प्रयोगवाद की पृष्ठभूमि
प्रगतिवाद व छायावाद के विरोध में प्रयोगवाद आया। छायावाद में कोरी भावुकता थी, जबकि प्रगतिवाद में शुष्क सामाजिकता। छायावादी कविता कोरी अनुभूति पर आधारित रही है, जबकि प्रगतिवादी कविता शुष्क अभिव्यक्ति पर। इसके विपरीत प्रयोगवादी कविता अनुभूति और अभिव्यक्ति के सामंजस्य से तैयार होती है। यह जीए तथा भोगे व जाने गए सत्यों को उद्घाटित करती है। प्रयोगवाद का मूल आधार वैयक्तिकता हैं। प्रयोगवादी कविता में मध्यवर्गीय समाज का चित्रण प्रमुखता से किया गया।
प्रयोगवाद उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया, जो कुछ 'नए बोधों', 'संवेदनाओं' तथा उन्हें प्रेषित करने वाले 'शिल्पगत चमत्कारों' को लेकर शुरू-शुरू में 'तारसप्तक' के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गई तथा जिनका पर्यवसान नई कविता में हो गया।
प्रयोगवाद की शुरुआत 'तारसप्तक' के प्रकाशन से मानी गई। तारसप्तक का सम्पादन 'अज्ञेय' ने सन् 1943 ई. में किया। तारसप्तक में सात कवियों की रचनाएँ संकलित हैं, जिनके नाम हैं
हीरानन्द सच्चिदानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय', गजाननमाधव 'मुक्तिबोध', प्रभाकर माचवे, नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, गिरिजाकुमार 'माथुर', रामविलास शर्मा।
प्रयोगवाद नाम सबसे पहले आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी द्वारा दिया गया, जो व्यंग्य स्वरूप दिया गया नाम था। इसका विरोध करते हुए तारसप्तक के सम्पादक अज्ञेय जी ने कहा कि हमारी कविताओं को यदि कोई नाम देना चाहे तो 'नई कविता' कह सकता है।
उन्होंने कहा कि "हम वादी नहीं रहे, न ही हम अपने महान् पूर्ववर्तियों का अनुकरण करना चाहते और न ही यह चाहते हैं कि कोई हमारा अनुकरण करे। हमें लीक पर चलना पसन्द नहीं।" अज्ञेय जी को 'आँगन के पार द्वार' द्वारा काव्य कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तथा 'कितनी नावों में कितनी बार' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।
तारसप्तक के सातों रचनाकार किसी एक धारा के नहीं, बल्कि अलग-अलग स्थूलों से सम्बन्धित हैं। यह कविता वाद विरोधी है। अज्ञेय ने प्रयोग को कोई वाद नहीं माना, बल्कि अनुभूति के तौर पर लिया, जिस प्रकार जीवन की अनुभूतियाँ अलग-अलग होती हैं, उसी प्रकार उनकी अभिव्यक्ति की प्रक्रिया भी अलग-अलग होती है, उनके लिए प्रयोग रचनाशीलता ने सतत परिवर्तन तथा नवीनता को दर्शाया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रयोग हमारे लिए साध्य नहीं है; बल्कि साधन है, एक तरफ यह जीवन सत्यों को उद्घाटित करने का माध्यम है, तो दूसरी तरफ उन जीवन सत्यों की अभिव्यक्ति का साधन है।
तार सप्तक के चार प्रकाशन
हिंदी साहित्य में तार सप्तक एक काव्य संग्रह है। जिये 1943 ई० में अज्ञेय द्वारा नयी कविता के प्रणयन हेतु सात कवियों का एक मण्डल बनाकर इसका संकलन एवं संपादन किया गया। जो बाद में तार सप्तक नाम से जाना गया। इसे नयी कविता का प्रस्थान बिंदु माना जाता है।
प्रथम तारसप्तक (1943) के प्रमुख कवि
1. नेमिचन्द्र जैन
2. गजाननमाधव 'मुक्तिबोध'
3. भारत भूषण अग्रवाल
4. प्रभाकर माचवे
5. गिरिजाकुमार माथुर
6. रामविलास शर्मा
7. अज्ञेय
द्वितीय तारसप्तक (1951) के कवि
1. भवानीप्रसाद मिश्र
2. शकुन्तला माथुर
3. हरिनारायण व्यास
4. शमशेर बहादुर
5. नरेश मेहता
6. रघुवीर सहाय
7. धर्मवीर भारती
तृतीय त्तास्सप्तक (1959) के कवि
1. प्रतापनारायण त्रिपाठी
2. कुँवर नारायण
3. कीर्ति चौधरी
4. केदारनाथ सिंह
5. मदन वात्स्यायन
6. विजयदेव नारायण शाही
7. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
चौथे तार सप्तक (1979) के कवि
1. अवधेश कुमार
2. राजकुमार कुम्भज
3. स्वदेश भारती
4. नन्दकिशोर आचार्य 5. सुमन राजे
6. श्रीराम वर्मा
7. राजेन्द्र किशोर
प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ/विशेषताएं
वर्ण्य-विषय की विविधता एवं व्यापकता- जीवन की समग्रता का सहज बोध तथा उसे अनुभूति की गहराई तक ले जाकर अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास अज्ञेय के कवि-कर्म की एक सर्व सराहनीय विशेषता है। छायावादी एवं प्रगतिवादी कवियों द्वारा अनछुए जीवन के अनेक पहलुओं को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया।
कल्पनाशीलता के स्थान पर अति यथार्थ का आग्रह- छायावाद की कल्पनाशीलता अथवा प्रगतिवाद के सामाजिक या वास्तविक यथार्थवाद के स्थान पर प्रयोगवादी कविताओं की अति यथार्थवादी या नग्न यथार्थवादी प्रवृत्ति अज्ञेय की विशेषता है।
प्रकृति की छुद्रता का उद्घाटन- प्रकृति के सुकुमार, मृदुल, मनोरम सौन्दर्य- चित्रण के स्थान पर अज्ञेय ने उसकी छुद्रता का उद्घाटन किया है। अज्ञेय ने छायावादी शीतल चाँदनी का उपहार एवं बौद्धिकता का नग्न यथार्थ रूप 'शिशिर की एकनिशा' में दर्शाया है-
मठ यह आकाश निर्वाद गहन विस्तार,
शिशिर के एक निशा की शान्ति है निस्सार।”
अज्ञेय ने घृणा, ईर्ष्या के नये-पुराने मिट्टी के ढूंहों के स्थान पर प्यार की महत्ता का प्रतिपादन किया है। यह उनकी जीवन के प्रति अटूट आस्था का निदर्शन है-
प्यार की मिट्टी, जिससे सिरजन होता है
मूल्यों का पीढ़ी पर पीढ़ी
बौद्धिकता- 'नयी कविता' आधुनिकता का उच्चार है, उसमें हृदय की अनुभूति कम है, बुद्धि का विकास अधिक है। आधुनिक युग के विज्ञान, मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र से प्रभावित कवि के कथन में बौद्धिकता का समावेश सर्वथा स्वाभाविक है। इन बुद्धिवादी कवियों ने रस-सिद्धान्त को सन्देह की दृष्टि से देखा था। उन्होंने परम्पराओं को न तो अस्वीकार ही किया है और न उसके प्रति तिरस्कार की भावना ही प्रकट की है। वह प्राचीन और आधुनिक के समन्वय में विश्वास करते हैं। उन्होंने उन समस्त तत्वों को परखा है जो आदमी और समाज को जड़ बनाये दे रहे हैं। इनके विशेषण में चिन्तन का दबाव है।
वह है गलना गलकर मिट जाना-मिल जाना
व्यंग्यात्मकता - प्रयोगवादी कविता की प्रमुख विशेषता व्यंग्यात्मकता अज्ञेय की कविताओं में भी मुखर है। 'साँप' कविता इसका उदाहरण है। उन्होंने मध्यवगीय नागरिक को सांप' कहा है तथा सांप जैसी कविताओं में नागरिक सभ्यता पर असन्तोष एवं तीखा व्यंग्य किया है।
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी
क्षणवादी जीवन दृष्टि - पाश्चात्य विचारकों द्वारा प्रतिपादित अस्तित्ववादी जीवन- दर्शन के प्रभाव स्वरूप नये कवियों ने क्षण की महत्ता पर विशेष बल दिया है। वह जीवन के एक-एक श्रण के बोध को सत्य मानता है और उसका उपयोग करना चाहता है। क्षण के महत्त्व को अज्ञेय ने इस प्रकार स्वीकार किया है। हमें किसी कल्पित अजरता का मोह नहीं-
पूरा हम जी लें, पी लें आत्मसात् कर लें।
रामवशरथ मिश्र ने ठीक ही लिखा है कि, "आप क्षणों में जीते हैं और क्षणों में ही शाश्वत को पाते हैं।" जीवन के एक-एक क्षण के साथ अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। नया कवि अच्छे अवसर की प्रतीक्षा में क्षणों को नहीं खोना चाहता है। इसी कारण अज्ञेय क्षणों को तन्मयता के साथ जीने का आह्वान करते हैं-
अँजुरी भर कर पी लो
व्यष्टि समष्टि का समन्वय - प्रगतिवादी कवि में सामाजिक यथार्थ के स्थूल चित्रण की प्रवृत्ति थी और प्रयोगवादी कवि की कविता प्रायः व्यक्ति यथार्थ के चारों ओर बुनी गई थी। 'नयी कविता' में दो प्रगतिवादी छोरों का समन्वय हुआ है। नया कवि न व्यक्तिवादी है और न पूर्णतः समष्टिवादी, वह मानवतावादी है। अज्ञेय का व्यक्तिवाद व्यष्टि-केन्द्रित न होकर समष्टि-केन्द्रित है। व्यष्टि और समष्टि के समन्वय की बात अज्ञेय ने कविताओं में कही है। वह अपने अहम के दीप को समाज की पंक्ति के लिए समर्पित करने की बात कहते हैं-
है, गर्व नरा मदमाता
पर इसकी भी पक्ति को दे दो
वासना की नग्न अभिव्यक्ति- यथार्थ के प्रति अत्यधिक आग्रह के कारण वासना की अभिव्यक्ति में भी अज्ञेय तथा अन्य प्रयोगवादी कवियों में तनिक भी झिझक नहीं है-
धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धारा
प्यार है अभिशप्त-तुम कहाँ हो नारी?"
शिल्पगत नवीनता - अज्ञेय के काव्य के शिल्प पक्ष में सर्वत्र प्रयोगशीलता एवं बौद्धिकता के तत्त्व विद्यमान है। उन्होंने प्राचीन प्रतीकों एवं रूप उपमानों की निरर्थकता का अनुभव करते हुए लिखा है कि-
देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
अज्ञेय के बिम्बों और प्रतीकों में भी नवीनता और ताजगी है। बावरा अहेरी सूर्य का प्रतीक है, जो व्यापक अर्थ-सम्पन्न है।
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है, जाल को
बाँध लेता है सभी को साथ
अज्ञेय की भाषा क्रमशः संस्कृतनिष्ठता को छोड़कर सहज और सरल होती गई है। उसमे गुढ़ता और बौद्धिकता का विकास होता गया है। छन्द के क्षेत्र में भी अज्ञेय ने अनेक प्रयोग किये हैं। उनके मुक्त-छन्द विधान में विविधता होती है। इन छन्दों का प्रत्येक शब्द भाव को बल प्रदान करता है।
अज्ञेय के कलापक्ष, छन्द-विधान, बिम्ब-विधान एवं प्रतीक विधान में बड़ा वैविध्य, ताजगी और सूक्ष्मता है। परम्परित उपमानों एवं प्रतीकों को उन्होंने नवीन रूप ही नहीं दिया है, बल्कि बौद्धिक, आगम भी प्रदान किया है। डॉ० जगदीश गुप्त के शब्दों में, "वस्तुतः अक्षय प्रयोगवादी 'नवी कविता' धारा के पुरोहित एवं प्रवर्तक ही नहीं, अपितु कवि, वकील और जज भी हैं।"
प्रयोगवाद पर विद्वानों के कथन
अज्ञेय - यह सात कवि किसी स्कूल के नहीं अपितु अलग-अलग धाराओं के हैं यह वास्तव में राही नहीं, बल्कि राहों के अन्वेषी हैं।
नगेंद्र - हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद नाम उन कवियों के लिए रूढ़ हो गया जो नए भावों, बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में तार सप्तक के माध्यम से 1943 में प्रकाशन जगत में आयें।
रामस्वरूप चतुर्वेदी - "समाज के हित में जैसी क्रांति की सतत प्रक्रिया काम्य में है, वैसे ही रचना के हित में प्रयोग की"
नागेंद्र - प्रयोगवाद एक शैलीगत विद्रोह है जो प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुआ।
नंद दुलारे बाजपेई- उद्देश्यहीन प्रयोग चाहे वे भाषा, भाव, शैली किसी भी स्तर पर हों, कविता से दूर जाकर केवल प्रयोगवाद ही कहलाएंगे।
प्रयोगवाद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य
गणपति चंद्रगुप्त- प्रारंभ में जबकि कवियों का दृष्टिकोण एवं लक्ष्य स्पष्ट नहीं था, नूतनता की खोज के लिए केवल प्रयोग की घोषणा की गई थी तो इसे प्रयोगवाद कहा गया।
प्रयोगवाद की शुरुआत 1943 (तार सप्तक का प्रकाशन)
सन 1943 में अज्ञेय के नेतृत्व में साहित्य के भीतर भाषा, शैली, भाव और प्रतीक आदि के स्तर पर जो नव्यता हेतु प्रयोग किए गए। इस प्रवर्तन को ही प्रयोगवाद की संज्ञा दी गई।
सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित नंद दुलारे बाजपेई का निबंध प्रयोगवादी रचनाएं जिसके अंतर्गत इस विचारधारा के लिए सबसे पहले प्रयोगवाद शब्द का प्रयोग किया गया। इन्होंने प्रयोगवाद को बैठे ठाले का धंधा कहा।
हिंदी में प्रयोगवाद का आगमन 'न्यू सिग्नेचर' आंदोलन के प्रभाव स्वरूप हुआ।
बच्चन सिंह ने प्रयोगवाद का मूल आधार मनोविश्लेषणवाद को मना है।
लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार प्रयोगवाद ज्ञात से अज्ञात की और बढ़ाने की बौद्धिक जागरूकता है।
अस्तित्ववाद का प्रयोगवाद पर बड़ा प्रभाव देखा जा जाता है
प्रयोगवाद पर यह गहरा आरोप है कि प्रयोगवादी कवियों ने लोक कल्याण की उपेक्षा की है।
प्रयोगवाद पर यह गहरा आरोप है कि प्रयोगवादी कवियों ने लोक कल्याण की उपेक्षा की है।
प्रयोगवाद में मध्यम वर्गीय समाज का चित्रण हुआ है।
प्रयोगवाद पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद तथा इलियट किया निर्वैतिकता का सिद्धांत का प्रभाव दिखाई देता है।
प्रयोगवाद और नई कविता के कवि कालक्रमानुसार
- सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987 ई॰)
- शमशेर बहादुर सिंह (1911-1993 ई.)
- भवानी प्रसाद मिश्र (1914-1985 ई.)
- गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964 ई.)
- प्रभाकर माचवे (1917-1991 ई.)
- भारत भूषण अग्रवाल (1919-1975 ई.)
- गिरिजा कुमार माथुर (1919-1994 ई.)
- नरेश मेहता (1922-2000 ई.)
- लक्ष्मीकान्त वर्मा (1922-2002 ई.)
- रघुवीर सहाय (1922-1992 ई.)
- रामदरश मिश्र (1924 ई.)
- विजयदेव नारायण साही (1924-1982 ई.)
- जगदीश गुप्त (1926-2001 ई.)
- धर्मवीर भारती (1926-1997 ई.)
- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927-1983 ई.)
- कुँवर नारायण (1927 ई.)
- श्रीकान्त वर्मा (1931-1986 ई.)
- केदारनाथ सिंह (1934 ई.)
- धूमिल (1936-1975 ई.)
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