मुक्तिबोध का जीवन परिचय
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म वर्ष 1917 को ग्वालियर (मध्य प्रदेश) के श्योपुर कस्बे में एक कुलकर्णी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता पुलिस विभाग में सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता के बार-बार स्थानान्तरण होते रहने के कारण इनकी पढ़ाई में व्यवधान आते रहे। वर्ष 1938 में बी. ए. पास करने के पश्चात् मॉडर्न स्कूल, उज्जैन में अध्यापक हो गए।
मुक्तिबोध का जीवन संघर्षों और विरोधों की कहानी है। वर्ष 1935 में इनका लेखन कार्य आरम्भ हो गया था। 'कर्मवीर' पत्रिका में इनकी प्रारम्भिक रचनाएँ छपने लगी थीं। प्रथम बार फैण्टेसी का प्रयोग मुक्तिबोध की रचनाओं में देखने को मिला. 'अँधेरे में' फैण्टेसी शैली की रचना है। मुक्तिबोध की फैण्टेसी अनुभव की कन्या है।
मुक्तिबोध की रचनाओं को जब वर्ष 1943 में अज्ञेय ने तारसप्तक में स्थान दिया, तो साहित्य जगत ने इनकी महत्ता को समझा। नामवर सिंह के अनुसार, "नई कविता में मुक्तिबोध की वही जगह है, जो छायावाद में निराला की थी।"
साहित्यिक परिचय मुक्तिबोध की कविताओं में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव मिलता है।
इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं- चाँद का मुँह टेढ़ा, भूरी-भूरी खाक धूल।
'भूल-गलती' कविता का सारांश
प्रस्तुत कविता 'भूल-गल्ती' मुक्तिबोध काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' से उद्धृत है। इसमें कवि 'मुक्तिबोध' ने बुद्धिजीवी वर्ग की कायरता व आमजन की दरिद्रता का चित्रण किया है। सामन्ती वर्ग के अत्याचारों के विषय में कवि कहता है कि बुद्धिजीवियों को कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी गलतियाँ पूरे समाज में फैली हैं। वर्तमान समय में मनुष्य अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर गलतियाँ करता रहता है तथा न ही इन भूलों के प्रति पश्चाताप करता है। 'मुक्तिबोध' कहते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग के सामने आमजन बेबस व लाचार मुद्रा में खड़े रहते हैं, वे उनका सामना नहीं कर सकते हैं।
कवि ने एक भोग विलासी क्रूर शासक के सम्मुख एक हथकड़ियों में जकड़े व्यक्ति को दिखाया है। उसका शरीर अगणित घावों से भरा है व उसके कपड़े फटे हुए हैं। उसकी दयनीय स्थिति को देखकर दरबारी भी दया भाव से भर जाते हैं, परन्तु वह व्यक्ति सुल्तान की आँखों में निडरता से देखता है, उसे बिलकुल भी भय नहीं है। कवि कहता है कि उस व्यक्ति को अपनी ईमानंदारी पर पूरा विश्वास है। उसे संकोच की जिन्दगी जीना स्वीकार्य नहीं है। कवि सोचता है कि समाज रूपी सल्तनत को गलती रूपी काली छाया ने घेरा है, लेकिन कवि फिर यह भी बताता है कि सम्पूर्ण समाज ऐसा नहीं है। उसमें सत्य और ईमानदारी की पैठ अभी भी उपस्थित है।
कवि ईमानदार व्यक्ति की व्यथा के विषय में कहता है कि अराजक शक्तियों के सामने मौन धारण करना आमजन की मजबूरी हो जाती है। क्रूर शासक रूपी भ्रष्ट व्यक्तियों ने हमारी इसी मजबूरी का लाभ उठाकर लोहे का कवच बना लिया है। वे साधारण वर्ग की आँखों में धूल झोंककर उन्हें भयभीत करने में लगे रहते हैं।
'मुक्तिबोध' उस बन्दी रूपी ईमानदार व्यक्ति को जाग्रत कर रहे हैं। वे आश्वस्त हैं कि इस अराजकता भरे दरबार में कोई व्यक्ति उस समाज की भूलों को स्वीकार करना नहीं चाहता यदि वह प्रतिकार करता है तो समाज उसे त्याज्य कर देगा। जो स्वार्थी व चापलूस व्यक्ति हैं वे उसे बाहर निकलते देख हैरान होंगे और सहम जाएँगे, परन्तु ईमानदार लोग खुश होंगे।
कविता के अन्त में 'मुक्तिबोध' ने बन्दी युवक की स्वतन्त्रता का वर्णन किया है कि वह अराजकता से दूर होकर सच्चाई के रास्तों को खोज सकता है तथा आशावादी समाज का निर्माण कर सकता है।
कवि प्रस्तुत कविता के माध्यम से यह सन्देश देना चाहता है कि अराजक तत्त्वों को अब हारना होगा और ईमानदार व्यक्तियों को अपनी भावनाओं और बिचारों को इतना प्रबल करना होगा कि जिससे अराजक तत्त्व नष्ट हो जाएँ
'भूल-गलती' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उनके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर-सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
दरबारे-आम में।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गजानन माधव 'मुक्तिबोध' द्वारा रचित काव्य संग्रह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' में संकलित कविता 'भूल-गलती' से उधृत है।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि बुद्धिजीवी वर्ग की कायरता व आमजन की दरिद्रता का चित्रण कर रहा है।
व्याख्या - सामन्ती वर्ग के अत्याचारों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि हम बुद्धिजीवियों की भूलें व गलतियाँ अभेद्य कवच पहनकर समाज में फैली हुई हैं अर्थात् वर्तमान समय में मनुष्य व्यापारिक होकर भिन्न-भिन्न प्रकार की गलतियों व भूलों में लिप्त रहता है और फिर भी वह इन भूलों के प्रति कोई पश्चाताप व ग्लानि का भाव नहीं रखता, क्योंकि वह (भूलें) व्यक्ति के हृदयरूपी तख्त पर आसीन हैं अर्थात् व्यक्ति गलती करने में कोई संकोच नहीं कर रहा है और निडर होकर भूल-पर-भूल करता जा रहा है। इतना ही नहीं वह व्यक्ति अपना भयावह स्वरूप भी दिखाने से नहीं घबराता। उसके भूल रूपी शस्त्र चमकते हुए दिखाई देते हैं अर्थात् व्यक्ति जब गलती करता है तो उसका प्रभाव सामने वाले व्यक्ति पर शस्त्र के समान प्रहार करता हुआ प्रतीत होता है और उसकी आँखें किसी नुकीले पत्थर के समान सामने वाले व्यक्ति को भय से लहूलुहान करती हुई सी प्रतीत होती हैं।
आगे कवि कहता है कि इन बुद्धिजीवी वर्ग के समक्ष सामान्य वर्ग बेबस व लाचार मुद्रा में कतारों में सर झुकाए खड़ा है, वह प्रतिकार करने का साहस ही नहीं रखता। इन सभी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे यहाँ जन दरबार लगा है, जहाँ सब राजा के दरबार में हाजिरी के लिए खड़े हैं।
विशेष - यहाँ कवि ने मनुष्य द्वारा निरन्तर भूल करने की प्रवृत्ति को प्रस्तुत किया है।
- भाषा-प्रतीकात्मक व प्रवाहमय
- शैली-प्रतीकात्मक
- छन्द-मुक्त
- अलंकार-उपमा व मानवीकरण
- शब्द-शक्ति-लक्षणा
- काव्यगुण-ओज
(2)
सामने
बेचैन घावों की अब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद,
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लम्बे दाग
बहते खून के।
वह कैद कर लाया ईमान ........
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता !
खामोश!!
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने शासक वर्ग की क्रूरता और नृशंसता का वर्णन किया है।
व्याख्या - कवि कहता है कि उस भोग-विलासी दरबार में, उस क्रूर हिंसक शासक के सम्मुख एक व्यक्ति हथकड़ी और बेडियों से जकड़ कर लाया जाता है। जिसका शरीर अनगिनत घावों से भरा है. उसने फटे-पुराने चिथडे लपेटे हैं। बेदर्दी से मारे जाने के कारण उसका शरीर खून से लथपथ हो गया है। जैसे ही दरबारी जन की निगाहें उस पर पडती हैं वह भी उसकी दयनीय स्थिति देखकर आह भरने लगते हैं. उनका दिल भी उसकी स्थिति देख काँप उठा है।
वह इंसान जो कैदी बना हुआ है, वह अब भी अपने ईमान व सत्यता पर अडिग है। वह अब भी स्वयं को सत्य सिद्ध करने को आतुर है। वह सुल्तान की आँखों में आँखें डालकर हृदयस्थ उत्साह एवं दृढ़ता की बिजलियाँ उसकी ओर फेंकता है। वह बन्दी युवक भयभीत नहीं है, जैसे जनता दरबारी है, परन्तु फिर भी वह अपनी खामोशी को साधे हुए है, परन्तु उसकी निगाहों में निडरता है, भय नहीं।
विशेष -
यहाँ कवि ने मनुष्य की सत्यवादिता व ईमानदारी की प्रचण्डता का चित्रण किया है।
- भाषा-उर्दू व खड़ी बोली (मिश्रित)
- शैली-प्रतीकात्मक
- छन्द-मुक्त व अतुकान्त
- अलंकार-अन्योक्ति
- शब्द-शक्ति-लक्षणा
(3)
मनसबदार
शायर और सूफी
अल गजाली, इब्ते सिन्ना, अलबरूनी,
आलिओ फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !
नामंजूर
उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान....... खुद-मुख्तार।
कोई सोचता उस वक्त-
छाए जा रहे हैं सल्तनत पर घने साए स्याह
सुल्तानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो रेत का सा ढेर शहंशाह
शाही धाक का सबब सिर्फ सन्नाटा!!
(लेकिन, न, जमाना साँप का काटा)
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मनसबदारों व चाटुकारों की स्थिति व शोषित वर्ग की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।
व्याख्या - यहाँ कवि ने यह स्पष्ट किया है कि समाज में मौजूद अन्य लोग भी उस गलती को करने वाले व्यक्ति का ही साथ देते हैं। आज समाज में ईमानदार व्यक्ति भी गलती करने वाले व्यक्ति के समक्ष मौन खड़ा हुआ है और समाजरूपी महल में बैठे प्रतिष्ठावान, कवि, सूफी, विद्वान, सेनानायक सभी उस गलती करने वाले व्यक्ति के सामने चुप्पी साधे खड़े हैं अर्थात् अन्याय के विरुद्ध बड़े-से-बड़ा तथा छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी आवाज़ नहीं उठाता।
कवि आगे कहता है कि उस ईमानदार व्यक्ति को शर्म (संकोच) की ज़िन्दगी जीना स्वीकार्य नहीं है। वह स्वयं के लिए एक वकील बनकर सोचता है कि उस समाज रूपी सल्तनत को गलती रूपी काली छाया ने घेरा हुआ है और वह गलती करने वाला शासक रेत का ढेर मात्र ही है। उसका सुरक्षा कवच केवल मिट्टी से ही निर्मित है, जो खामोशी है वह केवल उसकी राजसी विलासी प्रवृत्ति के ठाठ का ही प्रभाव है, परन्तु सम्पूर्ण समाज में ऐसा नहीं है, यहाँ सत्य और ईमानदारी की पैठ अभी भी विद्यमान है।
विशेष -
यहाँ कवि ने समाज में विभिन्न विसंगतियों के होने के बावजूद ईमानदारी के महत्त्व को प्रतिपादित किया है।
- भाषा-उर्दू व खड़ी बोली (मिश्रित)
- शैली-प्रवाहमय व प्रतीकात्मक
- छन्द-मुक्त व अतुकान्त
- अलंकार-उपमा व रूपक
(4)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ, खूँख्वार आली जाह
वो आँखें सच्चाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता,
करता, हमें वह घेर,
बेबुनियाद बेसिर-पैर......
हम सब कैद हैं, उसके चमकते तामझाम में,
शाही मुकाम में !!
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - कवि इन पंक्तियों में अराजक तत्त्वों से दूर रहने की सलाह देता है तथा ईमानदार लोगों की व्यथा का चित्रण करता है।
व्याख्या - यहाँ कवि ईमानदार व्यक्ति की व्यथा व विवशता का वर्णन करते हुए कहता है कि अराजक शक्तियों के सामने मौन धारण करना हमारी कमजोरी ही है। यह सब हमारी कमजोरियों का लाभ उठाकर ही इतने बलशाली बन गए हैं कि अब इन्होंने लोहे का कवच बना लिया है और वे इसी के बल पर साधारण वर्ग को भयभीत करने में जुटे हैं तथा सच्चाई की आँखों में धूल झोंकने का कार्य कर रहे हैं।
इतना ही नहीं इन्होंने हमारे हृदय को गहरा आघात भी पहुँचाया है और हमारे दिलों की बस्तियों (भावनाओं) को भी तहस-नहस कर दिया है। इन अराजक शक्तियों, असामाजिक तत्त्वों ने समाज में अपनी इतनी गहरी पैठ बना ली है कि यह हमें शारीरिक और मानसिक रूप से घेरे हुए हैं और हम इनके कैदी मात्र बनकर रह गए हैं।
विशेष -
यहाँ कवि ने मनुष्य को अराजकता के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया है।
- भाषा-उर्दू व खड़ी बोली (मिश्रित)
- शैली-प्रतीकात्मक व बिम्बात्मक
- छन्द-तुकान्त मुक्त
- अलंकार-अनुप्रास
- शब्द-शक्ति-लक्षणा
(5)
इतने में, हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा,
भरे दरबारे आम में मैं भी
सँभल जागा !!
कतारों में खड़े खुदगर्ज बा-हथियार
बख्तरबन्द समझौते
वहमकर रह गए;
दिल में अलग जबड़ा, लगा दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बो की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गए।
सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि आशा का भाव रखता है तथा वह तत्कालीन परिस्थितियों को बदलने का पक्षधर भी है।
व्याख्या - कवि यहाँ उस ईमानदार, बन्दी मनुष्य को जाग्रत करने का इच्छुक है। वह आशावान है कि यदि इस अराजकता भरे दरबार में से कोई व्यक्ति उस समाज की गलतियों को सहन नहीं करना चाहता तथा वह प्रतिकार करना चाहता है, तो अवश्य ही वह उस अराजकता से बाहर निकल आएगा और दरबार में मौजूद स्वार्थी व रक्षक लोग उसे बाहर निकलते देखकर आश्चर्यचकित रह जाएँगे, जो वहाँ दोतरफा बातें करने वाले लोग हैं, अनुभवी हैं, सेनानायक हैं आदि यह दृश्य देखकर सहम जाएँगे। कवि का आशय यह है कि अराजकता की सीमा को तोड़कर स्वतन्त्र भी हुआ जा सकता है।
विशेष -
यहाँ कवि ने मनुष्य को आश्वस्त रहने के लिए प्रोत्साहित किया है।
- भाषा-उर्दू व खड़ी बोली (मिश्रित)
- शैली-प्रतीकात्मक व बिम्बात्मक
- छन्द-मुक्त व तुकान्त
- शब्द-शक्ति-अभिधा
- काव्यगुण-ओज
(6)
लेकिन, उधर उस ओर
कोई बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दरों के इलाके
(सच्चाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा, चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विराट हो जाएगा !
सन्दर्भ - पूर्ववत् ।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अराजकता की शक्ति से अलग हुए व्यक्ति के मनोभावों का वर्णन किया है।
व्याख्या - कवि ने इन पंक्तियों में उस बन्दी युवक की स्वतन्त्रता का वर्णन किया है, जो अब अराजकता से दूर अपना जीवन व समाज में तादात्म्य स्थापित कर सकता है। वह अब सच्चाई के रास्तों को खोज सकता है।
कवि यहाँ आशावादी के रूप में एक नए समाज के निर्माण का पक्षधर है, जोकि समाज में समन्वय व समानता का भाव देखना चाहता है। यह सत्यता और ईमानदारी से निर्वाह करने वाले व्यक्तियों को देखना चाहता है। कवि यहाँ कहता है कि एक सच्चा व्यक्ति ही इन परिस्थितियों में बदलाव ला सकता है, जोकि एक दिन इन्हीं परिस्थितिवश प्रताड़ित हुआ था।
कवि कहता है कि अराजक तत्त्वों को अब हारना होगा और मनुष्य की प्रबल भावनाओं और विचारों को इतना विराट और विशाल बनना होगा, जिससे यह अराजकता समाप्त हो जाए।
विशेष -
कवि ने यहाँ अराजकता को समाप्त करने की बात कही है।
- भाषा-सरल व प्रवाहमयी
- शैली-प्रतीकात्मक व लयात्मक
- छन्द-मुक्त
- शब्द-शक्ति-अभिधा
- काव्यगुण-प्रसाद
भूल गलती कविता से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- मुक्तिबोध के जीवन-काल में उनका कोई कविता-संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था।
- 'भूल-गलती' मुक्तिबोध की आखिरी दौर की कविताओं में से है।
- 'भूल गलती' कविता 1964 में प्रकाशित 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' कविता-संग्रह में संकलित। यह 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' की पहली कविता है।
- कविता के माध्यम से कवि समाज व्यापी भ्रष्टाचार और अनैतिकता की ओर संकेत करते हैं, जिसके दमन चक्र में सत्य और ईमान पिस कर रह गया है।
- पर्वग्रह के प्रकाशन की एक दशक पूरा होने पर उसका एक विशेषांक (63-64) निकला था, जिसमें अलग-अलग लेखकों ने अलग-अलग कवियों की एक-एक कविता की व्याख्या की थी।
- अशोक वाजपेयी ने व्याख्या के लिए जो कविता चुनी थी, वह मुक्तिबोध की यही कविता थी 'भूल-गलती'।
- अशोक वाजपेयी ने चीनी आक्रमण से इस कविता को जोड़ा है और उसी को आधार मानकर इसकी व्याख्या की है। कहते हैं, "चीनी आक्रमण ने भारतीय मनः स्थिति में पराजय और बेचारगी ला दी थी।''
Bhul-Galti Kavita MCQ
- चाँद का मुँह टेढ़ा है
- भूरी-भूरी खाक धूल
- काठ का सपना
- सतह से उठता आदमी
प्रश्न 02. 'भूलगलती' कविता में भूल-गलती के किस रूप में चित्रित किया गया है?
- एक शंहशाह के रूप में
- अपराधी के रूप में
- सैनिक के रूप में
- व्यवसायी के रूप में
उत्तर - 1. एक शंहशाह के रूप में
प्रश्न 03. मुक्तिबोध का कहानी संग्रह है।
- भूरी भूरी खाक धूल
- काठ का सपना
- चाँद का मुँह टेढ़ा है
- अँधेरे में
उत्तर - 2. काठ का सपना
प्रश्न 04. 'खड़ी है सिर झुकाए / सब कतारें / बेजुबाँ बेबस सलाम में।' पंक्ति में कतारें संकेतक हैं।
- सत्यनिष्ठ लोगों की
- सुप्त चेतना वाले चापलूसों की।
- सैनिकों की।
- आज्ञाकारी सेवकों की।
उत्तर - 2. सुप्त चेतना वाले चापलूसों की।
प्रश्न 05. नामवरसिंह ने मुक्तिबोध के काव्य को क्या कहकर पुकारा है।
- अस्मिता की खोज
- लावा
- अंतःस्थल का विप्लव
- विप्लवकारी
उत्तर - 1. अस्मिता की खोज
प्रश्न 06. 'भूल-गलती' कविता में किसे 'संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर' और 'हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर' किसे कहा गया है?
- शहंशाह को।
- क्रांतिचेतस व्यक्ति को।
- अहंनिष्ठ व्यक्ति को।
- सुप्त चेतना को।
उत्तर - 2. क्रांतिचेतस व्यक्ति को।
प्रश्न 07. 'कामायनी-एक पुनर्विचार' नामक आलोचना मुक्तिबोध ने कब लिखी।
- 1964 में
- 1955 में
- 1952 में
- 1957 में
उत्तर - 3. 1952 में
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