

अमल धवल गिरि के शिखरों पर 

बादल को घिरते देखा है। 

छोटे-छोटे मोती जैसे 

उसके शीतल तुहिन कणों को 

ज्ञान सरोवर में उन स्वर्णिम 

कमलों पर गिरते देखा है। 

बादल को घिरते देखा है।


सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की कविता 'बादल को घिरते देखा है' से उधृत हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने हिमालय पर्वत के अनुपम रूप का चित्रण किया है।

व्याख्या - कवि कहता है कि बादलों के स्वरूप को उसने अपनी आँखों से निहारा है। वह कहता है कि हिमालय पर्वत की ऊँची-ऊँची चोटियों पर स्वच्छ निर्मल श्वेत बर्फ के ऊपर घिरते हुए बादलों को उसने स्वयं देखा है। ये बादल मानसरोवर के सुनहरे कमलों पर छोटी-छोटी ओस की बूंदों के समान जब वर्षा कर रहे थे तब वहाँ उसने देखा कि ओस की छोटी-छोटी बूँदें साक्षात मोतियों के समान चमक रही थीं और मानसरोवर के सुन्दर स्वर्ण कमल पुष्पों पर ये मोती के समान गिर रही थीं। आशय यह है कि सुनहरे कमलों पर पड़ी हुई मोती जैसी छोटी-छोटी ओस की बूंदें बादलों की ही देन हैं।

विशेष - कवि ने हिमालय पर्वत तथा बादलों के सुन्दर रूप का वर्णन किया है

  • भाषा- संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली
  • अलंकार - पुनरुक्तिप्रकाश
  • रस- श्रृंगार
  • काव्यगुण - माधुर्य
  • शैली-लयात्मक व प्रवाहपूर्ण
  • छन्द-तुकान्त गेय

(2)

तुंग हिमालय के कन्धों पर 

छोटी बड़ी कई झीलें हैं, 

उनके श्याम-नील सलिल में 

समतल देशों से आ-आकर 

पावस की उमस से आकुल 

तिक्त मधुर बिसतन्तु खोजते 

हंसों को तिरते देखा है। 

बादल को घिरते देखा है।


सन्दर्भ - पूर्ववत 

प्रसंग - इन पंक्तियों में कवि ने हिमालय पर्वत की मनोहर छवि प्रस्तुत की है।

व्याख्या - कवि कहता है कि हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं पर छोटी-बड़ी अनेक झीलें हैं। स्वच्छ एवं निर्मल झीलों के जल पर हिमालय के ऊपर घिरे हुए काले बादलों का प्रतिबिम्ब पड़ने से झीलों का जल श्यामल एवं नीला दिखाई पड़ता है।

इन झीलों के जल को पाकर विचरते हुए हंस कमलनाल के भीतर स्थित कोमल तन्तुओं को खोजते हैं, जो इनको कड़वे व मीठे दोनों ही प्रकार के लगते हैं। उन झीलों के बादलों से प्रतिबिम्बित साँवले-नीले स्वच्छ जल में, समतल मैदानों से हंस, वर्षा ऋतु की उमस भरी गर्मी से मुक्ति पाने के लिए आनन्दपूर्वक तैरने आ जाते हैं। उस अवसर पर बादल भी घिर आते हैं।

विशेष - कवि ने यहाँ प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य का वर्णन किया है।

  • भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली
  • शैली-लयात्मक व चित्रात्मक
  • छन्द-तुकान्ता व गेय
  • अलंकार-अनुप्रास
  • काव्यगुण-माधुर्य

(3)
ऋतु वसन्त का सुप्रभात था
मन्द-मन्द था अनिल बह रहा 
बालारुण की मृदु किरणें थीं।
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो 
अलग-अलग रहकर ही जिनको 
सारी रात बितानी होती 
निशा काल से चिर अभिशापित 
बेबस उस चकवा-चकई का 
बन्द हुआ क्रन्दन, फिर उनमें 
उस महान् सरवर के तीरे 
शैवालों की हरी दरी पर 
प्रणय कलह छिड़ते देखा है। 
बादल को घिरते देखा है।

संदर्भ - पूर्ववत् 

प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने हिमालय की प्राकृतिक सुषमा के साथ-साथ हिमालय पर स्थित सरोवर के किनारे रहने वाले चकवा-चकवी की विरह वेदना का भी वर्णन किया है।

व्याख्या  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने ऋतुओं में सर्वोत्तम ऋतु वसन्त ऋतु का वर्णन किया है, जोकि प्रकृति के सौन्दर्य को अधिक सौन्दर्यपूर्ण बना देती है। वसन्त ऋतु की सुहावनी सुबह थी। धीमी धीमी सुगन्धित वायु चल रही थी। उदित होते सूर्य की सुनहरी किरणें बर्फ से ढकी चोटियों पर पड़ रही थीं, जिसके कारण चोटियों का रंग सुनहरा लग रहा था।

कवि नागार्जुन कहते हैं कि मैंने उस समय उन चकवा-चकवी को भी देखा है, जो किसी पूर्वकालीन शाप के कारण रात्रि में मिल नहीं पाते और एक-दूसरे से दूर रहने के लिए बाध्य होते हैं। एक-दूसरे के वियोग में वे सम्पूर्ण रात्रि विलाप करते हैं, परन्तु प्रातःकाल होते ही, वे एक-दूसरे से मिल जाते हैं।
कवि यहाँ मनुष्य के जीवन में आने वाले दुःखों की ओर भी संकेत करता नज़र आता है, क्योंकि जिस प्रकार चकवा चकवी के जीवन में विरह के बाद मिलन है, ठीक उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी सुख और दुःख के इर्द-गिर्द ही घूमता है।

सम्पूर्ण रात्रि एक-दूसरे से बिछुड़ने से उत्पन्न दुःख व प्रलाप अब उनके मिलने से समाप्त हो गया है। रात भर के वियोग और अब मिलने से मानसरोवर में शैवाल की हरी बिछावनरूपी काई में दोनों की प्रणय-कलह अर्थात् मान-मनोवल शुरू हो गई है, जिसे कवि ने बादलों के घिरने के उपरान्त स्वयं देखा है।

विशेष - कवि ने यहाँ प्रभात के मनोरम दृश्य एवं पक्षी युगल की प्रणय क्रीड़ा का सजीव चित्रण किया है।
  • भाषा-तत्समपरक खड़ी बोली
  • शैली-लयात्मक व प्रवाहपूर्ण
  • छन्द-तुकान्त मुक्त
  • रस-श्रृंगार व शान्त
  • अलंकार-पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास व रूपक

(4)

दुर्गम बर्फानी घाटी में 
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर 
अलख नाभि से उठने वाले 
निज के ही उन्मादक परिमल 
के पीछे धावित हो हो कर 
तरल तरुण कस्तूरी मृग को 
अपने पर चिढ़ते देखा है 
बादल को घिरते देखा है।

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि नागार्जुन ने हिमालय की बर्फानी घाटियों में विचरण करते कस्तूरी मृग का मनमोहक चित्र प्रस्तुत किया है।

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में नागार्जुन कहते हैं कि हिमालय पर्वत की बर्फ से ढकी दुर्गम घाटियों में जहाँ व्यक्ति का पहुँचना कठिन है वहाँ मैंने दुर्गम कठिन ऊँची-ऊँची हिमालय की पहाड़ियों में हिरणों को दौड़ते व विचरण करते हुए देखा है। यह इतना रमणीय चित्र है कि मुझे वे हिरण किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इधर-उधर दौड़ते नज़र आते हैं, जिस

प्रकार मृग की नाभि में कस्तूरी का वास होने के पश्चात् भी वह मृग उस कस्तूरी की सुगन्ध से मोहित होकर उसे प्राप्त करने के लिए इधर-उधर दौड़ने लगता है, परन्तु वह उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता। अपनी उस असफलता के कारण मृग स्वयं पर ही खीझने लगता है, क्योंकि वह उस कस्तूरी तक नहीं पहुँच पाता। यह चित्र कवि के लिए अविस्मरणीय बन पड़ता है। इसके साथ ही कवि ऐसी क्रीड़ा के साथ-साथ बादलों का घिरना भी देखता है। कवि का यहाँ तात्पर्य उन सभी लक्ष्यविहीन मनुष्यों की ओर संकेत करना है, जो सही निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं फिर असफल होने पर स्वयं पर ही खीझ उठते हैं।

विशेष - हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले कस्तूरी मृगों की निश्छलता का अत्यन्त स्वाभाविक वर्णन किया गया है।
  • भाषा-खड़ी बोली
  • शैली-बिम्बात्मक
  • छन्द-तुकान्त गेय
  • रस-श्रृंगार
  • अलंकार-रूपक, उपमा व अनुप्रास
  • काव्यगुण-माधुर्य

(5)

कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका 
नहीं ठिकाना कालिदास के 
व्योम-प्रवाही गंगाजल का, 
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या 
मेघदूत का पता कहीं पर 
कौन बताए वह छायामय 
बरस पड़ा होगा न यहीं पर 
जाने दो, वह कवि-कल्पित था, 
मैंने तो भीषण जाड़ों में 
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर, 
महामेघ को झंझानिल से, 
गरज-गरज भिड़ते देखा है,

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - कवि ने यहाँ सुख-दुःख, समृद्धि और जीवन में आने वाली परिस्थितियों का चित्रण किया है।

व्याख्या - कवि यहाँ प्रकृति के माध्यम से मनुष्य के जीवन में आने वाली सभी प्रकार की कठिनाइयों का वर्णन करता दिखाई देता है। कवि हिमालय पर्वत की चोटियों पर बहुत घूमा, किन्तु उसे न तो कहीं पौराणिक कथाओं में प्रचलित देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर का पता चला और न ही उसकी नगरी अलका का। कवि कहता है कालिदास के 'मेघदूत' में वर्णित वह धनाढ्य कुबेर कहाँ गया? कहाँ गई, उसकी वह अलका नगरी जोकि धन-वैभव, भोग-विलासी नगरी थी। कवि यहाँ प्रकृति के परिवर्तन के माध्यम से संसार की अस्थिरता को वर्णित करता है।
कवि कहता है उसने मेघरूपी दूत को बहुत ढूँढ़ा फिर भी उसके दर्शन नहीं हुए। कहीं ऐसा तो नहीं भ्रमण करने वाला वह मेघ यक्ष तक सन्देश भिजवाने में असमर्थ रहा हो और लज्जावश किसी भी पर्वत पर बरस पड़ा हो। इस प्रकार की भी जानकारी किसी को नहीं है अर्थात् कवि कहता है जाने दो यह कवि की कोरी कल्पनामात्र थी ऐसा यथार्थ में नहीं दिखाई पड़ता।

कवि आगे कहता है कि मैंने तो इस गगनचुम्बी कैलाश पर्वत के शिखर पर, भयंकर सर्दी में भी विशाल आकार के बादलों को हवाओं के साथ गरज-बरसकर संघर्ष करते देखा है।

विशेष - पौराणिक नगरी अलका व देवों के कोषाध्यक्ष कुबेर का उल्लेख कर कवि पाठकों को अन्य कथाओं की ओर आकृष्ट करता है।

  • भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली
  • शैली-प्रतीकात्मक
  • छन्द-तुकान्त व गेय
  • रस-श्रृंगार
  • अलंकार-रूपक व उपमा
(6)

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कानन में, 
शोणित धवल भोज पत्रों से 
छाई हुई कुटी के भीतर 
रंग-बिरंगे और सुगन्धित 
फूलों से कुन्तल को साजे, 
इन्द्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में 
कानों में कुवलय लटकाएँ 
शतदल लाल कमल वेणी में 
रजत-रचित मणि खचित कलामय 
पान पात्र द्राक्षासव पूरित 
रखे सामने अपने-अपने 
लोहित चन्दन की त्रिपटी पर, 
नरम निदाग बाल-कस्तूरी 
मृगछालों पर पलथी मारे 
मदिरारुण आँखों वाले उन 
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की 
मृदुल मनोरम अंगुलियों को 
वंशी पर फिरते देखा है 
बादल को घिरते देखा है।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किन्नर प्रदेश की शोभा का वर्णन किया है। साथ ही सम्पन्न समाज की विलासिता पर व्यंग्य भी किया है।

व्याख्या - कवि नागार्जुन कहते हैं कि वर्षा ऋतु के आने पर आकाश में बादल छा जाते हैं. जिससे किन्नर प्रदेश की शोभा में वृद्धि हो जाती है। सैकड़ों झरनों तथा सरिताओं के बहने से उत्पन्न कल-कल की कर्णप्रिय व माधुर्य ध्वनि देवदार वृक्षों से सजे वन को गुंजायमान कर देती है।

लाल श्वेत भोजपत्रों से बनी कुटियाओं में किन्नर और किन्नरियों के जोड़े इन वनों के बीच में विलासमय क्रीड़ाएँ करते हैं। उन्होंने अपने केशों को विभिन्न सुगन्धित फूलों से सजाया हुआ है। उन्होंने अपने गले में शंख की आकृति वाली इन्द्र नीलमणि की माला धारण की हुई है, जिससे उनकी विलासी प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके साथ-साथ उन्होंने अपने कानों में नीलकमल के फूलों से बने आभूषण पहने हुए हैं। उनकी चोटियों में भी विभिन्न प्रकार के पुष्प गुथे हुए हैं। जिन पात्रों में वे शराब या मदिरापान करते हैं, वे चाँदी के बने हैं तथा वे पात्र विभिन्न प्रकार की मणियों से भी जड़ित हैं और वे उन्हीं पात्रों में मदिरा का सेवन भी करते हैं।
वे जंगली जानवरों या कस्तूरी मृग की छाल को बैठने के लिए प्रयोग करते हैं। उन्हीं मृगों की छालों पर बैठ वे मदिरापान का आनन्द ले रहे हैं। मदिरा सेवन के कारण उन सभी की आँखें लाल हो गई हैं। इसी उन्माद में वह सुमधुर स्वरों में वंशी की तान को छेड़ने लगते हैं। कवि ने हिमालय क्षेत्र के वनों के किन्नर एवं किन्नरियों को मस्ती और जोश से भरे हुए तथा आकाश में बादलों को घिरते देखा है।

विशेष - किन्नर नर-नारियों के सुन्दर साज-सज्जा एवं विलासितापूर्ण जीवन का वर्णन कवि ने किया है।

  • भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली
  • शैली-वर्णनात्मक व विचारात्मक
  • छन्द-तुकान्त युक्त
  • रस-श्रृंगार
  • अलंकार-अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश व उपमा
  • काव्यगुण-माधुर्य

बादल को घिरते देखा है कविता के विशेष तथ्य

  • तुहिन- पाला, कुहरा, ओस
  • कविता में बादल का मानवीकरण किया गया है अतः मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • छोटे-छोटे- में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • कवि नागार्जुन ने हिमाचल की उन्नत घाटी, देवदारु के वन और किन्नर-किन्नरियों की दंतकथाओं को बादल के माध्यम से प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का वर्णन किया है।
  • मेघदूतः यह संस्कृत के महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध खंडकाव्य है, जिसमे नायक यक्ष और नायिका यक्षिणी शाप के कारण अलग रहने के लिए बाध्य हो जाते है। यक्ष मेघ को दूत बनाकर यक्षिणी के लिए संदेश भेजता है। इस कविता में प्रकृति का मनोहारी चित्रण है।
  • इस कविता में बादल का मानवीकरण किया गया है। अतः मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • 'छोटे-छोटे' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग किया गया है।

Badal Ko Ghirte Dekha Hai - Nagarjun MCQ

प्रश्न 1. निम्नलिखित में से कौन-सी रचना नागार्जुन की नहीं है?

  1. प्यासी पथराई आँखें
  2. सतरंगी पंखों वाली
  3. रत्नगर्भा
  4. उर्वशी

उत्तर - 4. उर्वशी


प्रश्न 2. कस्तूरी मृग अपने पर क्यों चिढ़ता है?

  1. उसकी नाभि में कस्तूरी है पर उसे पता नहीं।
  2. उसकी मनोकामनाएँ पूरी नहीं होती।
  3. वह निश्चिंत मन वाला नहीं होता।
  4. भटकना उसकी नियति होती है।

उत्तर - 1. उसकी नाभि में कस्तूरी है पर उसे पता नहीं।


प्रश्न 3. कुबेर कौन था?

  1. देवताओं का वित्त मंत्री
  2. देवताओं का राजा
  3. अलकापुरी का राजा
  4. मेघ को दूत बनाकर भेजने वाला

उत्तर - 3. अलकापुरी का राजा



प्रश्न 4. "जाने दो वह कभी कल्पित था" में जाने दो किसके लिए प्रयोग हुआ है?

  1. कालिदास के मेघदूत के लिए
  2. कस्तूरी मृग के लिए
  3. किन्नर और किन्नरियो के लिए
  4. इनमें से कोई नहीं

उत्तर - 1. कालिदास के मेघदूत के लिए


प्रश्न 5. 'बादल को घिरते देखा है' कविता में किस गुण की प्रधानता है?

  1. बादलों के विविध रूपों के चित्रण की
  2. चित्रमयी भाषा शैली की
  3. तत्सम शब्दावली की
  4. हिमालय के सुंदरवन वासियों के वर्णन की

उत्तर - 2. चित्रमयी भाषा शैली की



प्रश्न 6. शंख सरीखे सुघड़ गलों में प्रयुक्त अलंकार का नाम लिखिए।

  1. रूपक
  2. उपमा
  3. श्लेष
  4. वक्रोक्ति

उत्तर - 2. उपमा


प्रश्न 7. कालिदास ने मेघों के माध्यम से क्या संदेश भेजा था?

  1. विरह व्यथित
  2. संयोग
  3. मिलन
  4. इनमें कोई नहीं

उत्तर - 1. विरह व्यथित



प्रश्न 8. 'बादल को घिरते देखा' है कविता में कवि ने बादल के किस रूप का चित्रण किया है?

  1. सुंदर रूप का
  2. कोमल रूप का
  3. कठोर रूप का
  4. (2) और (3) दोनों

उत्तर - 4. (2) और (3) दोनों

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