'खुरदरे-पैर' कविता का सारांश
यहाँ कवि ने एक व्यंग्य पूर्ण बिम्ब खींचा है, जो संवेदनशीलता की चरमसीमा का परिचायक है। कविता से ज्ञात होता है कि कवि निम्न वर्ग के प्रति सहानुभूति रखता है तथा उनकी मुश्किलों, समस्याओं के प्रति अपनी संवदेना रखता है। रिक्शे वाले को बिना रबड़ के पैडलों पर पैर चलाते हुए देखकर नागार्जुन के अन्दर पीड़ा का संचार हो जाता है और वे उसकी कर्मण्यता को भगवान् वामन के पैरों से भी बढ़कर बताते हैं। उनका मर्मस्पर्शी हृदय कहता है कि वे उस बेचारे रिक्शा-मजदूर के फटे हुए पैरों को कभी नहीं भूल पाएंगे।
'खुरदरे पैर' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
व्याख्या - नागार्जुन की प्रस्तुत कविता खुरदरे पैर में नागार्जुन का झुकाव अपनी गहन सामाजिक चेतना और शोषित व उत्पीड़ित जनता के प्रति गहरी सहानुभूति के कारण ही मार्क्सवादी चिंतन की ओर गया। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज की विषमताओं पर कुठराघात किया है। इस कविता में कवि ने किसान मजदूर जनता के पैरों की बिवाइयों का वर्णन किया है, जिसने उनके संवेदनशील हृदय को झकझोर दिया।
विशेष -
- कवि की दीन-हीन गरीबों के प्रति संवेदनशीलता इस कविता में प्रकट हुई है।
- कवि ने रिक्शा वाले के फटे बिवाई वाले खुरदरे पैरों को वामन भगवान के पैरों से बढ़कर बताया है।
- "धंस गई कुसुम-कोमल मन" में पंक्ति में उपमा अलंकार।
- अतुकान्त कविता।
खुरदरे पैर कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
- 1957 में रचित और 'सतरंगे पंखों वाली' (1959) कविता-संग्रह में संकलित कविता ।
- कवि की साईकिल पर बोझा ढोने वाले एक श्रमजीवी आदमी के पसीना बहाकर पेट पालने के प्रति संवेदनात्मक अभिव्यक्ति ।
- दूधिया निगाहों और कुसुम-कोमल मन के खुरदरे फटी बिवाइयों वात पैरों पर मुग्ध होने का चित्रण।
- कवि का संकेत कि आकर्षण केवल सौंदर्य में ही नहीं होता अपितु परिश्रम में भी सौंदर्य होता है।
- इस कविता में कवि ने शोषित-पीडित जनता के प्रति सहानुभूति व्यक्त की है।
- किसान-मजदूर जनता के पैरों के घावों का मार्मिक वर्णन किया है।
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