आँसू कविता – जयशंकर प्रसाद | सारांश, विश्लेषण और भावार्थ

आँसू कविता जयशंकर प्रसाद

 'आँसू' कविता का सारांश

'आँसू' जयशंकर प्रसाद जी का प्रसिद्ध विरह काव्य है। कवि की भावुकता इस काव्य में मुख्य रूप से दृष्टिगत होती है। आँसू में प्रेम की स्मृति सत्यता के साथ अभिव्यक्त हुई है। जीवन में प्रत्येक अभिलाषा को पूरी करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और उसमें असफल होने पर व्यक्ति चिन्ता, दुःख, असन्तोष और कुण्ठा से पीड़ित होता है। आँसू इस प्रकार की प्रेमभावनाओं की चरम परिणति है। आँसू का सम्पूर्ण महत्त्व कवि के करुणाकलित हृदय से मुखरित विफल रागिनी में देखा जा सकता है। इस काव्य में कवि ने लौकिक प्रेम की व्यक्तिगत विरहानुभूति को अभिव्यक्त किया है।

आँसू का मुख्य केन्द्र विरह श्रृंगार है। कवि के हृदय में एक शीतल ज्वाला जल रही है, जिसको आँसुओं के जल का ईंधन मिल रहा है

शीतल ज्वाला जलती है. ईंधन होता दूग जल का. 
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर करती है काम द्वनिल का

आँसू पूर्ण रूप से विरह काव्य है। इसमे सम्भवतः कवि अपनी निष्ठुर प्रेमिका को याद कर रहा है तथा उस समय के प्रेयसी के साथ बिताए प्रेम प्रसंगों को याद कर रहा है

मादक थी मोहमयी थी, मन बहलाने की क्रीड़ा, 
अब हृदय हिला देती है, वह मधुर प्रेम की पीड़ा

कवि अपने एकांतिक जीवन के सुख और दुःख के अनुभव का चित्रण करते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुःख की लीला भूमि है। यहाँ विरह और मिलन का परिचय हुआ करता है और शोक तथा आनन्द यहाँ नाचते रहते हैं

"मानव जीवन वेदी पर, परिणय हो विरह मिलन का। 
सुख दुःख दोनों नाचेंगे, है खेल आँख और मन का।"

'आँसू' एक श्रेष्ठ गीति काव्य है। गीति काव्य बाह्य जगत् को अपनी भावनानुसार देखता और ग्रहण करता है। गीति काव्य में बौद्धिक जीवन की क्षमता और दार्शनिकता भी हो तो काव्य का सौन्दर्य और बढ़ जाता है। जयशंकर प्रसाद जी के 'आँसू' में ये दोनों तत्त्व उपस्थित हैं। सच्ची भावना ने इस काव्य को एक तीव्र आवेग प्रदान किया है। काव्य के प्रारम्भिक भाग में कवि का हृदय पक्ष प्रबल है। काव्य का अन्तिम चरण बौद्धिकता का दर्शन कराता है।

अतः बौद्धिक चिन्तन और भाव प्रबलता से 'आँसू' काव्य एक महत्त्वपूर्ण रचना बन पड़ी है। काव्य का प्रतीक विधान भी अपूर्व है। कथन की अभिव्यक्ति कवि द्वारा अमूर्त रूप में हुई है। सूक्ष्मता, अमूर्त तुलनाओं व उपमानों के द्वारा वह स्थूल का भी चित्रण करने में सफल रहे हैं। कवि ने सौन्दर्य में अप्रस्तुत विधान का प्रयोग किया है। प्राचीन समय से ही हिन्दी में सौन्दर्य चित्रण का परम्परागत अवधान रहा है, परन्तु प्रसाद जी ने इस परम्परा को सूक्ष्मता से उतार कर उसे कोमल रूप दिया है।

'आँसू' काव्य की रचना 'आनन्द' छन्द में हुई है। काव्य में उपमा, रूपक, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों का शोभनीय संयोजन हुआ है।

गुलाबराय जी के अनुसार, "आँसू में संयोग की सुधि के बाद वियोग है और इस व्यक्ति दुःख को विश्व वेदना में समाहित करने की बात भी है, यही उस काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है।"

निष्कर्षतः 'आँसू' प्रसादजी की लौकिक प्रेम को अभिव्यक्त करने वाली ऐसी कृति है, जिसमें प्रसाद जी ने प्रिय के प्रेम पर विश्वास किया और उसकी ओर से प्रवंचना प्राप्त होने पर कवि ने 'आँसू' काव्य के माध्यम से उसकी स्मृति में आँसू बरसाए।

'आँसू' कविता के कुछ पदों की व्याख्या

तिर रही अवृति जलधि में 
नीलम की नाव निराली 
काला-पानी वेला सी 
है अंजन रेखा काली।

व्याख्या -

कवि अपनी प्रेमिका की काली आँखों के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रिय के नेत्र ऐसे है मानो अतृप्ति के सागर में नीलम की नाव तैर रही है। कवि के अनुसार यहाँ आँखें सागर हैं, आँखों की पुतलियाँ नीलम की अद्भुत नाव हैं। चंचल पुतलियों को उसकी आँखों में प्रेम मय मद और अधिक चंचल बनाए हुए हैं। नेत्रों में दिखाई देने वाली काजल की रेखा ऐसी प्रतीत हो रही है मानो वे काले जल वाले सागर के किनारे हैं।

विशेष -

  • 'काला-पानी वेला सी' का अर्थ यहाँ यह भी लिया जा सकता है कि जैसे किसी अपराधी को दण्डस्वरूप काले पानी की सजा दी गई है उसी तरह प्रेमिका के नेत्रों का सौन्दर्य और काजल की रेखा कवि को बंधन में बाँध रही है।
  • प्रस्तुत पद्यांश में रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग किया गया है।

अंकित कर क्षितिज पटी को 
तूलिका बरौनी तेरी 
कितने घायल हृदयों की 
बन जाती चतुर चितेरी

व्याख्या -

कवि कहते हैं कि प्रिय के रूप सौन्दर्य के दर्शन से ही न जाने कितने हृदय उसके रूप के आकर्षण में बंधकर घायल हो जाते हैं। कवि आगे कहते हैं जो भी उस रूप का पान करता है, वही अपना हृदय उस रूप-सौन्दर्य को दे बैठता है। प्रिय की आँखों में उसकी छवि अंकित हो जाती है। कवि का मानना है कि चित्रकार ने मानो क्षितिज के ऊपर कोई चित्र बड़ी कुशलता से चित्रित कर दिया है अर्थात् बरौनी रूपी तूलिका ने क्षितिज रूपी रंगीन वस्त्र पर (आँखों की पुतलियों पर) घायल हृदयों के चित्र खींच दिए हैं।

विशेष -

  • यहाँ कवि ने अत्यन्त क्लिष्ट और विलक्षण कल्पना की है।
  • प्रस्तुत पद में रूपकातिशयोक्ति अलंकार, मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है।

विद्रुम सीपी सम्पुट में 
मोती के दाने कैसे 
है हंस न, शुभ यह 
फिर क्यों? चुगने की मुद्रा ऐसे

व्याख्या -

प्रिय के होंठों का रंग मूंगे के समान लाल है, दंतावली मोतियों की तरह है। ऐसे सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि प्रिय के मूंग तरह लाल होंठ से बने सम्पुट में मोती के दाने क्यों हैं? अर्थात् जब प्रेमिका लाल होंत के द्वारा मुस्कुराती है तो मोतियों जैसी दाँतों की पंक्तियाँ दिखाई देती हैं। यही सोचकर कवि ने प्रश्न किया है कि इस सम्पुट में मोती क्यों हैं? यहाँ तो मूंगा (सीपी) हो" चाहिए। प्रेमिका की नाक को देखते हुए कवि कहते कि इस मूंगे (सीप) सम्पुट में तो मोती के समान दाँत हैं, जिन्हें हंस चुगता है, तो फिर यहाँ तोता किस तरह इन्हें चुगने की मुद्रा में है।

विशेष -

  • यहाँ कवि ने प्रेमिका के होंठों, दन्त पंक्तियों व नासिका के सौन्दर्य का वर्णन करने में एक-से-एक उपमान गढ़े हैं।
  • यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलंकार, मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है।


विकसित सरसिज वन वैभव 
मधु ऊषा के अंचल में 
उपहास करावे अपना 
जो हँसी देख ले जल में

व्याख्या -

कवि कहते हैं कि प्रिय की मधुर मुस्कान उसके हँसने से जिस उत्साह का संचार होता है, वह अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है। कवि प्रिय के अद्भुत हास की तुलना प्रातःकाल की मधुर बेला में कमलों से सुसज्जित कमल वन से करते हुए कहते हैं कि जिस तरह आशा और समृद्धि का संचार करता हुआ कमलों से शोभित कमल वन का वैभव होता है, प्रिय की मधुर हँसी के सामने तो वह भी फीका लगता है। प्रिय के हास्य के समक्ष ऐसी मधुर उषा काल में विकसित कमलों की शोभा भी अपना उपहास करवाती प्रतीत होती है।

विशेष -

  • कवि ने इस पद में अपने प्रिय के हास्य का चित्रण किया है।
  • यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग किया गया है।


ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी 
बस शान्ति विहँसती बैठी 
उस बन्धन में मुख बँधता 
करुणा रहती थी ऐंठी

व्याख्या -

कवि कहते हैं कि मेरा मन प्रिय के खुले बालों से परिपूर्ण सौन्दर्य से आकर्षित होते हुए उससे उलझता जाता था। उलझन बढ़ती रहती थी, परन्तु प्रेम पूर्ण मन की इस उलझन को देखकर भी शान्ति चुपचाप बैठी मुस्काती है। प्रिय प्रेम के उस बन्धन में सुख की प्राप्ति का आभास कवि को होता है, जबकि बन्धन सदा उलझन, बेचैनी और कष्ट का कारण होता है। इस बन्धन से करुणा दूर-दूर ऐंठी हुई सी कवि को महसूस होती है।

विशेष -

  • यहाँ प्रिय के प्रेम की व्यापकता का चित्रण किया गया है।
  • प्रेम के बन्धन से उत्पन्न उलझन में शान्ति का हँसना यहाँ विरोधाभास पैदा कर रहा है।
  • यहाँ करुणा और शान्ति का मानवीकरण किया गया है।

आँसू कविता के महत्वपूर्ण तथ्य

    1. 'आँसू' कविता का पहला संस्करण 1925 ई. में साहित्य सदन चिरगाँव, झाँसी से प्रकाशित हुआ था।
    2. 'आँसू' कविता का दूसरा संस्करण 1933 ई. में 'भारती भण्डार' प्रयाग से प्रकाशित हुआ था।
    3. आँसू के दो संस्करण है। दोनों संस्करणों में पर्याप्त अंतर है। आँसू के पहले संस्करण में केवल 126 छन्द थे। उसका स्वर बहुत ही निराशापूर्ण था।
    4. नवीन संस्करण में कवि ने कई संशोधन किए। जिसमे छन्दों की संख्या 190 हो गई। इसमें 'आशा' और 'विश्वास' के स्वर परिपूर्ण है।
    5. आँसू की पंक्तियों में 14 मात्राओं का प्रयोग हुआ है।
    6. 'हिमकर' का अर्थ चाँद है।
    7. मानस सागर में रूपक अलंकार है।
    8. आँसू पुस्तक में 'सखी' छंद का प्रयोग हुआ है।
    9. 'क्यों लोल लहर की घातें में' 'लहर' 'स्मृति' का प्रतीक है।
    10. लौकिक प्रेम में असफलता के पश्चात कवि की वेदना का विस्तार हुआ। वैयक्तिक वेदना, समष्टिपरक वेदना में परिवर्तित हो गई।

 'आँसू' कविता संबंध में विद्वानों के कथन

डॉ. प्रेमशंकर के शब्दों में- “एक ओर यदि 'आँसू' उत्कृष्ट विरह काव्य है, तो साथ ही वह जीवन के व्यवहारिक ज्ञान का उन्नायक है। यदि निराशा के पंक में ही कल्याण का सतलज विकसित हो सकता है, तो उसकी सार्थकता में विश्वास क्यों न किया जाए?”

अंग्रेजी कवि शैली ने भी कहा है- "Our sweetest songs are those that tell of saddest thought."

श्री शिवकुमार मिश्र के शब्दों में- 'प्रथम पंक्ति से ही वेदना की जो रागिनी बजना प्रारंभ होती है वह बंद नहीं होती। अंत तक बजती जाती है। अंत तक पहुँचते-पहुँचते कवि के स्वरों में परिवर्तन अवश्य कर देता है। उसकी इस रागिनी से यह कथा स्पष्ट झलकने लगती है कि उसने किसी से प्रेम किया था। प्रेम असफल हुआ और वेदन अति के कारण उन मादक घड़ियों का स्मरण कर आँसू बहाये।'

रामनाथ सुमन के शब्दों में- “आँसू में यौवन विलास खो जाने का रोदन है। वहाँ यौवन का उन्माद उतना नहीं है। यौवन का विरह है, पर यौवन का काव्य नहीं। इसका एक कारण यह है कि यह विरह काव्य है।'

सुमित्रानंदन पंत के अनुसार - "गीतिकाव्य का प्रस्फुटन तभी होता है जब कवि का हृदय वेदना की अतिशयता से आक्रांत हो जाता है।"

आँसू कविता संबंधित महत्‍वपूर्ण प्रश्‍नोउत्तर 

प्रश्न 1. 'आँसू' के संशोधित संस्करण में कुल कितनी पंक्तियाँ थीं?
  1. 252
  2. 282
  3. 312
  4. 380

उत्तर - 4. 380


प्रश्न 2. 'आँसू' मूलतः किस प्रकार का काव्य है?
  1. प्रेम काव्य
  2. लंबी कविता
  3. विरह-काव्य
  4. रूपक

उत्तर - 2. विरह-काव्य


प्रश्न 3. 'आँसू' में किस रस की प्रधानता है? 

  1. अद्भुत रस
  2. करुण रस
  3. हास्य रस
  4. रति रस

उत्तर - 2. करुण रस


प्रश्न 4. निम्न विकल्पों में से प्रसाद जी द्वारा रचित विरह काव्य कौनसा है? 

  1. चित्राधार
  2. लहर
  3. झरना
  4. आँसू

उत्तर - 4. आँसू


प्रश्न 5. 'आँसू' है

  1. मुक्तक काव्य संकलन
  2. अतुकांत काव्य
  3. प्रबंध काव्य
  4. इनमें से कोई नहीं

उत्तर - 1. मुक्तक काव्य संकलन


प्रश्न 6. 'आँसू' काव्य किस वर्ष प्रकाशित हुआ?

  1. 1928
  2. 1925
  3. 1914
  4. 1930

उत्तर - 2. 1925


प्रश्न 7. 'आँसू' की रचना किस छंद में की गई है?

  1. रोला
  2. मन्दाक्रान्ता
  3. आनंद
  4. वसंततिलका

उत्तर - 3. आनंद

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