हिन्दी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। उस काल में नाटककारों ने लोक चेतना के विकास के लिए नाटकों की रचना की सामाजिक समस्याओं को नाटकों में अभिव्यक्त किया।
भारतेन्दु पूर्व भी नाटकों व अन्य विधाओं का मंचन हुआ। हिन्दी में साहित्यिक रंगमंच के निर्माण का श्रीगणेश आगाहसन 'अमानत' लखनवी के 'इन्दर सभा' नामक गीति-रूपक से माना जा सकता है। भारतेन्दु इनको 'नाटकाभास' कहते थे। हिन्दी के विशुद्ध साहित्यिक रंगमंच और नाट्य-सृजन की परम्परा की दृष्टि से सन् 1868 का बड़ा महत्त्व है। भारतेन्दु के नाटक लेखन और मंचीकरण का प्रारम्भ यही से हुआ था।
हिन्दी रंगमंच और विकास के चरण
हिन्दी रंगमंच संस्कृत, लोक एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि का आधार लेकर विकसित हुआ है। हिन्दी रंगमंच का प्रारम्भ 1853 ई. में नेपाल के माटगाँव में अभिनीत 'विद्या विलाप' नाटक से माना जाता है, किन्तु यह नेपाल तक ही सीमित रहा। वास्तव में, हिन्दी रंगमंच का नवोत्थान 1871 ई. में स्थापित 'अल्फ्रेड नाटक मण्डली' से हुआ, जिसने भारतेन्दु, राधाकृष्ण दास के नाटकों का मंचन प्रस्तुत किया।
हिन्दी में अव्यावसायिक रंगमंच का सूत्रपात 1868 ई. में बनारस थिएटर के साथ हुआ। 1884 ई. में बनारस में 'नेशनल थिएटर' की स्थापना हुई। भारतेन्दु के 'अंधेर नगरी' का प्रथम मंचन नेशनल थिएटर में ही किया गया था।
हिन्दी रंगमंच के विकास में 'भारतेन्दु नाटक मण्डली' (1906) की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस मण्डली ने लगभग डेढ़ दर्जन नाटकों का मंचन किया, जिसमें सत्य हरिश्चन्द्र, सुभद्रा-हरण, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी प्रमुख हैं। इस नाटक मण्डली ने भारतेन्दुयुगीन नाटकों के साथ-साथ प्रसाद के नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित कर हिन्दी में अपने स्वतन्त्र रंगमंच के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। 1939 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की 'विक्रम परिषद्' की स्थापना हुई। सर्वप्रथम इसके द्वारा नाटकों में स्त्री पात्र के लिए स्त्रियों द्वारा ही अभिनय की परम्परा की शुरुआत हुई।
हिन्दी रंगमंच के विकास में 'बलिया नाट्य समाज' (1884 ई.) की भूमिका ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ई. में यहीं पर भारतेन्दु के नाटक पर एक लम्बा व्याख्यान दिया गया था, उसी समय 'सत्य हरिश्चन्द्र' तथा 'नील देवी' नाटकों का मंचन किया गया। इसमें भारतेन्दु ने हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के मंचन को उस क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी।
इस सन्दर्भ में गोपाल राम गहमरी ने लिखा है कि “पात्रों का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय हिन्दी में नाटक स्टेज पर सुना था।” हिन्दी रंगमंच के विकास में काशी के पश्चात् इलाहाबाद के रंगमंचों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। यहाँ के महत्त्वपूर्ण नाट्य मंच 'आर्य नाट्य सभा', 'श्री रामलीला मण्डली' तथा 'हिन्दी 'नाट्य समिति' थे। कानपुर की संस्थाओं ने भी हिन्दी रंगमंच को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहाँ के प्रमुख नाट्य मंच हैं- 'भारत नाट्य समिति' और 'भारतीय कला मन्दिर'।
वर्तमान समय में कानपुर की 'कानपुर अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स' तथा 'एम्बेसडर' संस्थाएँ समकालीन नाटकों के मंचन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। बिहार में 'पटना नाटक मण्डली' (1876 ई.) तथा 'अमेच्योर ड्रामेटिक एसोसिएशन' उल्लेखनीय नाट्य मंच रहे हैं।
हिन्दी का लोक रंगमंच
लोक रंगमंच की संज्ञा उन नाट्य रूपों को दी जाती है, जो समुदाय के आनन्द व उल्लास की सामूहिक अभिव्यक्ति होते हैं तथा समाज में प्रचलित रूढ़ियों, धार्मिक अनुष्ठानों और लोक कथाओं से जुड़े हैं। हिन्दी लोक रंगमंच पर महाकाव्यों, लोक कथाओं, पुराणों आदि का निरन्तर मंचन किया जाता है. जिनमें रामायण, कृष्णलीला, महाभारत आदि प्रमुख हैं। आधुनिक हिन्दी नाटककारों के नाटकों का मंचन भी बड़ी कुशलता से किया जा रहा है। हिन्दी भाषा के साथ-साथ उसकी बोलियों के क्षेत्र में भी भिन्न-भिन्न शैलियों में नाटकों का प्रदर्शन किया जाता रहा है, जिनमें प्रमुख शैलियाँ निम्न हैं
नोटंकी यह गेय नाटक है और इसका प्रदर्शन उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान में होता है।
ख्याल लोक नाट्य रूप ख्याल का राजस्थान में अत्यधिक प्रचार है। ख्याल का प्रदर्शन समूचे राजस्थान और उसके आस-पास के प्रदेशों में बहुत लोकप्रिय है।
सांग (स्वांग) सांग हरियाणा की सांस्कृतिक धरोहर है। इनमें पद्य व संगीत का महत्त्व है। इनमें लोक धुनों का बहुत सुन्दर प्रयोग होता है।
नुक्कड़ नाटक की भूमिका
नुक्कड़ नाटक एक ऐसी नाट्य विधा है, जो परम्परागत रंगमंचीय नाटकों से भिन्न है। यह रंगमंच पर नहीं खेला जाता तथा सामान्यतः इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं की जाती, बल्कि वर्तमान सामाजिक विषयों को केन्द्र में रखकर खेला जाता है।
छठे दशक में हिन्दी रंगमंच को आम जनता तक और अधिक व्यापक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु तथा एक आम बोलचाल की भाषा में जन समस्याओं को सम्बोधित करने की आवश्यकता ने नुक्कड़ नाटकों के प्रयोग को अनिवार्य बना दिया।
देशव्यापी परिस्थितियों के बदलने से आम जनता के शोषण में वृद्धि और जन-संघर्ष की साहित्य और कलाओं में उभर रही अभिव्यक्ति को नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने में नुक्कड़ नाटकों का कोई सानी (प्रतिद्वन्द्वी) नहीं था। परम्परागत भारतीय लोक मंचों की साधारण उन्मुक्तता, लचीलापन, संगीतात्मकता, सामूहिकता, आर्थिक न्याय में कमी आदि ने नुक्कड़ नाटकों को और अधिक लोकप्रिय बनाया। नुक्कड़ मंच द्वारा सामाजिकता एवं राजनीतिक साझीदारी और दायित्व की बात उठाई जाती है। नुक्कड़ नाटकों का दर्शक समूह, सड़क पर चलते लोग, दफ्तरों, कारखानों से निकले कर्मचारी, मजदूर, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी आदि होते हैं।
यह 30 से 40 मिनट में जानी-पहचानी घटनाओं एवं स्थितियों के कई तनावपूर्ण पहलुओं को उजागर करके दर्शक को उकसाना और प्रेरित करना चाहता है। इसकी भाषा, उसके छोटे-छोटे दृश्य, तीव्रता, प्रखरता, प्रत्यक्ष साझेदारी, गीत-संगीत, एक्शन, व्यंग्य एवं वक्रोक्ति, प्रभावशाली संवाद आदि मौलिकता के आधार हैं।
लोक नाटकों की भाँति लचीलापन और परिवर्तनशीलता इसकी प्रमुखता है। दिल्ली में नुक्कड़ नाटक को लोकप्रिय बनाने में 'सफदर हाशमी' की भूमिका अविस्मरणीय मानी जाती है। भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों में अपनी-अपनी नुक्कड़ टोलियाँ हैं और आज भी यह जनता एवं नाटक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में सतत क्रियाशील हैं।
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