खुरदरे पैर – नागार्जुन की कविता | सारांश, विश्लेषण और विशेषताएँ

'खुरदरे-पैर' कविता का सारांश

'खुरदरे पैर' नागार्जुन जी की मार्मिक अभिव्यक्ति है। जिसमें नागार्जुन जी का झुकाव अपने गम्भीर सामाजिक चेतना और शोषित व उत्पीड़ित जनता के प्रति है। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज की विभिन्न विसंगतियों का विश्लेषण किया है तथा उनका विरोध किया है। प्रस्तुत कविता में एक रिक्शे वाले मजदूर के पैरों की फटी बिवाइयों का वर्णन नागार्जुन द्वारा किया गया है, जिसने उनके हृदय को द्रवित कर दिया। नागार्जुन जी रिक्शे वाले की कठोर जीवन शैली से आहत हैं।

यहाँ कवि ने एक व्यंग्य पूर्ण बिम्ब खींचा है, जो संवेदनशीलता की चरमसीमा का परिचायक है। कविता से ज्ञात होता है कि कवि निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति रखता है तथा उनकी मुश्किलों, समस्याओं के प्रति अपनी संवदेना रखता है। रिक्शे वाले को बिना रबड़ के पैडलों पर पैर चलाते हुए देखकर नागार्जुन के अन्दर पीड़ा का संचार हो जाता है और वे उसकी कर्मण्यता को भगवान् वामन के पैरों से भी बढ़कर बताते हैं। उनका मर्मस्पर्शी हृदय कहता है कि वे उस बेचारे रिक्शा-मजदूर के फटे हुए पैरों को कभी नहीं भूल पाएंगे।

खुरदरे पैर कविता


'खुरदरे पैर' कविता के कुछ पदों की व्याख्या

खूब गए
दुधिया निगाहों में 
फटी बिवाइयों वाले खुरदरे पैर 
धँस गए
कुसुम-कोमल मन में 
गुट्ठल घ‌ट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर 
दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूंठ पैडलों को 
चला रहे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र 
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने 
पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला 
घण्टों के हिसाब से ढोए जा रहे थे।
देर तक टकराए
उस दिन इस आँखों से वे पैर 
भूल नहीं पाऊँगा फटी बिवाइयाँ 
खूब गई दुधिया निगाहों में 
धंस गई कुसुम-कोमल मन में

व्याख्या - नागार्जुन की प्रस्तुत कविता खुरदरे पैर में नागार्जुन का झुकाव अपनी गहन सामाजिक चेतना और शोषित व उत्पीड़ित जनता के प्रति गहरी सहानुभूति के कारण ही मार्क्सवादी चिंतन की ओर गया। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज की विषमताओं पर कुठराघात किया है। इस कविता में कवि ने किसान मजदूर जनता के पैरों की बिवाइयों का वर्णन किया है, जिसने उनके संवेदनशील हृदय को झकझोर दिया।

नागार्जुन उनकी कठोर जीवनशैली से द्रवित हो उठे हैं। इस कविता में एक ही बिम्ब से व्यंग्य की अभिव्यक्ति कवि के मन को संवेदनशीलता के उच्च शिखर पर ले जाती है। कवि को समाज के निम्न वर्ग से भी अत्यन्त लगाव था। यह कविता एक ऐसे रिक्शे वाले की है, जो अपनी रोजी रोटी के लिए चला जा रहा है। उसके रिक्शा के पैण्डल भी बिना रबड़ वाले हैं, जिस पर उसके फटे बिवाई वाले पैर विष्णु अवतारी वामन की तरह तीन पहियों की रिक्शा खींच रहे हैं अर्थात् जिस प्रकार तीन पग में वामन ने पूरी पृथ्वी माप ली थी, उसी प्रकार उसकी (रिक्शा वाले की) तीन पहियों वाली रिक्शा को खींचने वाले फटे बिवाई युक्त पैर अपनी आजीविका कमाने के लिए लगातार धरती को नापते रहते हैं। यहाँ कवि उन बिवाई युक्त पैरों को भूल नहीं पाएँगे। कवि के फूल जैसे कोमल मन में वे बिवाई युक्त पैर समृति बनकर छप से गए हैं।

विशेष - 

  • कवि की दीन-हीन गरीबों के प्रति संवेदनशीलता इस कविता में प्रकट हुई है।
  • कवि ने रिक्शा वाले के फटे बिवाई वाले खुरदरे पैरों को वामन भगवान के पैरों से बढ़कर बताया है।
  • "धंस गई कुसुम-कोमल मन" में पंक्ति में उपमा अलंकार।
  • अतुकान्त कविता।

खुरदरे पैर कविता के महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

  1. 1957 में रचित और 'सतरंगे पंखों वाली' (1959) कविता-संग्रह में संकलित कविता ।
  2. कवि की साईकिल पर बोझा ढोने वाले एक श्रमजीवी आदमी के पसीना बहाकर पेट पालने के प्रति संवेदनात्मक अभिव्यक्ति ।
  3. दूधिया निगाहों और कुसुम-कोमल मन के खुरदरे फटी बिवाइयों वात पैरों पर मुग्ध होने का चित्रण।
  4. कवि का संकेत कि आकर्षण केवल सौंदर्य में ही नहीं होता अपितु परिश्रम में भी सौंदर्य होता है।
  5. इस कविता में कवि ने शोषित-पीडित जनता के प्रति सहानुभूति व्‍यक्‍त की है। 
  6. किसान-मजदूर जनता के पैरों के घावों का मार्मिक वर्णन किया है। 

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