हिंदी उपन्यास का उद्भव एवं विकास | इतिहास, प्रकार और प्रमुख लेखक

उपन्यास का उद्भव यूरोप में रोमाण्टिक (प्रेम प्रसंगयुक्त) कथा साहित्य में हुआ, जो मूलतः भारतीय प्रेमाख्यानों से प्रेरित था। हिन्दी में उपन्यास का आविर्भाव 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ। 'परीक्षा गुरु' (1882 ई.) को हिन्दी के प्रथम मौलिक उपन्यास के रूप में माना जाता है।

    भारतीय उपन्यास की अवधारणा

    आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उपन्यासों के प्रचलन, विकास व सृजन का श्रेय पाश्चात्य देशों के लेखकों को प्राप्त है। हिन्दी में उपन्यास लेखन की परम्परा का आरम्भ अंग्रेज़ी व बंगला उपन्यासों से माना जाता है। हिन्दी से पहले बंगला में उपन्यास लिखे जाते थे। बंगला के अनेक उपन्यासकार रहे हैं, जिन्होंने हिन्दी उपन्यास साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला है। इनमें बंकिमचन्द्र चटर्जी, शरतचन्द्र च‌ट्टोपाध्याय, रबीन्द्रनाथ टैगोर आदि प्रमुख हैं। हिन्दी उपन्यास का आविर्भाव 19वीं शती के अन्तिम चरण में हुआ था।

    हिंदी का प्रथम उपन्यास 

    हिन्दी में प्रथम उपन्यास को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं, विद्वानों द्वारा अलग-अलग उपन्यासों को प्रथम उपन्यास माना गया है

    • श्री शिवनारायण श्रीवास्तव ने इंशा अल्ला खाँ कृत 'रानी केतकी की कहानी' (1803 ई.) को हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना है।
    • डॉ. गोपालराय ने पण्डित गौरीदत्त द्वारा रचित 'देवरानी जेठानी की कहानी' (1870 ई.) को हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना है।
    • डॉ. विजयशंकर मल्ल ने श्रद्धाराम फुल्लौरी द्वारा रचित 'भाग्यवती' (1877 ई.) को हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना है।
    • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं अन्य अधिकतर विद्वानों ने लाला श्रीनिवासदास के 'परीक्षा गुरु' (1882 ई.) को हिन्दी का सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास माना है।
    • डॉ. श्रीकृष्ण लाल ने देवकीनन्दन खत्री द्वारा रचित 'चन्द्रकान्ता' (1888 ई.) को हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना है।
    • आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारतेन्दु द्वारा रचित 'पूर्णप्रकाश चन्द्रप्रभा' (1889 ई.) को हिन्दी का प्रथम विन्यास माना है।
    • शुक्ल के मत को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त होने के कारण 'परीक्षा गुरु' को ही हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना कता है।
    हिंदी उपन्यास का इतिहास

    हिन्दी उपन्यास का विकास

    हिन्दी उपन्यास के विकास क्रम को निम्न तीन भागों में बाँटा गया है

    1. प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास

    2. प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी उपन्यास

    3. प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास

    प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास

    प्रेमचन्द पूर्व युग को हिन्दी उपन्यास के विकास का आरम्भिक काल माना जाता है। उपन्यास विधा इस युग में अपना स्वरूप ग्रहण करने का प्रयास कर रही थी। प्रेमचन्द पूर्व उपन्यास, उपदेशात्मक तथा मनोरंजनात्मक प्रवृत्ति से परिचालित थे। प्रेमचन्द पूर्व उपन्यासों को निम्न चार वर्गों में बाँटा जा सकता है

    (i) तिलस्मी अय्यारी उपन्यास
    (ii) जासूसी उपन्यास
    (iii) ऐतिहासिक उपन्यास
    (iv) सामाजिक उपन्यास
    (i) तिलस्मी अय्यारी उपन्यास

    (i) तिलस्मी अय्यारी उपन्यास

    देवकीनन्दन खत्री से (तिलस्मी अय्यारी) उपन्यास की शुरुआत मानी जाती है। इन्होंने तिलस्मी अय्यारी (जादू-टोने से सम्बन्धित) उपन्यासों की रचना करके पाठकों का मनोरंजन किया और साथ ही यह भी माना जाता है कि इनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए बहुत से अहिन्दी भाषियों ने हिन्दी भी सीखी। इनके लिखे प्रसिद्ध उपन्यास चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ, काजल की कोठरी, कुसुम कुमारी, नरेन्द्र मोहिनी तथा वीरेन्द्र वीर आदि हैं।

    खत्री जी ने अपने उपन्यासों में घटनाओं का संयोजन इस प्रकार किया है कि पाठक के मन में अन्त तक जिज्ञासा बनी रहती है। खत्री जी के उपन्यास साहित्यिक दृष्टि से भले ही उच्चकोटि के न हों, किन्तु उनके उपन्यासों का पाठक को अन्त तक बाँधे रखने तथा उनका भरपूर मनोरंजन करने में महत्त्वपूर्ण

    (ii) जासूसी उपन्यास

    बाबू गोपालराम गहमरी से जासूसी उपन्यासों की धारा प्रारम्भ हुई। गहमरी जी अंग्रेज़ी के जासूसी उपन्यासकार ऑर्थर कानन डायल से प्रभावित थे। इनके प्रसिद्ध उपन्यास अद्भुत लाश (1896), सरकटी लाश (1900), जासूस की भूल (1901), जासूस पर जासूस (1904) आदि हैं।

    इन उपन्यासों में भी घटना की प्रधानता थी। सामान्यतः ऐसे उपन्यासों का आरम्भ किसी हत्या अथवा लावारिस लाश की छानबीन से होता था। इन उपन्यासों में सामाजिक सीख अथवा उपदेशात्मकता की कोई गुंजाइश (स्थान) नहीं थी।

    किशोरीलाल गोस्वामी का नाम भी जासूसी उपन्यासकारों में उल्लेखनीय है। किशोरीलाल गोस्वामी कृत जासूसी उपन्यास जिन्दे की लाश, तिलस्मी शीश महल, लीलावती, याकूत तख्ती आदि हैं।

    (iii) ऐतिहासिक उपन्यास

    ऐतिहासिक उपन्यासों का सम्बन्ध भारतीय अतीत की गौरवगाथा से रहा है। इस धारा के उपन्यासकारों पर पुनरोत्थानवादी चेतना का विशेष प्रभाव था। किशोरीलाल गोस्वामी और गंगाप्रसाद गुप्त की विशेष भूमिका ऐतिहासिक पात्रों को आधार बनाकर राष्ट्रीय सामाजिक जागरण का प्रयास करने वाले

    किशोरीलाल गोस्वामी कृत ऐतिहासिक उपन्यास हैं- सुल्ताना रजिया बेगम व रंगमहल में हलाहल (1904), मल्लिका देवी या बंग-सरोजिनी (1905), लखनऊ की कब्र व शाही महलसरा (1917) आदि हैं। 

    गंगाप्रसाद गुप्त के ऐतिहासिक उपन्यास नूरजहाँ (1902), सिंह सेनापति, हम्मीर (1903) आदि है।

    (iv) सामाजिक उपन्यास

    सामाजिक उपन्यासों में नैतिकता तथा सोद्देश्यपरकता की स्पष्ट झलक देखी गई। लज्जाराम शर्मा, किशोरीलाल गोस्वामी, अयोध्यासिंह उपाध्याय और ठाकुर जगमोहन सिंह इस धारा के प्रमुख उपन्यासकार रहे। लज्जाराम शर्मा के आदर्श दम्पति (1904), बिगड़े का सुधार अथवा सती सुखदेवी (1907) और आदर्श हिन्दू (1914) उपन्यासों का विशेष महत्त्व है।

    किशोरीलाल गोस्वामी के लीलावती व आदर्श सती (1901) चपला व नव्य समाज (1903-1904), पुनर्जन्म व सौतिया डाह (1907), माधवी माधव व मदन मोहिनी (1903-1910) और अँगूठी का नगीना (1918) उपन्यासों को विशेष ख्याति प्राप्त हुई थी।

    अयोध्यासिंह उपाध्याय का अधखिला फूल (1907), ठेठ हिन्दी का ठाठ (1899) प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह के श्यामास्वप्न (1889) उपन्यास ने भी विशेष ख्याति प्राप्त की।

    प्रेमचन्द पूर्व उपन्यासों में भारतीय तथा पश्चिमी संस्कृति को आमने-सामने रखकर भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम पक्षों को उ‌द्घाटित करने का प्रयास किया गया। हिन्दू जाति की नैतिकता तथा नारी जाति के सतीत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया है। भारतीय नारीत्व के मूल्यों को बचाने का प्रयास ही नहीं, बल्कि पश्चिमी अन्धानुकरण के दुष्परिणामों को उभारने का प्रयास भी इन उपन्यासों में दिखाई देता है।

    संक्षेप में कहा जा सकता है कि इस युग के उपन्यास प्रधानतः सुधारवादी एवं उपदेशात्मक वृत्ति को लेकर लिखे गए हैं, जिनका उद्देश्य मनोरंजन करना था। साथ ही प्रेमचन्दयुगीन उपन्यासों के लिए इस युग के उपन्यासों ने पृष्ठभूमि तैयार की है।

    प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी उपन्यास

    प्रेमचन्दयुगीन उपन्यास लेखन में प्रेमचन्द जी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है, उन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी अय्यारी से बाहर निकालकर उसे वास्तविक भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन-साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है। समाज में नारी जीवन की यन्त्रणा, बेमेल विवाह, प्रदर्शनप्रियता, शोषण और जाति-पाँति, छुआछूत की घृणित परम्परा आदि को इन्होंने नैतिकतावादी चश्मे से देखने का प्रयास किया है। उन्होंने दहेज प्रथा, बेमेल विवाह आदि से उत्पन्न वैधव्य जीवन व वेश्यावृत्ति को समाज में जघन्य (घृणित) अपराध के रूप में देखा है।

    प्रेमचन्दयुगीन समकालीन उपन्यासकार

    प्रेमचन्दयुगीन समकालीन उपन्यासकारों में जयशंकर प्रसाद, विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक', आचार्य चतुरसेन शास्त्री, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र', वृन्दावन लाल वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' आदि प्रमुख हैं, जिनका वर्णन निम्न है

    जयशंकर प्रसाद

    प्रसाद जी ने दो प्रमुख उपन्यास कंकाल (1929) व तितली (1934) की रचना की है। 'इरावती' इनका अधूरा उपन्यास था, जिसे वे अकाल मृत्यु के कारण पूरा नहीं कर सके।

    'कंकाल' में प्रसाद जी ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल दिया है, जबकि 'तितली' में उन्होंने प्रेम के आदर्श स्वरूप तथा ग्रामीण समस्याओं का चित्रण किया है।

    विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक'

    प्रेमचन्द के अन्य समकालीन उपन्यासकारों में विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' के उपन्यास 'भिखारिणी' और 'माँ' सम्मिलित हैं।

    भिखारिणी में उन्होंने 'अन्तर्जातीय विवाह' की समस्या को उठाया है। उन्होंने 'माँ' उपन्यास में यह दिखाया है कि माँ की ममता, त्याग और विवेकपूर्ण देख-रेख पर ही बालक का सर्वांगीण विकास निर्भर है।

    आचार्य चतुरसेन शास्त्री

    आचार्य चतुरसेन शास्त्री एक प्रतिभा सम्पन्न उपन्यासकार थे। वैशाली की नगरवधू, सोना और खून, सोमनाथ, वयं रक्षामः आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। 'वैशाली की नगरवधू' उनका एक प्रसिद्ध उपन्यास है, जिसमें वासुदेव, महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध सभी एक साथ उपस्थित हैं।

    उपन्यास 'सोना और खून' सिपाही विद्रोह से लेकर भारतीय इतिहास के एक विशाल अंश को प्रस्तुत करता है। 'सोमनाथ' ऐतिहासिक कथा को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। 'वयं रक्षामः प्राचीन युग की पृष्ठभूमि पर आधारित एक महान् मौलिक उपन्यास है।

    प्रतापनारायण श्रीवास्तव

    यह भी आदर्शवादी परम्परा के उपन्यासकार है। इन्होंने विदा, विजय, विकास, बेकसी का मजार, विसर्जन, वेदना आदि उपन्यास लिखे हैं। 'बेकसी का मजार' एक ऐतिहासिक उपन्यास है तथा शेष सभी उपन्यास सामाजिक वर्ग के उपन्यास हैं।

    श्रीवास्तव जी ने अपने उपन्यासों में उच्च वर्ग के आधुनिक जीवन का चित्रण करते हुए दिखाया है कि किस प्रकार हम आज अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण कर रहे हैं।

    श्रीवास्तव जी राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति बहुत जागरूक लेखक रहे हैं।

    पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

    इन्होंने अपने उपन्यासों में समाज की विभिन्न समस्याओं को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। इन्होंने सभ्य समाज की भीतरी दुर्बलताओं, अनीतियों और घृणित प्रवृत्तियों का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। इन्होंने अपने उपन्यासों की कथावस्तु का आधार वेश्या वर्ग को बनाया।

    इनके प्रमुख उपन्यास चन्द हसीनों के खतूत, घण्टा, दिल्ली का दलाल, शराबी, कढ़ी में कोयला, फागुन के दिन चार, जीजीजी आदि हैं।

    वृन्दावनलाल वर्मा

    ये ऐतिहासिक उपन्यासकार माने जाते हैं। गढ़ कुण्डार, विराटा की प‌द्मिनी, झाँसी की रानी, मृगनयनी, टूटे काँटे, माधो जी सिन्धिया आदि इनके ऐतिहासिक उपन्यास हैं, जबकि संगम, लगन, प्रत्यागत और कुण्डली चक्र इनके सामाजिक उपन्यासों की श्रेणी में आते हैं।

    सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

    छायावादी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने भी उपन्यासों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनके उपन्यासों में भावुकता एवं काव्यात्मकता का समावेश हुआ है। इन्होंने नारी समस्या की यथार्थता का चित्रण किया है। इनके प्रमुख उपन्यास अप्सरा (1931), अलका (1933), निरूपमा (1936), प्रभावती (1936) हैं।

    प्रेमचन्दयुगीन उपन्यासों में विविधता एवं शिल्पगत नवीनता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इन उपन्यासों में सामाजिक समस्याओं को चित्रित किया गया है। इनके ऐतिहासिक उपन्यासों में मनोरंजन का पुट भी मिलता है

    प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यास

    प्रेमचन्द जी के बाद के उपन्यासों को विषय की दृष्टि से हम निम्न पाँच भागों में इगणोंकृत कर सकते हैं

    1. मनोविश्लेषणवादी उपन्यास
    2. प्रगतिवादी/मार्क्सवादी उपन्यास
    3. ऐतिहासिक उपन्यास
    4. आँचलिक उपन्यास
    5. प्रयोगवादी उपन्यास

    मनोविश्लेषणवादी उपन्यास

    हिन्दी के अनेक उपन्यासकारों ने अपनी कृतियों में आधुनिक मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों के आधार पर अपने पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों विशेषतः यौन वृत्तियों, दमित वासनाओं, कुण्ठाओं, ग्रन्थियों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जिन्हें इस परम्परा में स्थान दिया जा सकता है। इनमें जैनेन्द्र कुमार ने 'परख', 'सुनीता', 'त्याग-पत्र', 'कल्याणी', 'सुखदा', 'विवर्त', 'व्यतीत', 'जयवर्द्धन' आदि उपन्यासों की रचना की है, इनके उपन्यासों में विभिन्न पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों एवं अन्तर्द्वन्द्व का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म रूप में हुआ है।

    सामान्यतः इनके उपन्यासों में नारी और पुरुष के पारस्परिक आकर्षण का चित्रण हुआ है, किन्तु इनकी नारियाँ पुरुष पात्रों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली एवं सशक्त दृष्टिगोचर होती हैं। इसलिए इनके उपन्यासों को नायिका प्रधान भी कहा जाता है।

    जैनेन्द्र जी के पात्र, स्वयं कई बार लेखक की ही भाँति अत्यधिक अस्पष्ट, अस्वाभाविक एवं विचित्र हो जाते हैं। अतः उनकी भावनाओं के साथ ही सभी परिस्थितियों में तादात्म्य नहीं हो पाता। इनके 'सुनीता' उपन्यास में श्रीकान्त अपनी पत्नी को अपने मित्र के साथ अकेले छोड़कर कुछ दिनों के लिए बाहर चला जाता है ताकि दोनों में घनिष्ठता बढ़ सके।

    इलाचन्द्र जोशी ने 'लज्जा', 'संन्यासी', 'पर्दे की रानी', 'प्रेत और छाया', 'निर्वासित', 'मुक्ति पथ', 'जिप्सी', 'सुबह के भूले', 'जहाज का पंछी' आदि उपन्यासों की रचना की है, जिनमें फ्रॉयड, एडलर, युंग आदि मनोविश्लेषणकर्ताओं के सिद्धान्तों के आधार पर काम, अहं, दम्भ (अक्खड़पन), आत्महीनता की ग्रन्थि आदि के विभिन्न रूपों का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म, यथार्थ एवं सजीव रूप में हुआ है।

    उपन्यास 'लज्जा' में आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवती की काम-चेष्टाओं का मनोविश्लेषण किया गया है। संन्यासी आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है। 'पर्दे की रानी' उपन्यास में नायिका 'निरंजना' खूंनी पिता और वेश्या (माँ) की पुत्री है, इससे उसमें हीन भावना उत्पन्न हो जाती है। 'जहाज का पंछी' उपन्यास का नायक एक शिक्षित नवयुवक है। वह कलकत्ता में काम की तलाश में भटकता है।

    सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने भी अपने उपन्यासों में 'शेखर : एक जीवनी', 'नदी के द्वीप', 'अपने-अपने अजनबी' में यौन प्रवृत्तियों का चित्रण किया है, जो कहीं-कहीं अत्यधिक अस्वाभाविक एवं असामाजिक भी हो सकता है। इसलिए उनकी कृतियों की प्रारम्भ में पर्याप्त निन्दा हुई। 'शेखरः एक जीवनी' वैयक्तिक मनोविज्ञान के अध्ययन के क्षेत्र में एक महती उपलब्धि मानी जा सकती है। यह फ्लैश बैक शैली में लिखा गया है। 'नदी के द्वीप' में अज्ञेय का व्यक्तिवादी जीवन-दर्शन व्यक्त हुआ है। उपन्यास अपने-अपने अजनबी में अज्ञेय ने 'मृत्यु से साक्षात्कार' को उपन्यास का विषय बनाकर मानव जीवन और उसकी नियति का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया है।

    प्रगतिवादी/मार्क्सवादी उपन्यास

    प्रगतिवादी परम्परा के उपन्यासकारों में यशपाल, भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतलाल नागर आदि सम्मिलित हैं। इन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से वर्तमान पूँजीवादी सभ्यता के दोषों, शोषक वर्ग के अत्याचारों, आर्थिक विषमता के दुष्परिणामों, शोषित वर्ग की दयनीय स्थितियों तथा समाज की यथार्थ परिस्थितियों के अंकन के उद्देश्य से उपन्यासों की रचना की है।

    यशपाल जी का 'झूठा सच' (1960) सर्वोत्कृष्ट उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास में वर्ष 1947 के भारत विभाजन की घटना को आधार बनाकर साम्प्रदायिक दंगे, अत्याचार, बलात्कार की घटनाएँ तथा शरणार्थियों के जीवन की कठिनाइयों तथा कांग्रेसी सरकार की नीतियों का यथावत् चित्रण किया गया है।

    यशपाल जी ने 'दादा कामरेड' में विभिन्न राजनीतिक आन्दोलनों तथा नेताओं के चरित्र का अंकन करते हुए अप्रत्यक्ष रूप में अपने युग की तीन राजनीतिक विचारधाराओं - गांधीवाद, आतंकवाद और साम्यवाद की आलोचना प्रस्तुत की है। वस्तुतः यशपाल जी के सभी उपन्यासों में उनका प्रगतिवादी दृष्टिकोण एवं समाजवादी जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण में वे गहरा विश्वास रखते हैं तथा इसी उद्देश्य से उन्होंने अपनी रचनाओं में पूँजीवादी शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध असन्तोष व विद्रोह की भावना उद्दीप्त की है।

    भैरवप्रसाद गुप्त जी ने 'मशाल' (1951), 'गंगा मैया' (1953), 'सती मैया का चौरा, उपन्यासों में प्रगतिवादी दृष्टिकोण से किसानों और मजदूरों के जीवन का चित्रण करते हुए शोषित वर्ग की अनुभूतियों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति की है।

    अमृतलाल नागर के उपन्यास सेठ बाँकेमल, अमृत और विष, बूँद और समुद्र, महाकाल, शतरंज के मोहरें, सुहाग के नूपुर, मानस का हंस, खंजन नयन आदि हैं। 'अमृत और विष' उपन्यास में कथानक को एक सम्पादक के जीवन से सम्बद्ध करके तत्कालीन जीवन की जटिलताओं को चित्रित किया गया है। 'बूँद और समुद्र' उनका श्रेष्ठतम उपन्यास है, जिसमें भारतीय समाज की रीति-नीति, आचार-विचार, जीवन दृष्टि आदि का चित्रण कथानक के द्वारा किया गया है।

    'मानस का हंस' अमृतलाल नागर का जीवनीपरक उपन्यास है, जिसमें गोस्वामी तुलसीदास का जीवन वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है। 'खंजन नयन' में सूर के जीवन को कथानक के रूप में बाँधकर सूर की जीवनी देने का प्रयास किया गया है।

    ऐतिहासिक उपन्यास

    ऐतिहासिक उपन्यासकारों में बाबू वृन्दावनलाल वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव आदि प्रमुख हैं।

    वृन्दावन लाल वर्मा ने सामाजिक उपन्यास भी लिखे हैं, पर उनकी ख्याति 'विराटा की पद्मिनी', 'झाँसी की रानी', 'कचनार', 'मृगनयनी', 'अहिल्याबाई', 'माधोजी सिन्धिया' आदि ऐतिहासिक उपन्यासों से अधिक हुई है।

    आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' (1946) तथा 'चारुचन्द्र लेख' (1962) दोनों उपन्यासों में छठी-सातवीं शती में पतनोन्मुखी भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म एवं सजीव रूप से हुआ है।

    राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास 'सिंह सेनापति' (1944), 'जय यौधेय' (1944) आदि हैं।

    'सिंह सेनापति' और 'जय यौधेय' राहुल जी के प्रमुख ऐतिहासिक उपन्यास हैं, जिनमें क्रमशः लिच्छवि गण और यौधेय गण के संघर्ष चित्रित हैं।

    रांगेय राघव के उपन्यास मुर्दों का टीला (1948), अँधेरे के जुगनू (1953), यशोधरा जीत गई (1954) आदि हैं।

    राघव जी ने 'मुर्दों का टीला' में मोहनजोदड़ो के समय की सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं वातावरण का चित्रण किया है। 'अँधेरे के जुगनू' में महाभारत काल का एवं 'यशोधरा जीत गई' में बौद्ध युग का चित्रण किया गया है।

    आँचलिक उपन्यास

    आँचलिक उपन्यासों की परम्परा का विकास वर्ष 1950 के बाद हुआ। 'आँचलिक' संज्ञा का आविष्कार फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा उनके उपन्यास 'मैला आँचल' (1954) की भूमिका में हुआ, परन्तु इस परम्परा का सूत्रपात नागार्जुन के उपन्यासों से हो चुका था।

    नागार्जुन के उपन्यास रतिनाथ की चाची (1948), बलचनमा (1952), नई पौध (1953), बाबा बटेसरनाथ (1954), वरुण के बेटे (1957) आदि हैं।

    नागार्जुन का 'मार्क्सवादी दृष्टिकोण' गाँव की थीम पर आरोपित प्रतीत होता है। उनके उपन्यासों में कथानक स्वयं विकसित न होकर पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार चलते हैं, जिसके फलस्वरूप उपन्यासों की सृजनात्मकता शिथिल और अवरुद्ध हो गई है।

    'रतिनाथ की चाची' उपन्यास मिथिला के जन-जीवन की कथा को चित्रित करता है। 'बलचनमा' एक गरीब किसान के बेटे बलचनमा की दुःख-दर्द भरी कहानी है। 'नई पौध' उपन्यास में मिथिला के सौराठ मेले के द्वारा बेमेल विवाह को दर्शाया गया है। 'वरुण के बेटे' उपन्यास में मिथिला के मछुआरों के जीवन को चित्रित किया गया है।

    फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल (1954), परती परिकथा (1957) आदि हैं। 'मैला आँचल' में रेणु जी ने किसान-जमींदार संघर्ष तथा राजनीतिक आन्दोलनों का चित्रण किया है। 'परती परिकथा' में भी जमींदारी प्रथा के अन्त, नए बन्दोबस्त, भूमिदान, ग्रामीण नेताओं के अभ्युदय, नेताओं की स्वार्थ परायणता, राजनीतिक पार्टियों की धाँधली आदि का चित्रण हुआ है।

    अन्य आँचलिक उपन्यासकार और उनके उपन्यास

    S.No. उपन्यासकार उपन्यास
    1 उदयशंकर भट्ट सागर लहरें और मनुष्य
    2 राही मासूम रज़ा आधा गाँव
    3 शिवप्रसाद सिंह अलग-अलग वैतरणी
    4 रामदरश मिश्र पानी के प्राचीर
    5 विवेकी राय बबूल
    6 राजेन्द्र अवस्थी जंगल के फूल
    7 हिमांशु श्रीवास्तव रथ के पहिए

    प्रयोगवादी उपन्यास

    प्रयोगवादी परम्परा के लेखकों में मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, नरेश मेहता, शिवप्रसाद मिश्र, गिरिधर गोपाल, निर्मल वर्मा, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा आदि सम्मिलित हैं।

    आधुनिक हिन्दी उपन्यासों की नवीनतम धारा को प्रयोगवादी उपन्यास कहा जा सकता है। मानव औद्योगीकरण, बदलते परिवेश, भ्रष्टाचार, कुण्ठा, तनाव, महानगरीय जीवन, अकेलापन, असुरक्षा की भावना से त्रस्त है। उपन्यासकारों की दृष्टि इस ओर पड़ी तो उन्होंने अपने उपन्यासों में इसे अभिव्यक्ति दी।

    मोहन राकेश के उपन्यास 'अँधेरे बन्द कमरे' (1961) तथा 'न आने वाला कल' (1968) ऐसे ही उपन्यास हैं।

    राजेन्द्र यादव व मन्नू भण्डारी के संयुक्त प्रयासों से 'एक इंच मुस्कान' उपन्यास लिखा गया। इसमें खण्डित व्यक्तित्व वाले आधुनिक व्यक्तियों की प्रेम ट्रेजेडी को चित्रित किया गया है। मन्नू भण्डारी के 'आपका बंटी' उपन्यास में साथ-साथ रह रहे युवक-युवती से उत्पन्न सन्तान, बाद में उनका तलाक होने पर बच्चे पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का चित्रण हुआ है। 'तमस' में भीष्म साहनी ने विभाजन में कुत्सित मानसिकता वाले लोगों (जिन्होंने विभाजन के दौरान लाभ उठाया) को चित्रित किया है। जोशी जी ने 'कुरु कुरु स्वाहा' में युवा पीढ़ी की दिशाहीनता को प्रदर्शित किया है।

    प्रयोगवादी उपन्यासों में नए-नए कथानकों व शिल्पों का प्रयोग हुआ है। गिरिधर गोपाल के उपन्यास 'चाँदनी के खण्डहर' में नवीन शिल्प दृष्टि का प्रयोग हुआ है। आधुनिक उपन्यासों में शैली के साथ-साथ नए विषय लिए गए हैं। मानवीय सम्बन्धों के बदलते रूप को इन उपन्यासों में अभिव्यक्ति दी गई है। हिन्दी उपन्यास ने कम समय में आशातीत उपलब्धि प्राप्त की है। हिन्दी उपन्यास का भविष्य अभी सुनहरा है।

    हिंदी उपन्यास का विकास

    प्रयोगवादी परम्परा के उपन्यासकार व उनके उपन्यास

    S.No. उपन्यासकार उपन्यास
    1 राजेन्द्र यादव उखड़े हुए लोग
    2 मन्नू भण्डारी आपका बंटी
    3 नरेश मेहता यह पथ बन्धु था
    4 निर्मल वर्मा वे दिन, लालटीन की छत, एक चिथड़ा सुख
    5 उषा प्रियंवदा रुकोगी नहीं राधिका, पचपन खम्भे लाल दीवारें
    6 भीष्म साहनी तमस
    7 मनोहर श्याम जोशी कुरु कुरु स्वाहा
    8 धर्मवीर भारती सूरज का सातवाँ घोड़ा
    9 गिरिधर गोपाल चाँदनी के खण्डहर
    10 राजकमल चौधरी मछली मर गई
    11 सुरेन्द्र वर्मा मुझे चाँद चाहिए


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