रश्मिरथी – रामधारी सिंह दिनकर | सारांश, पात्र, काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर की रचना ‘रश्मिरथी’ महाभारत के महायोद्धा कर्ण की गाथा है। यह खंडकाव्य न केवल कर्ण के शौर्य और दानवीरता को उजागर करता है बल्कि जातिगत भेदभाव और अन्याय पर भी गहन प्रश्न उठाता है। इस पोस्‍ट में रश्मिरथी से संबंधित सम्‍पूर्ण जानकारी दी गई है। इसे पढ़कर अपना सुझाव दीजिए। 

    रश्मिरथी का संक्षिप्‍त परिचय

    रचयिता : रामधारी सिंह ‘दिनकर’

    प्रकाशन वर्ष : 1952

    विधा : खंडकाव्य

    सर्ग : 7

    मुख्य पात्र : कर्ण

    'रश्मिरथी' खण्डकाव्य का सारांश

    'रश्मिरथी' खण्डकाव्य की रचना श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी द्वारा की गई है। इस खण्डकाव्य की कथा का आधार महाभारत है। इस खण्डकाव्य में 'दिनकर' जी ने परमवीर और महादानी कर्ण की कथा का वर्णन किया है। इस खण्डकाव्य के प्रत्येक सर्ग के संवादों में नाटकीयता के गुण विद्यमान हैं। इसमें बोधगम्यता, सहजता, स्वाभाविकता एवं सुग्राह्यता के साथ-ही-साथ प्रभावशीलता भी विद्यमान है। कवि 'दिनकर' जी ने इस खण्डकाव्य की घटनाओं एवं परिस्थितियों को भावात्मकता के धरातल पर संजोया है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु को कवि ने सात सर्गों में विभाजित किया है, जो निम्न प्रकार हैं

    रश्मिरथी सारांश

    प्रथम सर्गः कर्ण का शौर्य प्रदर्शन

    कर्ण का जन्म कुन्ती के गर्भ से हुआ था और उसके पिता सूर्य थे। लोकलाज के भय से कुन्ती ने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे सूत (सारथि) ने बचाया और उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण महान् धनुर्धर, शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और दानवीर बना। एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी दर्शक अर्जुन की धनुर्विद्या के प्रदर्शन को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, किन्तु तभी कर्ण ने सभा में उपस्थित होकर अर्जुन को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारा। कृपाचार्य ने कर्ण से उसकी जाति और गोत्र के विषय में पूछा। इस पर कर्ण ने स्वयं को सूत-पुत्र बताया, तब निम्न जाति का कहकर उसका अपमान किया गया। उसे अर्जुन से द्वन्द्वयुद्ध करने के अयोग्य समझा गया, परन्तु दुर्योधन कर्ण की वीरता एवं तेजस्विता से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया। साथ ही उसे अपना अभिन्न मित्र बना लिया। गुरु द्रोणाचार्य भी कर्ण की वीरता को देखकर चिन्तित हो उठे और कुन्ती भी कर्ण के प्रति किए गए बुरे व्यवहार के लिए उदास हुई।

    द्वितीय सर्गः आश्रमवास

    राजपुत्रों के विरोध से दुःखी होकर कर्ण ब्राह्मण रूप में परशुराम जी के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए गया। परशुराम जी ने बड़े प्रेम के साथ कर्ण को धनुर्विद्या सिखाई। एक दिन परशुराम जी कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर चढ़कर खून चूसता-चूसता उसकी जंघा में प्रविष्ट हो गया। रक्त बहने लगा, पर कर्ण इस असहनीय पीड़ा को चुपचाप सहन करता रहा और शान्त रहा, क्योंकि कहीं गुरुदेव की निद्रा में विघ्न न पड़ जाए।

    जंघा से निकले रक्त के स्पर्श से गुरुदेव की निद्रा भंग हो गई। अब परशुराम को कर्ण के ब्राह्मण होने पर सन्देह हुआ। अन्त में कर्ण ने अपनी वास्तविकता बताई। इस पर परशुराम ने कर्ण से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार छीन लिया और उसे श्राप दे दिया। कर्ण गुरु के चरणों का स्पर्श कर वहाँ से चला आया।

    तृतीय सर्गः कृष्ण सन्देश

    बारह वर्ष का वनवास और अज्ञातवास की एक वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस माँगते हैं, लेकिन दुर्योधन पाण्डवों को एक सूई की नोंक के बराबर भूमि देने से भी इनकार कर देता है। श्रीकृष्ण सन्धि प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास आते हैं। दुर्योधन इस सन्धि प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता और श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का प्रयास करता है। श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर उसे भयभीत कर देते है। दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया।

    श्रीकृष्ण ने कर्ण को उसके जन्म का इतिहास बताते हुए उसे पाण्डवों का बड़ा भाई बताया और युद्ध के दुष्परिणाम भी समझाए, लेकिन कर्ण ने श्रीकृष्ण की बातों को नहीं माना और कहा कि वह युद्ध में पाण्डवों की ओर से सम्मिलित नहीं होगा। दुर्योधन ने उसे जो सम्मान और स्नेह दिया है, वह उसका आभारी है।

    चतुर्थ सर्गः कर्ण के महादान की कथा

    जब कर्ण ने पाण्डवों के पक्ष में जाने से इनकार कर दिया, तो इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण के पास आए। वह कर्ण की दानवीरता की परीक्षा लेना चाहते थे। कर्ण इन्द्र के इस छल प्रपंच को पहचान गया, परन्तु फिर भी उसने इन्द्र को सूर्य के द्वारा दिए गए कवच और कुण्डल दान में दे दिए। इन्द्र कर्ण की इस दानवीरता को देखकर अत्यन्त लज्जित हुए। उन्होंने स्वयं को प्रवंचक, कुटिल और पापी कहा तथा प्रसन्न होकर कर्ण को 'एकघ्नी' नामक अमोघ शक्ति प्रदान की।

    पंचम सर्गः माता की विनती

    कुन्ती को चिन्ता है कि रणभूमि में मेरे ही दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। इससे चिन्तित हो वह कर्ण के पास जाती है और उसे उसके जन्म के विषय में सभी बातें बताती है। कर्ण कुन्ती की बातें सुनकर भी दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है, किन्तु अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पाण्डव को न मारने का वचन कुन्ती को दे देता है।

    कर्ण कहता है कि तुम प्रत्येक दशा में पाँच पाण्डवों की माता बनी रहोगी। कुन्ती निराश हो जाती है। कर्ण ने युद्ध समाप्त होने के बाद कुन्ती की सेवा करने की बात कही। कुन्ती निराश मन से लौट आती है।

    षष्ठ सर्गः शक्ति परीक्षण

    श्रीकृष्ण इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि कर्ण के पास इन्द्र द्वारा दी गई 'एकघ्नी' शक्ति है। जब कर्ण को सेनापति बनाकर युद्ध में भेजा गया तो श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को कर्ण से लड़ने के लिए भेज दिया।

    दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने घटोत्कच को एकघ्नी शक्ति से मार दिया। इस विजय से कर्ण अत्यन्त दुःखी हुए, पर पाण्डव अत्यन्त प्रसन्न हुए। श्रीकृष्ण ने अपनी नीति से अर्जुन को अमोघशक्ति से बचा लिया था, परन्तु कर्ण ने फिर भी छल से दूर रहकर अपने व्रत का पालन किया।

    सप्तम सर्गः कर्ण का बलिदान

    कर्ण का पाण्डवों से भयंकर युद्ध होता है। वह युद्ध में अन्य सभी पाण्डवों को पराजित कर देता है, पर माता कुन्ती को दिए गए वचन का स्मरण कर सबको छोड़ देता है। कर्ण और अर्जुन आमने-सामने हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। अर्जुन कर्ण के बाणों से विचलित हो उठते हैं। एक बार तो वह मूच्छित भी हो जाते हैं, तभी कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फँस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है, तभी श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण चलाने की आज्ञा देते हैं।

    श्रीकृष्ण के संकेत करने पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर प्रहार कर देते हैं। कर्ण की मृत्यु हो जाती है, पर वास्तव में नैतिकता की दृष्टि से तो कर्ण ही विजयी रहता है। श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, पर मर्यादा खोकर।

    'रश्मिरथी' खण्डकाव्य के प्रमुख पात्र

    मुख्य पात्र :

    कर्ण – खण्डकाव्य का नायक। दानवीर, योद्धा और सूर्यपुत्र कर्ण का जीवन संघर्ष, अपमान और वीरता से परिपूर्ण है।

    कुंती – कर्ण की जन्मदात्री माता, जिसने विवश होकर कर्ण को जन्म के बाद त्याग दिया।

    सूर्यदेव – कर्ण के पिता, जो उसकी जन्मकथा से जुड़े हैं।

    अधिरथ – सारथी, जिन्होंने कर्ण को पाला।

    राधा – अधिरथ की पत्नी, कर्ण की पालक माता।

    अन्य प्रमुख पात्र :

    दुर्योधन – कौरवों का प्रमुख, जिसने कर्ण को मित्र बनाया और उसके गौरव को स्थापित किया।

    शकुनि – दुर्योधन का मामा, छल–कपट का प्रतिनिधि।

    भीष्म पितामह – कौरव–पांडव दोनों के परम हितैषी और कर्ण के विरोधी।

    गुरु द्रोणाचार्य – कौरव–पांडवों के गुरु, जिन्होंने कर्ण को शिक्षा देने से इनकार किया।

    एकलव्य का प्रसंग – समानांतर रूप से शिक्षा से वंचित प्रतिभा की पीड़ा दर्शाने के लिए।

    अर्जुन – पांडवों का श्रेष्ठ धनुर्धर और कर्ण का प्रतिद्वंद्वी।

    कृष्ण – पांडवों के सारथी, दार्शनिक और जीवन-सत्य के उद्घाटक।

    युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव – पांडव भाई।

    द्रौपदी – पांडवों की पत्नी, जिसके स्वयंवर में कर्ण को अपमानित किया गया।

    परशुराम – कर्ण के गुरु, जिन्होंने उसके "सारथी पुत्र" होने पर शाप दिया।

    रश्मिरथी (खंड काव्य) की काव्यगत विशेषताएं

    रश्मिरथी हिंदी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। यह 1952 में प्रकाशित हुआ था, इसमें 7 सर्ग हैं। इसकी कथा महाभारत से ली गई है, महाभारत में भी यह कथा इसी प्रकार है पर दिनकर जी ने अपने रचना कौशल से कथा को अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी बना दिया है। खण्डकाव्य की दृष्टि से रश्मिरथी एक अत्यंत ही सफल कृति है। रश्मिरथी खंडकाव्य की काव्यगत विशेषताएं-

    1. ऐतिहासिकता - 

    'रश्मिरथी' की कथा महाभारत से ली गई है, उसकी सभी घटनाएँ एवं पात्र ऐतिहासिक हैं। अविवाहित कुंती अपने नवजात शिशु को त्याग देती है। वही पुत्र, कर्ण के नाम से असाधारण पराक्रमी बनकर कुंती-पुत्रों के समक्ष उनके शत्रु एवं महान दानी के रूप में आता है, पग-पग पर उसके साथ छल किया जाता है और अन्त में निहत्थे कर्ण को अर्जुन युद्ध की मर्यादा के विरुद्ध मार देता है और इसी आख्यान को ही रश्मिरथी काव्य में प्रस्तुत किया गया है।

    2. रस निरुपण -  

    'रश्मिरथी' वीर रस-प्रधान खण्डकाव्य है, किन्तु यत्र-तत्र करुण और वात्सल्य रस का भी समावेश हुआ है। कर्ण और कुंती-प्रसंग में वात्सल्य रस का बड़ा ही सुन्दर परिपाक हुआ है -

    मेरे ही सुत मेरे सुत को ही मारें।
    हो क्रूद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।। 
    यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा।
    अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।।

    कर्ण के कथन में करुण रस का परिपाक -

    पर हाय ऐसा क्यों बाम विधाता। 
    मुझे और पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ।। 
    जो जनकर पत्थर हुई जाति के भय से। 
    संबंध तोड़ भागी दुधमुंहे तनय से ।।


    वीर रस पूर्ण संवाद -

    धनु की डोरी तन जाने दें, 
    संग्राम तुरंत ठन जाने दें।
    ताण्डवी तेज लहराएगा,
    संसार ज्योति कुछ पाएगा।।

    3. संवाद योजना - 

    पात्रों के भावों का प्रकटीकरण कवि ने उनके संवादों के माध्यम से करके जहां उनके चरित्रों को निखारा है, वहीं प्रभाव एवं शैली की दृष्टि से खण्डकाव्य को सशक्त भी बनाया है। खण्डकाव्य में प्रयुक्त संवाद भावों से प्रेरित, स्वाभाविक, पैने और व्यंग्य से परिपूर्ण हैं।

    4. प्रकृति चित्रण - 

    यद्यपि रश्मिरथी काव्य में प्रकृति-चित्रण कवि का विषय नहीं है, तथापि प्रसंगवश प्रकृति चित्रण हुआ है, जो बहुत सजीव है; यथा

    हंसती थी रश्मियां रजत से, भरकर वारि विमल को।

    कलागत विशेषताएं :

    1. भाषा -  

    रश्मिरथी की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिंदी है, किन्तु उसमे तद्भव शब्दों की प्रधानता है। युद्ध की घटनाओं और सांस्कृतिक परिस्थितियों को स्वाभाविक रूप देने के लिए पुरानी शब्दावली का भी यथासम्भव प्रयोग किया गया है। भाषा में प्रभावात्मकता, प्रवाहमयता तथा विषयानुरुपता है। भाषा की स्पष्टता व सुबोधता सर्वत्र देखी जा सकती है।

    तब किसी तरह हिम्मत समेटकर सारी।
    आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।।

    सभी स्थलों के लिए उपयुक्त भाषिक शब्दावली की रचना में कवि सिद्धहस्त हैं। कवि ने अनेक लोकोक्तियों व मुहावरों का भी उचित स्थल पर प्रयोग किया है, जैसे- हृदय फटना, पुण्य लूटना, मन मसोसना, वज्ज्र गिरना आदि।

    2. शैली - 

    रश्मिरथी काव्यात्मक शैली में लिखा गया है। प्रायः प्रत्येक सर्ग में कवि ने संवादात्मक परिस्थितियों को सफलतापूर्वक उकेरने का प्रयास किया है। कर्ण का कृपाचार्य, कृष्ण, इंद्र, कुंती, भीष्म इन सभी से संवाद चलता है। संवादात्मक शैली का प्रयोग करके कवि ने काव्य में नाटकीयता का समावेश किया है।

    3. छंद-विधान - 

    कवि ने प्रत्येक सर्ग में अलग अलग छंदो का प्रयोग किया है। ये छंद परिवर्तन के लिए ही नहीं किए गए हैं, वरन विषय और मानसिक परिस्थितियों तथा घटनाओं की संवेदनात्मक पकड़ को दृष्टि में रखते हुए ही इन छंदों का आयोजन किया गया है। एक ही सर्ग में अनुभव के संवेदनात्मक तनाव के परिवर्तित होने पर कवि ने छंद-योजना ही परिवर्तित कर दी।

    4. अलंकार-योजना -

    रश्मिरथी खण्डकाव्य में कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, जैसे-

    उपमा अलंकारः "वन्य कुसुम-सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर।"

    उत्प्रेक्षा अलंकारः "लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो अर्थ अंशुमाली।"

    रूपक अलंकारः “फिर सहसा क्रोधा अग्नि भयानक, भभक उठी उनके तन में।"

        कवि ने व्यर्थ के आलंकारिक प्रयोगों से भाषा को बोझिल नहीं बनाया है। अलंकारों का प्रयोग इतना स्वाभाविक और वास्तविक लगता है कि पाठको को आलंकारिक भूल-भूलैया में नहीं लें जाता। इस प्रकार 'रश्मिरथी' खण्डकाव्य काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से एक सफल खण्डकाव्य है, जो आज के समाज की विकृतियों को दूर करने का सशक्त सन्देश देता है तथा वर्तमान युग के लिए अत्यंत उपयोगी भी है।

    रश्मिरथी काव्यगत विशेषताएँ

    'रश्मिरथी' खण्डकाव्य के कुछ पदों की व्याख्या

    (1)
    'जय हो' जग में जले जहाँ भी नमन पुनीत अनल को, 
    जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। 
    किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर नमस्य है फूल, 
    सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। 
    ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है। 
    दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। 
    क्षत्रिय वही भरी हो, जिसमें निर्भयता की आग, 
    सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो, जिसमें तप त्याग।

    व्याख्या –

    प्रस्तुत पद्यांश रश्मिरथी के प्रथम सर्ग से उधृत है। यहाँ कवि ने मंगलाचरण के अन्तर्गत प्रस्तुत पद की रचना की है। कवि कहता है कि उस पवित्र अग्नि को नमस्कार है, चाहे वह संसार में कहीं भीं प्रकाशमान है या जल रही है। उस तेज और बल को हम नमन करते हैं, जो किसी भी मनुष्य में विराजमान है।

    कवि कहता है कि हर फूल वंदनीय है, चाहे वो किसी भी डाली पर खिला हो या किसी भी वन-उपवन में। विद्वत जन केवल गुण और शक्ति को पूज्यनीय मानते हैं न कि उसके मूल को खोजते फिरते हैं।

    कान कहता है कि जो व्यक्ति ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेदभाव नहीं मानते, वे ज्ञानी होते हैं। जिस प्राणी के मन में दया धर्म रहती है। वे पूज्य होते हैं।

    कवि के अनुसार, जो व्यक्ति निर्भय होते हैं अर्थात् भय रहित होते है; वही क्षत्रिय कहलाने के योग्य होते हैं और जो तपस्वी, त्यागी, मोहरहित होता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण कहलाता है।

    विशेष –

    • कवि ने उपदेशात्मक शैली में मंगलाचरण किया है।
    • यहाँ कवि ने जाति-पाँति और ऊँच नीच के भेदभाव का खण्डन किया है।
    • शुद्ध खड़ी बोली तत्सम शब्द युक्त भाषा।

    (2)
    जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, 
    उसका पलना हुआ धार पर बहुती हुई पिटारी। 
    सूत वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
    निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर। 
    तन से समरशूर मन से भावुक, स्वभाव से दानी, 
    जाति गोत्र का नहीं, शील का पौरुष का अभिमानी। 
    ज्ञान ध्यान शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, 
    अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

    व्याख्या –

    प्रस्तुत गद्यांश में कवि ने कर्ण का परिचय दिया है। कवि कहता है कि जिसके पिता सूर्य थे और माता कुमारी कुन्ती थीं। उसे पलने के लिए पिटारी में रखकर नदी की धार में छोड़ दिया गया। वह पिटारी एक सूत (रथ हाँकने वाले) को मिली, जिसने कर्ण का पालन-पोषण किया। जिस कर्ण को कभी अपनी माता का दूध नहीं मिला वही कर्ण बड़ा होकर अद्भुत वीर पुरुष के नाम से विख्यात हुआ।

    कवि कहता है कि कर्ण ऊपर से वीर, युद्ध-विद्या में निपुण था, परन्तु मन से बहुत भावुक था। कर्ण स्वभाव से ही दानी था। उच्च कुल में जन्म लेने वाले को अपनी जाति गोत्र का अभिमान होता है, लेकिन कर्ण को अपने शील व वीरता का अभिमान था। कर्ण ने ज्ञान और शस्त्र-शास्त्रों का स्वाध्याय कर स्वयं के गुणों का विकास किया था।

    विशेष –

    • कर्ण के वंश और गुणों की जानकारी दी गई है।
    • ओज गुण व वीर रस का समावेश।

    (3)
    रंग भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे, 
    बढ़ा भीड़-भतर से सहसा कर्ण शरासन साधे। 
    कहता हुआ, तालियों से क्या रहा गर्व में फूल 
    अर्जुन ! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल। 
    तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ, 
    चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ। 
    आँख खेल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापक 
    फूले सस्ता सुयश प्रापत कर, उस नर को धिक्कार।।"

    व्याख्या –

    प्रस्तुत पद्यांश में रंगभूमि के दृश्य का वर्णन है जहाँ युद्ध विद्या प्राप्त करने के बाद सभी कौरव, पाण्डव अपनी-अपनी विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे। जिनमें अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या व युद्ध कौशल से अलग ही समा बाँध रखा था। उसकी शस्त्रास्त्र की निपुणता को देखकर लोग जय-जयकार कर रहे थे। तभी अचानक भीड़ में से कर्ण आगे निकलकर रंगभूमि की ओर आया तथा अर्जुन से कहने लगा,

    "अरे अर्जुन! इन तालियों की गड़गड़ाहट में क्यों घमण्ड से फूल रहा है। मैं अभी क्षण भर में ही तेरे सुयश को धूल में मिला दूँगा। तूने अभी रंगभूमि में जो भी करतब दिखाए हैं, उन्हें मैं भी दिखला सकता हूँ। इससे भी ज्यादा नई अपनी आँखें खोलकर कर्ण की शस्त्र विद्या का कमाल देख। अरे, जो व्यक्ति तुम्हारी तरह सस्ते, खोखले सुयश को प्राप्त करता है, ऐसे नर को या मनुष्य को अपने जीवन पर धिक्कार होना चाहिए।

    विशेष –

    • कवि ने अपनी अद्भुत संवाद शैली का परिचय दिया है।
    • अनुप्रास अलंकार।

    (4)
    जाति ! हाय री जाति! कर्ण का हृदय क्षोभ से डाला, 
    कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला 
    जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषण्ड, 
    मैं क्या जानूँ जाति है ये मेरे भुजदण्ड। 
    ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले-के-काले, 
    शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले। 
    सूतपुत्र हूँ मैं लेकिन थे पिता पार्थ के कौन? 
    साहस हो तो कहो ग्लानि से रह जाओ मत मौन 
    मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो, 
    पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो। 
    अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण 
    छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।

    व्याख्या 

    रंगभूमि में द्रोणाचार्य द्वारा कर्ण की जाति पूछने पर वीर कर्ण क्षोभ में भर जाता है। कर्ण कहता है कि जाति-जाति हाय ये जाति। जाति क्या होती है? जाति का यहाँ क्या प्रयोजन? कवि कहता है कि ऐसा लग रहा था मानो कर्ण के अपमान को देखकर सूर्य भी कुपित हो गए। सूर्य की ओर देखते हुए वीर कर्ण क्रोधपूर्वक बोला, "जो लोग जाति-जाति की रट लगाते हैं, वे केवल छली होते हैं। मैं कोई जाति नहीं जानता और यदि तुम्हें मेरी जाति देखनी है तो मेरा पराक्रम देखो। मेरी भुजाओं का यह पराक्रम ही मेरी जाति है।"

    कर्ण कहता है कि सोने का मुकुट धारण करने वाले ये सभी मनुष्य मन के काले होते हैं। इनके भीतर छल-द्वेष के अतिरिक्त और कुछ नहीं भरा रहता। संसार में जाति-भेद को पूछने वाले इन मनुष्य को तनिक भी लज्जा नहीं आती। अरे, मैं तो सूतपुत्र हूँ। लेकिन मुझे यह बताओ, अर्जुन के वास्तविक पिता कौन हैं? यदि तुममें साहस है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दो, यूँ ग्लानि से चुप मत रहिए?

    तुम्हारे जैसी छली, पापी लोग अपनी उच्च जाति का घमण्ड लेकर मस्तिष्क को ऊँचा करके चलते हो, लेकिन ये जो तुम्हारा सुखी जीवन है किसके बल से है। तुम्हारे जैसे लोग निर्बलों का शोषण करते हैं और उन्हीं के बल पर तुम अपना ये अधर्मी जीवन जीते हो।

    कर्ण द्रोणाचार्य को एकलव्य से अँगूठा माँग लेने वाली घटना को याद दिलाते हुए कहता है कि जब कोई नीच जाति का व्यक्ति तुमसे अधिक शक्तिशाली योद्धा हो जाता है तो तुम्हारा हृदय उसके डर से काँपने लगता हैं। तुम्हें अपने प्राणों का डर सताने लगता है और फिर तुम्हारे जैसे लोग छल करके उन पवित्र हृदय वाले निश्छल नीच जाति के मनुष्यों से एकलव्य की भाँति उनके अँगूठे का दान माँग लेते हो। वस्तुतः यहाँ कवि ने उन मनुष्यों पर व्यंग्य किया है जो ऊपर से तो स्वयं को सभ्य व उच्च मानकर चलते हैं, लेकिन अन्दर से उनके मन में मलिनता भरी रहती है। अपने भले के लिए ऐसे लोग नीच कर्म करने से भी नहीं चूकते।

    विशेष –

    • पाखंडी व भेदभाव को मानने वाले मनुष्यों पर कवि ने व्यंग्य किया है।
    • पुनरुक्ति तथा अनुप्रास अलंकार का प्रयोग।

    (5)

    बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से, 
    चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से। 
    आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान, 
    विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान। 
    और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को, 
    सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को। 
    उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव, 
    नहीं उठाये भी उठ पाते थे, कुन्ती के पाँव।

    व्याख्या –

    दुर्योधन ने कर्ण को अंगराज घोषित कर दिया। रंगभूमि का समय पूरा हो चुका था। सभी अपने-अपने घर को चल दिए थे। कवि उसी समय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि शाम का समय हो चुका था लेकिन सूर्य अपने पुत्र कर्ण का मानो स्नेह से अंग चूम रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे सूर्य अपने छिपने के समय को भूलकर कर्ण पर अपना स्नेह लुटा रहे थे। समय रुक सा गया था। क्षितिज पर अपने विमान को रोककर मानो सूर्य ठहर गया था। और उधर जब रनिवास अर्थात् सभी राजभवन की स्त्रियाँ वापस चलने लगी तो एक व्याकुल मन वाली स्त्री रूककर सभी स्त्रियों के पीछे हो गई। वह कुन्ती थी, जो अपने पुत्र कर्ण को देखकर केवल मन मसोसकर ही रह गई। वह कर्ण को सबके सामने अपना पुत्र नहीं बता सकती थी। उस समय कुन्ती की स्थिति ऐसी हो गई थी जैसे कि वह अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर हार चुकी हो। कुन्ती के पैर स्थिर हो गए थे। उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसके पैरों को जकड़ लिया हो।

    विशेष –

    • एक तरफ सूर्य की पिता के रूप में प्रसन्नता तो दूसरी ओर कुन्ती की वेदना व्यथा का वर्णन किया गया है।
    • उत्प्रेक्षा अलंकार, मानवीकरण अलंकार।
    (6)
    शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर, 
    कहीं उत्स-प्रस्स्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर। 
    जहाँ भूमि समतल सुन्द है, नहीं दिखते हैं पाहन, 
    हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तुत एक उटज पावन। 
    आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं, 
    शशक, मूस गिलहरी, कबूतर, घूम-घूम कण खाते हैं। 
    कुछ तन्द्रित अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन, 
    कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

    व्याख्या –

    यहाँ कवि ने परशुराम के आश्रम की स्थिति और वहाँ के आस-पास के प्राकृतिक वातावरण की मनमोहकता का वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि किसी पर्वत के ऊपर स्थित समतल भूमि में एक वन स्थित था, जिसकी शोभा निराली थी। जो कि शीतल था और वहाँ जंगल में पेड़-पौधे इधर-उधर लगे थे अर्थात् वह वन अधिक घना नहीं था।

    कहीं-कहीं उसमें से पहाड़ों को फोड़ते सोते निकल रहे थे तो कहीं-कहीं पवित्र झरने बह रहे थे। वहाँ की भूमि समतल और सुन्दर थी। पत्थर भी दिखाई नहीं दे रहे थे। उसी वन की हरियाली के मध्य में एक पावन विस्तृत आश्रम था। आश्रम के आस-पास धान के खेत थे, जिसमें खरगोश, चूहे, गिलहरी, कबूतर, घूम-घूमकर चावल के कण खा रहे थे। वहाँ पर कुछ गायें उँघती-सी और अलसाई-सी बैठी थीं तथा कुछ अपने बछड़ों के शरीर के ऊपर जीभ फिरा रही थीं। कुछ गायें घास खा रही थीं।

    विशेष –

    • आश्रम की स्थिति का मनमोहक वर्णन किया गया है।
    • चित्रोपमा शैली का प्रयोग।
    • अभिधा शक्ति।
    • माधुर्य गुण।

    (7)
    परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, 
    क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। 
    तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है 
    तन की समर भूमि में लेकिन काम खड्ग ही करता है 
    किन्तु कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? 
    एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करने वाला? 
    कहता है इतिहास जगत में हुआ एक ही नर ऐसा, 
    रण में कुटिल काल सम क्रोधी तप में महासूर्य जैसा ! 
    मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, 
    शाप और शर दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। 
    यह कुटी है उसी महामुनि परशुराम बलशाली की। 
    भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली की।

    व्याख्या –

    कवि ने यहाँ परशुराम के चरित्र का चित्रण किया है। वे कहते हैं कि परशु अर्थात् फरसा और तप, इन्हें धारण करने वाला कोई वीर ही होता है। अस्त्र-शस्त्र वीरों के ही श्रृंगारिक आभूषण होते हैं और वीरपुरुष ही तपस्या जैसा कठिन कार्य सिद्ध करता है। कायर पुरुष न तो तप ही कर सकता है और न तलवार उठा सकता है। तपस्वी मनुष्य स्वयं के आन्तरिक शत्रुओं से लड़ता है। वह स्वयं को साधता है। अपने मन को एकाग्र कर उस पर अपना अधिकार करता है और वीर पुरुष ही अस्त्र-शस्त्र का भार वहन करते हैं। वे निर्भर होकर आवश्यकता पड़ने पर अस्त्र उठाने से नहीं चूकते। तपस्वी मनुष्य तप से दिव्य बनता है और छः विकारों (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अन्धकार तथा ईर्ष्या) से लड़ता है, परन्तु यदि उसे रण करना पड़े तो उस रणभूमि में केवल तलवार ही काम आती है।

    कवि कहता है कि लेकिन यहाँ निर्जन एकान्त वन में यह जो तपस्वी धनुष को धारण करके बैठा है, कौन हो सकता है। यहाँ ऐसा तपस्वी कौन है जो एक साथ यज्ञ की अग्नि और तलवार दोनों की पूजा कर रहा है, लेकिन फिर कवि को स्वयं ही अपने इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। वह कहता है कि इतिहास में ऐसा मनुष्य जो तपस्वी भी है और धनुष फरसा आदि शस्त्रास्त्रों को धारण करता है केवल एक ही है। यह युद्ध में तो अपने शत्रुओं के लिए काल के समान क्रोधी स्वभाव रखता है और तपस्या में महासूर्य के समान चमकता है। जिसके मुख में वेद अर्थात् जो वेदों का ज्ञान रखने वाला है, पीठ पर धनुष बाण हैं और हाथ में कठिन, कठोर फरसा है तथा शाप और बाण जिस महान् ऋषि के सहायक हैं, यह आश्रम उन्हीं महामुनि बलशाली, भृगु ऋषि के वंशज, व्रती, वीर व प्रण का पालन करने वाले परशुराम जी का है।

    विशेष –

    • कवि ने परशुराम की महानता का अनूठा बखान किया है।
    • कायर और तपस्वी व वीर पुरुष में क्या अन्तर होता है, यहाँ कवि ने बहुत ही सुन्दरतापूर्वक उसका वर्णन किया है।
    • उपमा अलंकार का प्रयोग।

    (8)
    हाँ, हाँ, वहीं कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, 
    सोए हैं तरुवर के नीचे आश्रम से किंचित हटकर। 
    पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है। 
    पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है। 
    कर्ण मुगध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है। 
    कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है 
    चढ़े नहीं चीटियाँ बदन पर पड़े नहीं तृण-पात कहीं। 
    कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं। 
    वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध सच्चालन, 
    हाय पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण। 
    किन्तु वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी, 
    और रात-दिन मुझ पर दिखलाते रहते ममता कितनी ।

    व्याख्या –

    कवि कहता है कि हाँ ये वही परशुराम हैं। आज यही परशुराम कर्ण की जाँघों पर अपना सर रखकर आश्रम से थोड़ा दूर एक पेड़ के नीचे सोए हुए हैं। माघ के महीने की मीठी धूप पत्तों से छनकर नीचे आ रही है जो परशुराम के थके हुए शरीर पर पड़कर उनकी थकान मिटाने में सहायता कर रही हैं।

    कर्ण भक्ति भाव से अपने गुरु की कभी जटाओं में हाथ फेर रहा है और कभी पीठ सहला रहा है। उसे इस बात की चिन्ता है कि कहीं गुरु के शरीर पर कोई चींटी या तिनका पत्ता न चढ़ जाए। कर्ण इस बात के लिए बिलकुल सजग है कि कहीं गुरु श्रेष्ठ की नींद पूरी न हो और वे कच्ची नींद ही न उठ जाएँ।

    कर्ण अपने गुरु को स्नेह से देख रहा है और मन में उनके स्नेह को याद करके सोच रहा है कि गुरुदेव की देह इस समय बूढ़ी हो चुकी है। तप के कारण शरीर भी दुर्बलता को प्राप्त कर रहा है। ऊपर से वे मुझे शस्त्र-विद्या सिखलाने के कारण शस्त्रों का संचालन करते हैं।

    गुरुदेव की इस स्थिति का जिम्मेदार मैं ही हूँ, जो असमय ही गुरुदेव पर परिश्रम का इतना भार आ पड़ा है, परन्तु कर्ण को तत्काल ही परशुराम जी की शक्ति का भान होता है और वह सोचता है कि वृद्धावस्था होने के बावजूद भी गुरुदेव के शरीर में अथाह शक्ति और सामर्थ्य भरा पड़ा है।

    कर्ण सोच रहा है कि गुरुदेव स्वयं इतना परिश्रम करते हुए और कठोर जीवन व्यतीत करते रहने के बाद भी मुझ पर रात-दिन कितनी ममता दिखलाते रहते हैं अर्थात् उन्हें मेरी फिक्र बनी रहती है।

    विशेष –

    • गुरु भक्ति व शिष्य का गुरु पर तथा गुरु का शिष्य के प्रति जो स्नेह होता है, उसका अनूठा वर्णन किया गया है।
    • तत्सम युक्त खड़ी बोली भाषा।

    (9)
    सच है विपत्ति जब आती है, 
    कायर को ही दहलाती है, 
    शूरमा नहीं विचलित होते, 
    क्षण एक नहीं धीरज खोते, 
    विघ्नों को गले लगाते हैं, 
    काँटों में राह बनाते हैं 
    मुख से न कभी उफ कहते हैं, 
    संकट का चरण न गहते हैं 
    जो आ पड़ता सब सहते हैं 
    उद्योग निरत नित रहते हैं, 
    शूलों का मूल नसाने को, 
    बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

    व्याख्या –

    पाण्डवों ने बारह वर्ष का वनवास व एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण कर लिया है, लेकिन फिर भी उनके मस्तिष्क पर विचलित होने की रेखाएँ नहीं हैं। अतः उसी स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि यह सर्वथा सत्य है कि जब भी विपत्ति आती है, तो उससे कायर ही दहल जाते हैं। वे अपना धैर्य खो देते हैं लेकिन जो वीर और साहसी होते हैं, वे विपत्ति को देखकर जरा-भी विचलित नहीं होते और न ही घबराकर अपना धैर्य खोते हैं। वे संकट को देखकर घबराते नहीं, बल्कि उसका सामना करते हैं। ऐसे वीर, साहसी मनुष्य काँटों में भी राह बना लेते हैं अर्थात् विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अनुकूल कोई-न-कोई स्थिति ढूँढ ही लेते हैं।

    ऐसे वीर मनुष्य संकट से घबराकर मुख से जरा-सी भी उफ नहीं निकालते और न ही संकटों के चरण पड़ते हैं, बल्कि निडर और निर्भयता से उसका सामना करते हैं। उनके सम्मुख कैसी भी विपत्ति हो, उसे सहते हुए निरन्तर अपने धैर्य में तल्लीन रहते हैं। ऐसे वीर मनुष्य काँटो को जड़ से ही उखाड़ देते हैं अर्थात् विपत्ति के आधार को ही वीर व साहसी मनुष्य समाप्त कर देते हैं और स्वयं आगे बढ़कर विपत्ति पर छा जाते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि विपत्ति का सर्वमूल विनाश कर देते हैं।

    विशेष –

    • कवि ने साहसी व वीर पुरुषों के गुणों की विशेषताओं का अद्वितीय वर्णन किया है।
    • अनुप्रास अलंकार।
    • ओजगुण और वीर रस।
    (10)
    मैत्री की राह बताने को, 
    सबको सुमार्ग पर लाने को, 
    दुर्योधन को समझाने को, 
    भीषण विध्वंस बचाने को, 
    भगवान हस्तिनापुर आए, 
    पाण्डव का सन्देशा लाए। 
    दो न्याय अगर तो आधा दो, 
    पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
    तो दे दो केवल पाँच ग्राम, 
    रखो अपनी धरती तमाम । 
    हम वहीं खुशी से खाएँगे। 
    परिजन पर असि न उठाएँगे।

    व्याख्या –

    पाण्डव अपना वनवास व अज्ञातवास पूरा कर चुके थे। वे युद्ध नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपना दूत बनाकर दुर्योधन के पास भेजा। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी इस भयंकर नरसंहार को रोकने के पक्ष में थे, इसलिए यह उचित समझकर पाण्डवों का सन्देश लेकर हस्तिनापुर आ पहुँचे।

    कवि कहता है कि मित्रता की राह बताने और सभी को अच्छे मार्ग पर लाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने व भीषण विध्वंस से बचाने के लिए पाण्डवों का सन्देश लेकर हस्तिनापुर आ पहुँचे। उन्होंने दरबार में आकर दुर्योधन से कहा कि पाण्डवों का यह कहना है कि यदि न्यायपूर्वक तुम हमें कुछ देना चाहते हो, तो आधा राज्य दे दो और यदि यह भी तुम न कर पाओ अर्थात् इसमें भी अगर कोई बाधा है तो तुम हमें केवल पाँच गाँव ही दे दो और पूरी पृथ्वी का शासन भार स्वयं सँभालो। हम उन पाँचों गाँवों में ही खुशी से खाएँगे और अपना जीवन व्यतीत कर लेंगे, लेकिन अपने परिवारजनों पर बिलकुल भी अस्त्र नहीं उठाएँगे।

    रश्मिरथी परिचय

    (11)

    नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है, 
    देता वही प्रकाश आग में जो अभीत जलता है। 
    आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतधारी, 
    हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी। 
    प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना। 
    सबसे बड़ी जाँच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना। 
    अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या? 
    करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या?

    व्याख्या –

    कवि कहता है कि मनुष्य का आदर्श रूप उसकी तपस्या के ऊपर ही निर्भर करता है। प्रकाश वही दे सकता है जो निर्भीक होकर आग में जल सकता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आदर्श मनुष्य अपने सद्‌गुणों को नहीं त्यागता। जो मनुष्य सत्य, व्रत और त्याग का जीवन भर पालन करता है चारों ओर उसी का ही यश फैलता है।

    वीर और अपने व्रत पर अडिग रहने वाले मनुष्य ही अमरता के पद को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् जो जीवन भर अपने व्रत पालन के कारण अनेक संकटों को झेलते हैं, लेकिन तनिक भी अपने व्रत, प्रतिज्ञा से विचलित नहीं होते, ऐसे मनुष्य ही मोक्ष के पद के अधिकारी बनते हैं।

    कवि कहता है कि प्रतिज्ञा करना आसान है, लेकिन सबसे कठिन कार्य उस प्रतिज्ञा का जीवन भर अनुपालन करना है। व्रत का सबसे बड़ा निरीक्षण उसका अन्तिम मूल्य चुकाना होता है। कवि कहता है कि जब तक उस व्रत या प्रतिज्ञा का अन्तिम मूल्य न दिया जाए तो उसके अतिरिक्त अन्य मूल्य देना व्यर्थ होता है। यदि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए प्राण भी चले जाएँ तो फिर भी प्रतिज्ञा से डिगना नहीं चाहिए अर्थात् यदि प्रतिज्ञा का पालन करते हुए प्राणों का मोह हो, तो फिर प्रतिज्ञा लेना व्यर्थ हो जाता है।

    विशेष –

    • यहाँ कवि ने प्रतिज्ञा करना और उसका निर्वहन करना इस विषय का अभूतपूर्व वर्णन किया है।

    (12)
    वीर कर्ण, विक्रमी दान का अति अमोघ व्रतधारी, 
    पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।
    रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था. 
    मुँह माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था 
    थी विश्रुत बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी है 
    दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ठ दानी है; 
    जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो, 
    गो. धरती, गज, वाजि, माँग लो जो जितना भी चाहो।

    व्याख्या –

    यहां कवि ने कर्ण की दानशीलता का परिचय दिया है। कवि कहता है कि कर्ण ने काफी समय पहले दान करने का एक पवित्र और पुण्य प्रण किया था, जिसका वह बीर व पराक्रमी कर्ण लम्बे समय से निर्बाध पालन कर रहा था। उसकी प्रतिज्ञा थी कि सूर्य-पूजा के समय जो भी याचक उसके पास कुछ भी माँगने आएगा, वह उसे उसका मुँह माँगा दान अवश्य देगा। कवि कहता है कि कर्ण अपनी प्रतिज्ञा का लम्बे समय से पालन करने के कारण विश्व विख्यात हो चुका था कि कर्ण गुणवान, ज्ञानी, दीन-हीन के सहायक और विश्व के सर्वश्रेष्ठ दानी है। उनसे जो भी कुछ जाकर माँग लो गाय, धरती, हाथी, घोड़े, जितना भी वे तुरन्त दे देते हैं।

    विशेष –

    • तत्सम युक्त खड़ी बोली।
    • दानवीर रस (वीर रस के प्रमुख भेदों में से एक) का अद्भुत प्रयोग।
    • अनुप्रास अलंकार।
    (13)
    विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे, 
    धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे। 
    पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला, 
    इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला। 
    कहा कर्ण ने 'कौन उधर है? बन्धु सामने आओ, 
    मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सुनाओ। 
    अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है। 
    यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा में तत्पर है।

    व्याख्या –

    कर्ण सूर्य-पूजा पूरी कर चुके हैं तभी याचक वेश में इन्द्र उनके पास आते हैं। कवि कहता है कि नदी के तट पर पक्षी लताओं से पूर्ण बेलों पर चहक रहे थे। धूप, दीप, कपूर, फूल, इन पूजा के सभी समानों से वादाचरण महक रहा था। कर्ण ने सूर्य पूजा पूरी करने के बाद जैसे ही अपनी ध्यान मग्न आँखें खोलीं तो तट के ऊपर उन्हें तिनकों-पत्तों के खड़कने की आवाज आई। उन्हें लगा कि वहाँ कोई है, तो कर्ण ने कहा, "उधर कोई है, हे भाई! सामने आ जाओ। मैं तुम्हारी सेवा में प्रस्तुत हूँ। बिना किसी चिन्ता के अपना आदेश दो, यदि कुछ पीड़ा हो तो बताओ। कर्ण सविनय आपकी आज्ञा का पालन करेगा। यह निर्धनों का सखा है। सदैव तुम्हारी सेवा के लिए तैयार रहेगा।

    (14) 
    वह देख पश्चिमी तट के पास गगन में, 
    देवता दीपते जो कनकाभ वसन में, 
    जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भुत है, 
    तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।" 
    रुक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से, 
    इतने में आई गिरा गगन-मण्डल से, 
    कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो, 
    माँ की आज्ञा बेटा! अवश्य तुम मानो।"

    व्याख्या –

    युद्ध को रोकने का प्रयास सभी कर चुके थे। भगवान श्रीकृष्ण भी हस्तिनापुर आकर दुर्योधन को समझा चुके थे, परन्तु वह नहीं माना। अतः युद्ध की निश्चितता को जानकर कुन्ती उदास हो गई। वह जानती थी कि कर्ण भी उसका ही पुत्र है। यदि युद्ध में कर्ण की मृत्यु हो गई तो तब भी उसकी ही हानि होगी और यदि कर्ण ने अर्जुन या किसी अन्य पाण्डव को मार डाला तो तब भी उसकी ही हानि होगी। यह सोचकर कुन्ती कर्ण के पास युद्ध को रोकने तथा कर्ण को अपने भाइयों की ओर मिलाने के उ‌द्देश्य से आई।

    कवि कहते हैं कि कुन्ती अपने पुत्र कर्ण को समझाते हुए कहती है कि पुत्र! वह जो आकाश में स्वर्ण जैसे वस्त्र पहने, पश्चिम दिशा में (इसका अर्थ है कि यह समय सन्ध्या का है।) देवता चमक रहे हैं जिनका प्रताप चारों ओर विदित है, तुम उन्हीं सूर्यदेव, अंशुधर के प्रकाशमान पुत्र हो।

    इतना कहने के बाद पृथा (कुन्ती) अपने आँचल से आँसुओं को पोंछने लगी, तभी आकाशवाणी हुई कि हे पुत्र, कुन्ती की सारी बात सत्य है। तुम्हें अपनी माता की आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए।

    विशेष –

    • तत्सम युक्त खड़ी बोली।
    • रूपक अलंकार का प्रयोग।

    (15)
    सबकी पीड़ा के साथ व्यथा 
    अपने मन की जो जोड़ सके, 
    मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे 
    निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके। 
    युग पुरुष वही सारे समाज का 
    विहित धर्मगुरु होता है, 
    सबके मन का जो अन्धकार 
    अपने प्रकाश से धोता है।

    व्याख्या –

    यहाँ कवि चिन्तन करते हुए कहते हैं कि ऐसी बात नहीं कि महाभारत का रण टाला नहीं जा सकता था। यदि दुर्योधन ने कुछ भी न देने से मना कर दिया था तो पाँचों पाण्डवों को नियति मानकर अपना शेष जीवन भी आश्रमों या संन्यास ग्रहण करके बिता देना चाहिए था, इससे यह नरसंहार तो रुकन जाता और चारों ओर पाण्डवों का अनन्य यश भी फैल जाता। उसी प्रसंग मे चिन्तन करते हुए कवि कहता है कि जो व्यक्ति सबकी पीड़ा को अपने मन्न की व्यथा बना ले तथा समय को अपने अनुसार इच्छित दिशा में मोड़ ले अर्थात् विपरीत समय को भी अपने अनुकूल कर ले, वहीं मनुष्य युग पुरुष कहलाता है और सम्पूर्ण समाज का धर्मगुरु कहलाता है। ऐसा मनुष्य अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से सबके मन में उपस्थित अन्धकार को नष्ट कर डालता है।

    विशेष –

    • यहाँ कवि ने उपदेशात्मक शैली में अपने विचार समाज के सामने प्रस्तुत किए हैं।
    • कवि के अनुसार, धर्मपुरुष वही होता है, जो सबका पथ-प्रदर्शक बने प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल कर ले तथा सबके मन की व्यथा को अपनी ही पीड़ा समझे। तुलसीदास जी ने भी कहा है
    "परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।"

    (16)
    अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा, 
    किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशंक वह लूट रहा। 
    देखो जिस तरफ, उधर उसके ही बाण दिखाई पड़ते हैं, 
    बस जिधर सुनो, केवल उसके हुंकार सुनाई पड़ते हैं। 
    कैसी करालता! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार ! 
    किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार ! 
    व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजड़ता जाता है, 
    ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुंजर धूम मचाता है।

    व्याख्या –

    युद्ध का अन्तिम चरण चल रहा है। कर्ण को द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद सेनापति का पद भार मिला है। कर्ण की वीरता व पराक्रम को देखकर कृष्ण उदास हो गए और अर्जुन से बोले, "हे अर्जुन, वह देखो, कर्ण किस तरह हमारी सेना का वध कर रहा है। वह हमारी सेना का संहार करके पाण्डवों की वीरता को ललकार रहा है। पूरी रणभूमि में उसी के बाण दिखाई दे रहे हैं। चारों तरफ उसकी हुंकार ही सुनाई दे रही है।

    कर्ण की युद्ध विद्या अद्भुत है। इस समय उसने विकराल रूप धारण कर रखा है। उसकी इस अद्भुत युद्ध कुशलता को तो देखो। वह प्रचण्ड प्रहार से सेना का एक ही वार में संहार कर रहा है। हे अर्जुन ! यह कर्ण रूपी हाथी इस युद्ध भूमि रूपी वन में बड़े ही गर्व से विहार कर रहा है। हमारे सभी व्यूहों को वह अपनी युद्ध कुशलता से क्षण भर में ही तोड़ रहा है। जिस तरह से कर्ण ने आज रणभूमि में आतंक मचाया है, उस तरह तो किसी कमल वन में मदमस्त हाथी भी धूम नहीं मचाता।

    विशेष –

    • कवि ने कर्ण की युद्ध कुशलता का अपूर्व परिचय दिया है।
    • तत्समयुक्त खड़ी बोली भाषा का प्रयोग।
    • रूपक अलंकार का प्रयोग।
    • ओज गुण, वीर रस का प्रयोग।
    • लाक्षणिकता का प्रयोग भी दर्शनीय है।

    महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (Exam Friendly)

    प्रश्न 1. ‘रश्मिरथी’ के रचयिता कौन हैं?

    उत्तर - रामधारी सिंह ‘दिनकर’।


    प्रश्न 2. ‘रश्मिरथी’ में कितने सर्ग हैं?

    उत्तर - कुल 7 सर्ग।


    प्रश्न 3. ‘रश्मिरथी’ का मुख्य पात्र कौन है?

    उत्तर - कर्ण।


    प्रश्न 4. ‘रश्मिरथी’ की प्रमुख काव्यगत विशेषताएँ क्या हैं?

    उत्तर - वीर रस की प्रधानता, ओजपूर्ण भाषा, प्रभावशाली संवाद, सजीव प्रकृति–चित्रण।


    प्रश्न 5. ‘रश्मिरथी’ का प्रकाशन कब हुआ था?

    उत्तर - सन् 1952 ईस्वी में।


    प्रश्न 6. ‘रश्मिरथी’ किस विधा की रचना है?

    उत्तर - यह एक खंडकाव्य है।

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