रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (1908–1974) हिंदी साहित्य के राष्ट्रकवि और महान देशभक्त कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएँ ओज, वीरता, राष्ट्रप्रेम और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत हैं।
इस लेख में हम दिनकर जी का पूरा जीवन परिचय, उनकी प्रमुख रचनाएँ, साहित्यिक विशेषताएँ, और हिंदी काव्य में उनके अमिट योगदान का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह सामग्री छात्रों, प्रतियोगी परीक्षा अभ्यर्थियों और साहित्य प्रेमियों सभी के लिए उपयोगी है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का संक्षिप्त जीवन परिचय
विवरण | जानकारी |
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पूरा नाम | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ |
जन्म | 23 सितम्बर 1908 ई. |
जन्मस्थान | सिमरिया घाट, बेगूसराय जिला, बिहार, भारत |
मृत्यु | 24 अप्रैल 1974 ई. (आयु – 65 वर्ष) |
मृत्यु स्थान | मद्रास (वर्तमान चेन्नई), तमिलनाडु, भारत |
जीवनसाथी | श्यामवती देवी |
पेशा | कवि, लेखक, निबंधकार, विचारक |
साहित्यिक काल | आधुनिक काल |
विधा | गद्य और पद्य |
विषय | कविता, खंडकाव्य, निबंध, समीक्षा |
आंदोलन | राष्ट्रवाद, प्रगतिवाद |
प्रमुख रचनाएँ | कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार |
सम्मान / उपाधि | 1959: साहित्य अकादमी पुरस्कार 1959: पद्म भूषण 1972: ज्ञानपीठ पुरस्कार |
रामधारी सिंह 'दिनकर' का परिचय
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितम्बर 1908 – 24 अप्रैल 1974) हिन्दी साहित्य के अमर कवि, प्रतिभाशाली निबन्धकार और विचारक थे। उन्हें आधुनिक युग का “वीर रस का सर्वोच्च कवि” माना जाता है। राष्ट्रवाद, स्वाधीनता, और सामाजिक चेतना उनके काव्य की आधारभूमि रही है। इसी कारण उन्हें ‘युग-चारण’ और ‘काल के चारण’ की उपाधि दी गई।
स्वतंत्रता पूर्व वे एक विद्रोही कवि के रूप में जाने गए, जबकि स्वतंत्रता के बाद उनका नाम ‘राष्ट्रकवि दिनकर’ के रूप में अमर हुआ। छायावादोत्तर युग के प्रथम प्रमुख कवियों में उनकी गणना होती है। उनकी रचनाओं में जहां एक ओर ओज, संघर्ष और क्रांति की ललकार है, वहीं दूसरी ओर कोमल शृंगार भावनाओं का स्पर्श भी मिलता है। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘उर्वशी’ इन दो प्रवृत्तियों का सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
दिनकर जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम रवि सिंह और माता का नाम मनरूप देवी था। बाल्यावस्था में ही पिता का देहांत हो गया, जिसके बाद परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यंत कमजोर हो गई। फिर भी दिनकर ने कठिन परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की।
उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातक (B.A.) किया तथा संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेज़ी और उर्दू का भी गहन अध्ययन किया। स्नातक के पश्चात वे अध्यापन कार्य में प्रवृत्त हुए और बाद में बिहार सरकार में सब-रजिस्टार तथा प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया।
साहित्यिक जीवन और सेवाएँ
सन् 1934 से 1947 तक वे सरकारी सेवा में रहे, किन्तु मन उनका सदा साहित्य की ओर झुका रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने लंगट सिंह कॉलेज, मुज़फ्फरपुर में हिन्दी विभाग के प्रमुख के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति (1963–65) और बाद में भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार (1965–71) बने।
उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए उल्लेखनीय कार्य किया। उनकी वक्तृत्व शैली और राष्ट्रीय दृष्टिकोण उन्हें संसद में भी विशिष्ट बनाते थे।
दिनकर और नेहरू विवाद
दिनकर जी निडर वक्ता थे। वे सत्य कहने से कभी नहीं कतराते थे, चाहे सामने प्रधानमंत्री नेहरू ही क्यों न हों।
सन् 1962 में चीन युद्ध के बाद उन्होंने संसद में अपनी प्रसिद्ध पंक्तियाँ पढ़ीं —
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।”
इन पंक्तियों ने पूरे देश में हलचल मचा दी। नेहरू स्वयं उनके प्रशंसक थे, परन्तु दिनकर जी ने नीतिगत असहमति पर खुलकर अपनी राय दी। इसी तरह उन्होंने एक बार कहा —
“क्या आपने हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है कि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज़ अपशब्द सुनाए जा सकें?”
उनकी निर्भीकता और स्वाभिमान आज भी भारतीय संसद की यादगार घटनाओं में गिनी जाती है।
दिनकर जी की साहित्यिक विशेषताएँ
दिनकर की कविता में राष्ट्रप्रेम, समाज-सुधार, शौर्य, अन्याय के विरुद्ध विद्रोह और मानवीय संवेदना की अद्भुत संगति मिलती है। उन्होंने अपने काव्य में इतिहास और पौराणिक पात्रों को आधुनिक अर्थों में पुनर्जीवित किया।
उनकी रचनाओं में दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं —
- वीर रस और राष्ट्रवाद (हुंकार, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, रश्मिरथी)
- शृंगारिक और मानवीय संवेदना (उर्वशी, नील कुसुम, धूप-छाँह)
कुरुक्षेत्र में उन्होंने महाभारत के युद्ध के माध्यम से शांति और नीति का संदेश दिया, जबकि उर्वशी में प्रेम और वासना के दार्शनिक पक्षों का विश्लेषण किया।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की प्रमुख रचनाएँ
✍️ कविता संग्रह :
- प्राणभंग (1929)
- रेणुका (1935)
- हुंकार (1939)
- रसवन्ती (1940)
- द्वन्द्वगीत (1940)
- कुरुक्षेत्र — प्रबंध काव्य (1946)
- धूपछाँह (1946)
- सामधेनी (1947)
- बापू (1947)
- इतिहास के आँसू (1951)
- धूप और धुआँ (1951)
- मिर्च का मज़ा (1951)
- रश्मिरथी (1952)
- नीम के पत्ते (1954)
- दिल्ली (1954)
- नीलकुसुम (1954)
- सूरज का ब्याह (1955)
- चक्रवात (1956)
- नये सुभाषित (1957)
- सीपी और शंख (1957)
- कवि श्री (1857)
- उर्वशी (1961)
- परशुराम की प्रतीक्षा (1963)
- कोयला और कवित्त (1964)
- माटी तिलक (1964)
- भगवान के डाकिए (1964)
- आत्मा की आँखें (1964)
- हारे को हरिनाम (1970)
📖 खण्डकाव्य :
- कुरुक्षेत्र (1946)
- रश्मिरथी (1952)
- चक्रवात (1956)
- उर्वशी (1961)
- माटी तिलक (1964)
📚 निबंध संग्रह :
- मिट्टी की ओर (1946)
- अर्द्धनारीश्वर (1952)
- रेती के फूल (1954)
- भारत की सांस्कृतिक कहानी (1955)
- संस्कृति के चार अध्याय (1956)
- हमारी सांस्कृतिक एकता (1956)
- उजली आग (1956)
- राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता (1958)
- वेणु वन (1958)
- धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959)
- वट पीपल (1961)
- राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी (1968)
- साहित्यमुखी (1968)
- हे राम (1969)
- भारतीय एकता (1971)
- विवाह की मुसीबतें (1973)
- चेतना की शिखा (1973)
- आधुनिकता बोध (1973)
🧐 आलोचना :
- काव्य की भूमिका (1958)
- पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण (1958)
- शुद्ध कविता की खोज (1966)
- साहित्यमुखी (1968)
- आधुनिक बोध (1973)
🕊️ संस्मरण :
- वट पीपल (1961)
- लोकदेव नेहरू (1965)
- संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ (1969)
- शेष–निःशेष (1985)
🌏 यात्रा-वृतांत :
- देश-विदेश (1957)
- मेरी यात्राएँ (1970)
🎵 गद्य गीत :
- उजली आग (1956)
- नीम के पत्ते
- सीपी और शंख
- रश्मिरथी
- उर्वशी
- संस्कृति के चार अध्याय
- परशुराम की प्रतीक्षा
📔 डायरी :
- दिनकर की डायरी (1973)
🌿 अनुवाद :
- आत्मा की आँखें / डी. एच. लारेंस (1964)
पुरस्कार और सम्मान
- साहित्य अकादमी पुरस्कार – संस्कृति के चार अध्याय (1959)
- भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार – उर्वशी (1972)
- पद्म विभूषण – 1959
- डॉक्टरेट की मानद उपाधि – भागलपुर विश्वविद्यालय
- राज्यसभा सदस्य – तीन बार निर्वाचित
- भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी – 1999
मरणोपरांत सम्मान :
- 1987 में उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने श्रद्धांजलि दी।
- 2008 में बिहार सरकार ने उनकी जन्मशती पर भव्य प्रतिमा का अनावरण किया।
- कालीकट विश्वविद्यालय तथा अन्य संस्थानों ने उनके व्यक्तित्व पर राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित कीं।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के संबंध में अन्य विद्वानों के विचार
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते है कि – “दिनकर अहिन्दीभाषियों के बीच सबसे अधिक लोकप्रिय कवि थे।”
हरिवंश राय बच्चन के अनुसार – “दिनकर को एक नहीं, गद्य-पद्य दोनों के लिए चार ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने चाहिए।”
रामवृक्ष बेनीपुरी के अनुसार – “उन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।”
नामवर सिंह कहते है – “दिनकर अपने युग के सचमुच ‘सूर्य’ थे।”
राजेन्द्र यादव ने कहा था कि "दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया।"
काशीनाथ सिंह के अनुसार "दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।"
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की अमर पंक्तियाँ
उसको क्या जो दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।” — कुरुक्षेत्र
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रख लो अपनी धरती तमाम।” — रश्मिरथी
पहले विवेक मर जाता है।” — रश्मिरथी
चट्टानों की छाती से दूध निकालो,
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो, — वीर से
उपसंहार
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ केवल कवि नहीं, बल्कि एक युग की आवाज़ थे। उनके शब्दों में ओज था, विचारों में सत्य था और भावनाओं में राष्ट्र का हृदय धड़कता था। उन्होंने भारतीय संस्कृति को आधुनिक चेतना के साथ जोड़ा और हिन्दी साहित्य को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई।
उनकी लेखनी आज भी प्रेरणा देती है कि —
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।”
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