'बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !' यह कविता निराला जी के 'अर्चना' कविता संग्रह में संकलित है। 'अर्चना' का प्रकाशन 1950 ई. में हुआ था। 'बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु !' कविता में कवि 'डलमऊ' के पक्के घाट पर गुंबद के नीचे बैठकर अपनी पत्नी को याद करके यह कविता लिखे थे। कवि नाविक को अपनी नाव उस जगह पर बाँधने के लिए मना करते हैं जिस घाट पर उनकी पत्नी नहाती थी। जिसे देखकर उनकी आँखें वहाँ टिकी रह जाती थी। कवि ने नाव के रूपक और घाट के बिंब को लेकर एक साथ कई बातें कहीं है। कविता का अर्थ प्रेयसी या पत्नी से जुड़ा हुआ है।
'बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु' कविता का सारांश
प्रस्तुत कविता 'बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु' सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी का प्रेम गीत है। प्रस्तुत कविता में कवि ने अपने अज्ञात प्रेम को प्रस्फुट किया है। निराला जी ने अपने अव्यक्त प्रेम को इस गीत के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयत्न किया है। अपने निश्छल और निर्मल प्रेम को हालाँकि वो स्वर नहीं दे पाए। उसे उन्होंने अपने हृदय की गहराइयों में छिपाकर ही रखा, लेकिन प्रेम को जितनी मौन की भाषा प्रिय है, उतनी ही उसे मुखरता प्रिय है, इसलिए मल्लाह को उस घाट पर अपनी नाँव बाँधते देख निराला जी को अपने अव्यक्त प्रेम की विस्मृति हो आई। वे याद करते हैं कि यह वही घाट है, जहाँ पर उनकी प्रेमिका हँस-हँसकर नहाती थी और कवि उसे छिपकर देखा करते थे। हालाँकि भय के कारण उनके पैर काँपने लगते थे, लेकिन प्रेम विवश वे अपनी प्रेमिका को निहारने लगते थे।
कवि को यह भी पता था कि वह भी सम्भवतः उनसे प्रेम करती है, क्योंकि अपने सवालों के जवाब उन्हें अपनी प्रेमिका की हँसी में मिल जाते थे। अतः उस बात को याद करते हुए कवि मल्लाह को उस घाट पर नाँव न बाँधने के लिए कहते हैं, क्योंकि यह घाट वही है जिस पर उनकी प्रेमिका स्नान करने के लिए आती थी। वे उस स्थान की यादों को अपने दिल में सँजोए हुए हैं। वह स्थान उनके लिए बहुत महत्त्व रखता है, सम्भवतः इसीलिए कवि निराला मल्लाह को उस स्थान पर अपनी नाव बाँधने से मना कर रहे हैं।
कविता स्त्री के प्रति समाज की रूढ़िवादी विचारधारा को भी प्रदर्शित करती है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को गूंगा-बहरा बना दिया जाता है, जहाँ पुरुष को अपनी इच्छाओं को प्रदर्शित करने का सामाजिक अधिकार है, वहीं स्त्री की आवाज को दबा दिया जाता है। वह अपनी इच्छाओं को मुखर नहीं कर सकती। प्रेम की प्रतिक्रियाएँ करना मानो उसके लिए पाप या अधर्म के समान है, परन्तु यह कहना अनुचित है कि यदि स्त्री अपनी प्रेम व काम की चेतनाओं को जड़ कर लेती है, तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह निशक्त है। उसकी उपेक्षित हँसी में सभी सवालों के जवाब हैं। अपनी इस हँसी के माध्यम से वह अपना विरोध अप्रत्यक्ष रूप से दर्ज करा ही देती है
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती भी सबसे दाँव बन्धु ।
अतः प्रस्तुत कविता निराला जी की अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्ति ही नहीं, अपितु लोक चेतना की उपस्थिति भी दर्ज कराती है। स्त्री असहाय होकर भी शक्तिहीन नहीं है। वह सभी सवालों का जवाब देना भी जानती है। कविता में स्त्री की उसी शक्ति का परिचय पुरुष प्रधान समाज को कराया गया है।
'बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु' के पदों की व्याख्या
पूछेगा सारा गाँव बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर
वही कभी नहाती थी धँसकर
आँखें रह जाती थीं फँसकर
कँपते थे दोनों पाँव बंधु !
व्याख्या -
निराला जी कहते हैं कि हे मल्लाह! इस घाट पर अपनी नाव मत बाँधों, अन्यथा, सारा गाँव मुझसे इस विषय पर पूछेगा। तात्पर्य यह कि कवि अपने अज्ञात प्रेम की विस्मृति करते हुए मल्लाह को उस स्थान पर नाँव बाँधने के लिए मना कर रहे हैं, जहाँ उनकी प्रेमिका प्रतिदिन आया करती थी। कवि कहते हैं कि अरे भाई, यह घाट वही घाट है, जहाँ वह नायिका हँसती हुई नहाया करती थी और उसकी सुन्दरता को देखकर मेरी आँखें उसके प्रेम में फैस-सी जाती थी अर्थात् मैं उसकी सुन्दरता को केवल निहारता ही रह जाता था, हालांकि इस भय से कि कोई मुझे देख न ले, मेरी टाँगे थर-थर काँपती रहती थीं, फिर भी उसे देखने का मोह मैं छोड़ नहीं पाता था।
विशेष -
- कवि ने उपरोक्त पद में अपने अज्ञात प्रेम की ओर संकेत किया है।
- चित्रोपमा शैली का प्रयोग किया गया है।
- माधुर्य गुण, अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग किया है।
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी, सहती थी
देती थी सबके दाँव बंधु!
व्याख्या -
कवि कहता है कि उसकी प्रेमिका भी उनसे प्रेम करती थी, लेकिन उस प्रेम को अभिव्यक्ति नहीं दे पाई। निराला जी कहते हैं कि उसकी हँसी बहुत से प्रश्नों का उत्तर देती है। फिर भी उसने स्वयं को सीमा में ही रखा। वह सबकी सुनती थी और सब कुछ सहती थी तथा सबके सवालों का जवाब बहुत ही सहजता से देती है। कहने का तात्पर्य यही है कि वह हँसती हुई तथा सबकी सुनती और सहती हुई अपनी उपस्थिति और शक्ति का आभास सबको करा देती थी।
विशेष -
- प्रस्तुत पद में पुरुष प्रधान समाज में नारी की मूक-बधिर स्थिति का वर्णन किया गया है।
- स्त्री अपनी हँसी के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज करा देती है। स्त्री का गहन विश्लेषण कवि द्वारा किया गया है।
- यहाँ माधुर्य गुण का प्रगोग किया गया है।
बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
✅ यह स्मृति की व्यथा को अभिव्यक्त करने वाली कविता है।
✅ यह कविता 1950 में रचित है ।
✅ निराला के कविता संग्रह 'अर्चना' में संकलित ।
✅ कविता का सार -
- कवि एक लंबी अवधि के बाद उसी घाट से होकर गुज़रते हैं, जहाँ कभी उन्होंने अपनी प्रिया के साथ प्रेम के पल बिताये थे।
- उनकी पुरानी स्मृतियाँ ताज़ा हो जाती हैं,वे कुछ पल वहाँ ठहरकर उन मीठी यादों में डूबना चाहते हैं किंतु वे ऐसा कर नहीं पाते।
- वे जानते हैं कि वहाँ रुकने पर लोग तरह-तरह के सवाल करेंगे क्योंकि वे उस स्थान विशेष से उनकी निजी आत्मीयता को नहीं जानते, उनकी स्मृति में बसे उस भोले सौन्दर्य को नहीं पहचानते।
- कवि सोचते हैं कि इस गाँव के लोग उनकी स्मृति में संचित प्रेम की मौन भाषा को नहीं समझ सकेंगे,जो उन्हें यहाँ रुकने के लिये विवश कर रही है। वे तरह-तरह के सवाल करके उन्हें उनके हृदय के आनंद से वंचित कर देंगे। अतः वे वहाँ नहीं रुकते।
बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !' शीर्षक कविता किस काव्य-संग्रह में संगृहीत है?
- अणिमा
- अर्चना
- सांध्य-काकली
- आराधना
उत्तर - 2. अर्चना
प्रश्न 2. 'अर्चना' का प्रकाशन कब हुआ था?
- 1950
- 1940
- 1945
- 1960
उत्तर - 1. 1950
प्रश्न 3. 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !' में कितनी मात्राओं की पंक्तियाँ है?
- 18
- 16
- 14
- 12
उत्तर - 2. 16
प्रश्न 4. 'ठाँव' का क्या अर्थ है?
- घाट
- धारा
- आकाश
- स्थान
उत्तर - 4. स्थान

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