'ब्रह्मराक्षस' कविता का सारांश
ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की प्रसिद्ध फैंटेसी कविता है। इस पूरी कविता पर कवि की मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा है। कहा जाता है कि यदि कोई विद्वान ब्राह्मण या कोई भी ब्राह्मण आत्महत्या कर ले या उसकी असामयिक मृत्यु हो जाए तो वह प्रेत योनि में जन्म लेकर ब्रह्मराक्षस बन जाता है। प्रस्तुत कविता में जिस ब्रह्मराक्षस की बात की गई है वह मार्क्सवादी विचारधारा का है। मुक्तिबोध की यह प्रमुख विशेषता रही है कि वे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बात को अपनी फंतासी प्रतीक्षात्मक से व्यक्त करते हैं।
मुक्तिबोध के अनुसार, मार्क्सवादी विचारधारा का भारत से अस्तित्व शनैः-शनैः खत्म होता जा रहा है। लोगों का अब उस पर मोह ही नहीं रहा। वर्तमान समय में भारतीय मार्क्सवादी विचारधारा को अपने तथा देश के लिए एक खतरा मानते हैं।
मार्क्सवादी विचारधारा एक सत्तत् विचारधारा है, जो अपने समय में तीव्रता से प्रवाहित हुई। तत्कालीन विद्वानों ने उसे अपने जीवन में उतारा तथा अन्य लोगों को भी उसका अनुसरण करने के लिए उत्प्रेरित किया, परन्तु इस विचारधारा के समाप्त होने पर मुक्तिबोध के अनुसार उन्हें यह सन्देह है कि जो विचारधारा संसार में अन्य विचारधाराओं की अपेक्षा नवीन व समष्टियुक्त चेतना से पूर्ण थी तथा समानता की प्रतीक थी, वो समाप्त होने के कगार पर कैसे आ सकती है।
'ब्रह्मराक्षस' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
शहर के उस ओर खण्डहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठण्डे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
बावड़ी का घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।
विगत शत पुण्य का आभास
जंगरी हरी कच्ची गन्ध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन सन्देह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके-सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुंडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत
व्याख्या - कवि कह रहा है कि शहर से दूर एक खण्डहर है, जहाँ कोई आता-जाता नहीं है। वहाँ एक सूनी-सी बावड़ी है। उस बावड़ी के भीतर अन्धेरे में गहराई युक्त ठण्डा जल है, जिसमें अनेक सीढ़ियाँ डूबी हुई हैं। उन सीढ़ियों का आधार इतनी गहराई तक है, जो कि समझ से बाहर है। कवि के अनुसार, ये बावड़ी वो मार्क्सवादी विचारधारा है, जिसकी ज्ञान रूपी अथाह जलराशि में अनेक विचार (सीढ़ियाँ) डूबे हुए हैं अर्थात् उन विचारों की बातें इतनी गहरी हैं, जो समझ से बाहर हैं।
उस बावड़ी को बहुत-सी डालों ने घेर रखा है, जो कि आपस में उलझी हुई हैं। वहाँ कुछ शान्त बुद्धिजीवी गूलर के पेड़ खड़े हैं, जिनकी शाखाओं पर घुग्घुओं के पूरे गोल घोंसले लटके हुए हैं। कवि का मानना है विगत में देश को मिली श्रेष्ठता आज खतरे में है। आज उस श्रेष्ठता पर कवि को सन्देह हो रहा है। उसका मन विचलित हो रहा है कि कहीं इस श्रेष्ठता पर कोई अन्य श्रेष्ठता आकर प्रश्न चिह्न न लगा दे। कवि आगे कहता है कि उस बावड़ी रूपी मार्क्सवादी के दुर्ग के मुण्डेर पर जो लाल कनेर का झण्डा है उस पर श्वेत टगर का फूल उस झण्डे का तारा है।
(2)
बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूंज की भी गूंज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पन्जे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल !! और... होठों से
अनोखा स्रोत कोई क्रुद्ध मन्त्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार !!
उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह !!
किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चाँदनी ने
ज्ञान-गुरु माना उसे।
व्याख्या - कवि कहता है कि उन गहरी बावड़ी में एक ब्रह्मराक्षस बैठा है, जो पागलों की तरह बड़बड़ा रहा है, जिस प्रकार मार्क्सवादी क्रान्ति की बात करते हैं। वह ब्रहाराक्षस गहन अनुमान लगा रहा है और शरीर के मैल को दूर करने के लिए तथा अपने पूर्व किए पापों का प्रायश्चित करने के लिए ब्रह्मराक्षस रात दिन स्वयं को स्वच्छ करने के लिए अपने शरीर को घिस रहा है तथा अपने मुँह को पानी से धो रहा है, लेकिन मैल फिर भी दूर नहीं हो रहा है।
कहने का तात्पर्य यही है कि मार्क्सवादी अपनी गलतियों को ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे हैं, बार-बार करते हैं, लेकिन फिर भी देश से अपनी विचारधारा को खत्म होने का कारण नहीं मिलता। असफलता मिलने पर मार्क्सवादी क्रुद्ध होते हैं, संघर्ष करते हैं, लेकिन यहाँ ब्रह्मराक्षस क्रोध में मन्त्रों का उच्चारण कर रहा है या संस्कृत में गालियाँ दे रहा है। ब्रह्मराक्षस के मस्तिष्क की लकीरें इसी आलोचना में दिन-रात लगीं रहती है। वह स्नान करता रहता है, लेकिन उसके प्राणों में संवेदनाओं के अँधेरों के सिवाय कुछ भी नहीं है। गहरी बावड़ी की भीतरी दीवारों पर यदि कोई सूर्य की किरण आ जाती है, तो ब्रह्मराक्षस समझता है कि सूर्य उसे नमस्कार कर रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह मार्क्सवादी कोई आन्दोलन की अगुवाई करने पर गौरव का अनुभव करते हैं और जब कभी भूलकर चन्द्रमा की कोई चाँदनी की किरण दीवार पर टकराती है तो ब्रह्मराक्षस समझता है कि चाँदनी ने उसकी वन्दना की है और उसे अपना गुरु मान लिया है।
(3)
और तब दुगने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
वे तब से आज तक के सूत्र
छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एन्जेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सात्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अन्तों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।
...ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्घान्त शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुण्डेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ !
है बन रहा
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हें प्राचीन ओदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गई।
व्याख्या - ब्रह्मराक्षस दोगुने उत्साह से फिर सुमेरी-बेबिलोनी जैसी प्राचीन कथाएँ, मधुर वैदिक ऋचाएँ, सूत्र, छन्द, मन्त्र, प्रमेय तथा मार्क्स, एन्जेल्स, रसेल, टॉएन्बी, हीडेग्गर, गांधी आदि के सिद्धान्तों को सुन रहा है तथा उन पर व्याख्यान दे रहा है। उन घनी, रिक्त, गहरी बावड़ियों में ब्रह्मराक्षस की ध्वनियों दीवारों से टकराकर आपस में टकरा रही हैं। उस बावड़ी की मुण्डेरों पर बैठे टगर के सफेद फूल, करौंदी के फूल, गूलर और स्वयं कवि उस ब्रह्मराक्षस के व्याख्यान को सुन रहे हैं। कवि का यहाँ तात्पर्य है कि मार्क्सवादी विचारों को सुनने वाली सभाएँ कम ही होती हैं और उन सभाओं में भी उन मार्क्सवादी व्याख्याओं को कम लोग ही सुनते हैं, जिनमें से एक स्वयं कवि भी है, क्योंकि कवि स्वयं भी एक मार्क्सवादी है।
(4)
खूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अन्धेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यन्तर निराले लोक की।
एक चढ़ना औं' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक उच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
... अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक-संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
....अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अन्तर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं !!
व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों से कविता का दूसरा भाग आरम्भ होता है। कवि यहाँ कहता है कि मार्क्सवाद की राह में बहुत कठिनाइयाँ आती हैं। यह मार्क्सवादी जीने से साम्यवादी जैसे निराले लोक में जाता है, परन्तु उन जीनों की सीढ़ियों पर चढ़ना-उतरना आसान नहीं है। पैरों में मोच आ जाती है और छाती में अनेक घाव हो जाते हैं। बुराई और अच्छाई के बीच जारी संघर्ष उम्र होता जाता है। यहाँ सफलता कम, लेकिन असफलताएँ अधिक मिलती हैं, परन्तु ये असफलताएँ प्यारी होती हैं। इन्हीं से ही सफलताओं का मार्ग प्रशस्त होता है। मार्क्सवाद का यह सिद्धान्त कोई ज्यामिति या गणित का सिद्धान्त नहीं हैं जो पूर्ण रूप से अपने सिद्धान्त के अनुरूप हो। मनुष्य को सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने में पीड़ा तो होती ही है, लेकिन यहाँ इस पीड़ा का महत्त्व है और यह पीड़ा आनन्ददायक भी है।
(5)
पिस गया वह भीतरी
औं' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच !!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा की सो गई
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।
व्याख्या - अन्त में ब्रह्मराक्षस अपने ही सिद्धान्तों के बीच उलझकर मर गया। वह स्वयं ही उस बावड़ी में पागलों की तरह अपने उन सिद्धान्तों का गणित लगाता रहा और मर गया, जिस तरह किसी घनी झाड़ी के कण्टीले अँधेरों में उलझकर कोई पक्षी मर जाता है और विदा हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मार्क्सवादी विद्वान अपने ग्रन्थों, विचारों, विमर्शों में ही उलझकर मर जाता है अर्थात् अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता और फँस जाता है।
कवि को उस ब्रह्मराक्षस के मरने का दुःख है, क्योंकि कवि उसका शिष्य बनना चाहता था, जिससे वह उसके अधूरे कार्यों को पूरा कर सके तथा उसकी वेदनाओं का कुछ निष्कर्ष निकाल सके।
विशेष -
- सम्पूर्ण कविता मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित है।
- प्रतीकात्मक शैली का अद्भुत प्रयोग किया गया है।
- उपमा और विरोधाभास अलंकार।
ब्रह्मराक्षस कविता के महत्त्वपूर्ण तथ्य
- ब्रह्मराक्षस कविता 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' (1964) कविता संग्रह में संकलित है।
- यह फैंटेसी शिल्प में रचित एक लंबी प्रतीकात्मक कविता है ।
- मुक्तिबोध की कविताओं में प्रारंभ में कथ्य के अनुरूप परिवेश की सृष्टि एवं उसके पश्चात् कथ्य की अभिव्यक्ति है जिसका उदाहरण 'ब्रह्मराक्षस' कविता है।
- यह आत्मान्वेषण, आत्मशोधन एवं आत्मविस्तार की कविता है।
- 'ब्रह्मराक्षस' बौद्धिक चेतना का, 'बावड़ी का जल' अर्जित सैद्धांतिक ज्ञान का प्रतीक है।
- इस कविता पर कवि की मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा है।
Brahmarakshas Kavita MCQ
प्रश्न 01. ब्रह्मराक्षस' किस प्रकार की कविता है?
- फैंटेसी
- आत्मान्वेषण, आत्मशोधन, आत्मविस्तार
- लंबी कविता
- उपर्युक्त सभी
- अनामिका
- चांद का मुंह टेढ़ा
- गीतिका
- इनमें से कोई नहीं
- 'ब्रह्मराक्षस' मुक्तिबोध की फैंटेसी शिल्प में रचित कविता है।
- 'ब्रह्मराक्षस' यहाँ बौद्धिक चेतना का प्रतीक है।
- कथ्य के अनुरूप परिवेश का निर्माण कविता की विशेषता है।
- यह कविता कवि के 'भूरी-भूरी खाक धूल' कविता संग्रह में संकलित है।
- ज्ञान व्यक्ति की संवेदनाओं को विस्तार देता है।
- प्रत्येक व्यक्ति की बौद्धिक चेतना को संघर्ष से गुजरना पड़ता है।
- अर्जित ज्ञान की सार्थकता उसे समग्र रूप में वर्तमान को सौंपने में है और यही बौद्धिक चेतना का संघर्ष है।
- अहंकार में कैद बौद्धिक चेतना मूल तेजस् को खो देती है।
- अँधा युग
- चाँद का मुँह टेढा
- भूरी-भूरी खाक धूल
- नए साहित्यकार का सौंदर्य शास्त्र
- अहंकार
- ज्ञान
- संघर्ष
- बौद्धिक चेतना
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