सतपुड़ा के जंगल (कविता) | भवानी प्रसाद मिश्र

    'सतपुड़ा के जंगल' कविता का सारांश 

    'सतपुड़ा के जंगल' शीर्षक कविता में कवि ने सतपुड़ा के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण किया है। इस कविता में कवि ने मध्य प्रदेश के एक पहाडी क्षेत्र में सतपुड़ा के जंगलों का वर्णन किया है। कवि के अनुसार सतपुड़ा के घने जंगल अपनी गहनता के कारण इस प्रकार आभासित हो रहे हैं जैसे उनमें सूर्य की किरणों का प्रवेश न हो पाया हो और वे अपने घने वृक्षों की झुरमुट छाया में निद्रामग्न हों। ये जंगल अनमने भाव से ऊँघते हुए अर्थात अर्द्ध-चेतनावस्था में प्रतीत हो रहे हैं। जंगल के बीच में झाड़-पलाश आदि इतना विस्तार पा चुके हैं कि इन सबके बीच में रास्ता ढूँढना बेहद कठिन हो चला है। 

    "सतपुड़ा के घने जंगल 

    नींद में डूबे हुए से, 

    ऊँघते अनमने-जंगल 

    झाड़ ऊँचे और नीचे 

    चुप खड़े है आँखे मीचें।।" 

    इस कविता में कवि ने सतपुड़ा के जंगल की भौगोलिक स्थिति का चित्रण किया है। कवि ने प्रकृति का सुकुमार व विद्रुप दोनों रूपों में वर्णन किया है। प्रकृति के रूप भी जीवन की भाँति ही होते हैं। आशय यह है कि प्रकृति का यह विद्रुप रूप भी परिवर्तित जीवन स्वरूप की भाँति है। जिस प्रकार जीवन में बाल्यावस्था और यौवनावस्था आते हैं उसी प्रकार प्रकृति में भी यह परिवर्तन शाश्वत है। इसलिए कवि कहता है प्रकृति की इस विद्रुपता को भी स्वीकार करना चाहिए, क्योकि व्यक्ति का प्रकृति से शाश्वत सम्बन्ध है। ये कुत्सित, बीभत्स, घनीभूत सतपुड़ा के जंगल की प्रकृति का ही एक हिस्सा हैं। कवि इस कविता के माध्यम से जीवन और प्रकृति के अभिन्न सम्बन्ध को भी दर्शाता है। 

    Satpura Ke Jungle-Bhawani Prasad Mishra


    'सतपुड़ा के जंगल' कविता के कुछ पदों की व्याख्या 

    (1)

    सतपुड़ा के घने जंगल 

    नींद में डूबे हुए से, ऊँघते अनमने जंगल। 

    झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँखे मीचें 

    घास चुप है. कास चुप है, मूक शाल पलास चुप है 

    बन सके ता धँसो इनमें, भैंस न पाती हवा जिनमें 

    सतपुड़ा के घने जंगल, ऊँघते अनमने जंगल। 

    सड़े पत्ते, गले पत्ते हरे पत्ते, जले पत्ते 

    वन्य पथ को ढंक रहे ते, पंक दल में पले पत्ते। 

    चलो इन पर चल सका तो, दलो इनको दल सको तो। 

    ये घिनौने, घने जंगल, ऊँघते अनमने जंगल।। 


    प्रसंग - इन पंक्तियों में कवि ने मध्य प्रदेश के एक पहाड़ी क्षेत्र सतपुड़ा के जंगलों का वर्णन किया है। 

    व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सतपुड़ा के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करते हुए कहता है कि सतपुड़ा के घने जंगल अपनी गहनता के कारण इस प्रकार आभासित हो रहे हैं कि जैसे उनमें सूर्य की किरणों का प्रवेश न हो पाया हो और वह अपने घने वृक्षों की झुरमुट छाया में ही निद्रा मग्न हो। ये सभी जंगल तथा इसमें उगे पेड़ अर्द्ध चेतनावस्था में प्रतीत हो रहे हैं। इस जंगल में झाड़, शाल, पलाश आदि सभी पेड़-पौधों ने इतना विस्तार पा लिया है कि अब वे अपने पास न हवा को आने देते हैं तथा न ही सूर्य के प्रकाश को, जिसके फलस्वरूप वे स्तब्ध भाव से आँखें नीचे किए खड़े हैं, ऊँघ रहे हैं। 

    चारों ओर नीरवता व नीरसता का वातावरण छाया हुआ है। सभी प्रकार के, पेड़ों तथा झाड़ों ने मानों मौन धारण कर लिया हो, जिस कारण इस घने अन्धकार में किसी अन्य का प्रवेश करना भी कठिन हो गया है। कवि आगे कहता है कि यहाँ पेड़ों से गिरने वाले पत्ते भी सूख और गल गए हैं तथा कुछ हरे व जले पत्ते जंगल के मार्ग को पूर्णतः ढक चुके हैं। यदि तुम इस मार्ग पर चलने का साहस कर सको तो चलो। कवि प्रकृति के एक विचित्र भाग से यहाँ पाठकों को रू-ब-रू करवाना चाहता है, जोकि जंगल की नीरसता को दर्शाता है। जहाँ व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। 

    विशेष - इन पंक्तियों में कवि द्वारा सतपुड़ा के भयानक घने जंगलों का वर्णन किया गया है। 

    • भाषा-खड़ी बोली व सपाट 
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    • अलंकार-उपमा व अनुप्रास 
    • शब्द-शक्ति-अभिधा 
    • काव्यगुण-प्रसाद। 

    (2)

    अटपटी उलझी लताएँ 

    डालियों को खींच खाएँ, 

    पैर को पकड़े अचानक, 

    प्राण को कल ले, कँपाएँ, 

    साँप-सी काली लताएँ 

    लताओं के बने जंगल, 

    ऊँघते अनमने जंगल। 

    मकड़ियों के जाल मुँह पर 

    और सिर के बाल मुँह पर, 

    मच्छरों के दंश वाले, 

    दाम काले-लाल मुँह पर 

    वात झंझा वहन करते 

    चलो इतना सहन करते 

    कष्ट से ये सने जंगल 

    ऊँघते अनमने जंगल। 


    प्रसंग - यहाँ कवि ने बिम्बों के माध्यम से सतपुड़ा के जंगलों की विशेषताओं का अद्भुत चित्रण किया है। 

    व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सतपुड़ा के जंगलों का वर्णन अत्यधिक गहनता से करते हुए कहता है कि बड़े-बड़े शाल व पलाश की लताएँ आपस में इतनी पेचीदा और उलझ गई हैं कि उनको सुलझाना कठिन है, जिसके परिणामस्वरूप यदि किसी व्यक्ति के पैर पर ये लिपट जाएँ, तो उसे ऐसा लगेगा जैसे वह मृत्यु के अत्यन्त समीप आ गया हो और यही मृत्यु का आभास उसे कुछ समय के लिए कंपा जाएगा। ये लताएँ साँप की भाँति काली व लम्बी हो गई है, क्योकि सूर्य की रोशनी वहाँ प्रवेश नहीं कर पा रही है। जिसके कारण वे सर्प के समान काली प्रतीत हो रही हैं।

    इन वृक्षों की लताएँ आपस में इस प्रकार उलझी हैं कि उनमें मकड़ियों ने जाले बना लिए हैं, जो ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो उन लताओं के मुख पर बालों का एक समूह बन गया हो। इन उलझी लताओं, डालियों के काँटे, मच्छर के दंश से भी अधिक नुकीले बन गए हैं। ये घने जंगल अनेक वायु के प्रचण्ड झंझावात और तूफानों को झेल चुके हैं, इसके पश्चात् भी ये सतपुड़ा के जंगल कष्ट में ही अनवरत संलिप्त रहते हैं। ये स्वयं स्वच्छन्द नहीं होना चाहते तथा स्वयं को सदैव ही निद्रामग्न रखना चाहते हैं। 

    विशेष - यहाँ कवि ने सतपुड़ा के जंगलों का आँखों देखा चित्रण किया है। 

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    (3)

    अजगरों से भरे जंगल, 

    अगम, गति से परे जंगल, 

    सात-सात पहाड़ वाले, 

    बड़े-छोटे झाड़ वाले, 

    शेर वाले, बाघ वाले, 

    गरज और दहाड़ वाले 

    कम्प से कनकने जंगल 

    नींद में डूबे हुए से 

    ऊँघते अनमने जंगल। 

    इन वनों के खूब भीतर 

    चार मुर्गे, चार तीतर 

    पाल कर निश्चिन्त बैठे 

    विजन वन के बीच बैठे 

    झोंपड़ी पर फूस डाले 

    गोण्ड तगडे और काले 

    जबकि होली पास आती 

    सरसराती घास गाती 

    और महुए से लपकती 

    मत्त करती बास आती 

    गूंज उठते ढोल इनके 

    गीत इनके बोल इनके। 

    सतपुड़ा के घने जंगल नींद में डूबे हुए से 

    ऊँघते अनमने जंगल। 


    प्रसंग - इन पंक्तियों में मिश्र जी ने सतपुड़ा के जंगलों के भौगोलिक परिवेश का जीवन्त चित्रण किया है। 

    व्याख्या - कवि सतपुड़ा के जंगलों के भौगोलिक परिवेश का चित्रण करते हुए कहता है कि सतपुड़ा का घना जंगल विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरा हुआ है। विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु यहाँ पर निवास करते हैं; जैसे- अजगर, शेर, बाघ आदि। ऐसे में किसी मनुष्य का यहाँ प्रवेश करना दुष्कर है।

    सतपुड़ा का यह जंगल सात-सात पहाड़ों तक विस्तृत रूप है। इसका विस्तार मालवा पठार से विन्ध्य, मैकाल, छोटा नागपुर, महादेव हिल्स, सतपुड़ा और नीलगिरि तक है। शेर, बाघ की दहाड़ व गर्जन इन जंगलों को कम्पित कर जाती है। इसके फलस्वरूप ये जंगल अर्धचेतन अवस्था में ऊँघता हुआ-सा दिखाई देता है। कवि आगे कहता है कि घने जंगलों में उगी झाड़ियों में चार मुर्गे और चार तीतर निश्चिन्त बैठ कर इस निर्जन वन की हरियाली का आनन्द ले रहे हैं। इन गुफाओं में रहने वाली गोण्ड आदिवासी जाति भी अपना जीवन यापन इसी जंगल में रहकर करती है। इनकी झोंपड़ियों का निर्माण फूस द्वारा होता है, ये शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट होते हैं, परन्तु रंग में काले होते हैं। 

    होली के आगमन पर हवा के प्रबल झोंकों से हरी दूब हिल-हिल कर गाने लगती है। महुए के वृक्षों से निकलने वाली सुगन्ध समस्त वातावरण को मदमस्त कर देती है और गोण्ड जाति के सभी लोग होली पर्व को ढोल और गीत गाकर व बजाकर मनाते हैं तथा वातावरण को अधिक गुंजायमान व संगीतमय बना देते हैं। 

    विशेष - यहाँ कवि ने सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले जीव-जन्तु व आदिवासियों का वर्णन किया है। 

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    • शैली-प्रवाहात्मक व बिम्बात्मक 
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    • अलंकार-उपमा व पुनरुक्तिप्रकाश 
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    (4)

    जागते अंगड़ाइयों में

    खोह-खड्डों खाइयों में 

     घास पागल, कास पागल 

    शाल और पलाश पागल 

    लता पागल, वात पागल 

    मत्त मुर्गे और तीतर 

    इन वनों के खूब भीतर 


    प्रसंग - कवि प्रस्तुत पंक्तियों में वसन्त ऋतु के आगमन से आए उन्माद का वर्णन कर रहा है। 

    व्याख्या - कवि कहता है कि जिस प्रकार वसन्त ऋतु के आगमन पर प्रकृति के नए रूप का निर्माण होता है। उसी प्रकार सतपुड़ा के जंगल नींद के उन्माद को छोड़कर जागते हुए अंगड़ाइयों ले रहे हैं, जो नीरसता और स्तब्धता पर्वतों की खोह और गहराइयों में छाई हुई थी वह अब समाप्त हो गई है। 

    इस वसन्त ऋतु के उन्माद में घास, शाल, पलाश, झाड़, कास सभी मदमस्त हो गए हैं। सभी अपने आनन्द में डूब गए हैं। मुर्गे, तीतर सभी आनन्दित हैं। वृक्षों की डालियाँ भी पवन के झोंके ले रही हैं। 

    विशेष - यहाँ कवि ने स्पष्ट किया है कि वसन्त ऋतु ने इस नीरस व बीभत्स सतपुड़ा के जंगलों में नवीनता व उन्माद भर दिया है। 

    • भाषा-खड़ी बोली 
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    • अलंकार-अनुप्रास 
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    (5)

    क्षितिज तक फैला हुआ सा 

    मृत्यु तक मैला हुआ सा 

    क्षुब्ध काली लहर वाला 

    मन्थित उत्थित जहर वाला 

    मेरु वाला शेष वाला 

    शम्भु और सुरेश वाला 

    एक सागर जानते हो? 

    उसे कैसा मानते हो? ठीक वैसे घने जंगल 

    नींद में डूबे हुए से 

    ऊँघते अनमने जंगल। 


    प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में मिश्र जी ने सतपुड़ा के जंगल की तुलना समुद्र मन्थन से की है। 

    व्याख्या - मिश्र जी इन पंक्तियों में पौराणिक कथा समुद्र मन्थन की तुलना सतपुड़ा के जंगलों से करते हुए कहते हैं कि यह विशाल समुद्र है, जो क्षितिज तक विस्तारित है। उस समुद्र की काली-काली विशालकाय लहरों के सामने मृत्यु भी बेहद मलिन व तुच्छ प्रतीत हो रही है। समुद्र मन्थन के दौरान मेरु पर्वत, जिससे मन्थन के बाद जहर निकला, जो सागर, शेष नाग की शैय्या पर बैठे विष्णु व शंकर तथा इन्द्र का है। उस विराट समुद्र की भाँति सतपुड़ा के जंगल भी विशालकाय हैं। सतपुड़ा के जंगल अत्यन्त घने हैं और वे ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे नींद में अनमने से ऊँघ रहे हों। 

    विशेष - यहाँ मिश्र जी ने सतपुड़ा के जंगल की व्यापकता को अथाह समुद्र के समान बताया है। 

    • भाषा-सरल व खड़ी बोली 
    • शैली-विम्बात्मक 
    • छन्द-तुकान्त व गेय 
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    • अलंकार-रूपक व उपमा 
    • शब्द-शक्ति-अभिधा 


    (6)

    धँसो इनमें डर नहीं है 

    मौत का यह घर नहीं है, 

    उतर कर बहते अनेकों 

    कल-कथा कहते अनेकों, 

    नदी निर्झर और नाले 

    इन वनों ने गोद पाले। 

    लाख पंछी सौ हिरन-दल, 

    चाँद के कितने किरन-दल, 

    झूमते वन-फूल फलियाँ 

    हरित दूर्वा रक्त किसलय 

    पूत पावन पूर्ण रसमय 

    सतपुड़ा के घने जंगल 

    ऊँघते अनमने जंगल। 


    प्रसंग - प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने प्राचीन समय से चले आ रहे प्रकृति और मनुष्य के रागात्मक सम्बन्धों को स्वीकार कर उसकी शाश्वतता का चित्रण किया है।

    व्याख्या - सतपुड़ा के जंगल अपनी नीरवता व अर्द्धचेतना के लिए प्रसिद्ध रहे, परन्तु यह भी प्रकृति का एक रूप है, जोकि प्रकृति के लिए महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर से रहा है और रहेगा। कवि इन पंक्तियों में मनुष्य को प्रकृति से न डरने की सलाह देता हुआ कहता है कि प्रकृति से रागात्मक व मैत्रीयपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करो, इससे डरने की आवश्यकता नहीं है, इस जंगल की भयंकरता मृत्यु का घर नहीं है। यह भी प्रकृति का ही एक विकृत रूप है, परन्तु हर संवेदनशील हृदयशील मानव भी इस रूप के प्रति सच्ची आस्था रखता है। इस जंगल में कल-कल बहते निर्झर और नाले विद्यमान हैं। इस जंगल में लाखों पशु-पक्षी, हिरन आदि निवास करते हैं। इसमें विभिन्न पुष्पों की कलियाँ पुष्पित एवं पल्लवित होती रहती हैं। हरी-हरी घास और लाल रंग से युक्त कोमल लताएँ अपनी कोमलता से सभी को मन्त्रमुग्ध कर देती हैं। सम्पूर्ण सतपुड़ा का जंगल अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त पूर्ण तथा अत्यन्त रसमय प्रतीत हो रहा है। ऐसे सतपुड़ा के घने जंगल लताओं से आच्छादित शोभा को प्राप्त हो रहे हैं। 

    विशेष - यहाँ मिश्र जी ने मनुष्य को प्रकृति के मनोरम व बीभत्स दोनों रूपों से अवगत कराया है। 

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    • शैली-भावात्मक व बिम्बात्मक 
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    भवानी प्रसाद मिश्र 
    भवानी प्रसाद मिश्र जन्म 1914 ई. में देहांत 1985 ई. में हुआ। 
    यह गांधीवादी विचारक और  प्रसिद्ध कवि थे। 
    मिश्र जी दूसरे सप्तक के प्रथम कवि थे। दूसरे सप्तक के कवि इस प्रकार हैं - 
    1. भवानी प्रसाद मिश्र 
    2. शकुंतल माथुर 
    3. हरिनारायण व्यास 
    4. शमशेर बहादुर सिंह 
    5. नरेश मेहता 
    6. रघुवीर सहाय 
    7. धर्मवीर भारती

    सतपुड़ा के जंगल (कविता) व भवानी प्रसाद मिश्र से सम्‍बंधित महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

    भवानी प्रसाद मिश्र ने कविताएं लिखने का प्रारंभ 930 ई. से किया था, जो पंडित ईश्वरी प्रसाद के संपादन में निकलने वाली पत्रिका हिंदू पंच में प्रकाशित होती थी। 

    1932-33 में भवानी प्रसाद मिश्र जी माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए तथा चतुर्वेदी जी के आग्रह पर उन्‍होनें कर्मवीर में उनकी कविताएं प्रकाशित की। 

    हंस पत्रिका में भी कई कविताएं छपी। उसके बाद अज्ञेय जी ने दूसरा सप्तक में उन्हें प्रकाशित किया।

    दूसरा सप्तक में प्रकाशित भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं -
    • फूल लाया हूं कमल के 
    • सतपुड़ा के जंगल 
    • सन्नाटा 
    • बूंद टपकी एक नभ से 
    • मंगल वर्षा 
    • टूटने का सुख 
    • प्रलय 
    • असाधारण 
    • स्नेह पथ 
    • गीत फरोश 
    • वाणी की दीनता

    भवानी प्रसाद मिश्र के प्रमुख काव्य संग्रह -

    • गीत फरोश 
    • चकित है दुख 
    • अंधेरी कविताएं 
    • गांधी पंचशती 
    • बुनी हुई रस्सी 
    • खुशबू के शिलालेख

    गीत फरोश काव्य संग्रह में 1933 ई. से 1947 ई. तक की कविताएं संकलित हैं। 

    भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य के बारे में डॉक्टर संतोष कुमार तिवारी ने लिखा है कि ''भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य की हकीकत यह है कि वह वादों के संकीर्ण और सीमित गलियारों में नहीं सिमटते।''

    हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि ''भवानी भैया का व्यक्तित्व तूफानी रहा है, शब्दों में चाहे मोहन है, उनके व्यक्तित्व का यह तूफान दर्शाता है।'' 

    भवानी प्रसाद मिश्र ने स्वीकार किया है कि उनकी प्रारंभिक कविताओं पर मैथिलीशरण गुप्त का प्रभाव है। 
     
    भवानी प्रसाद मिश्र जी के काव्य रचना का समय वही था, जिस समय द्वितीय विश्व युद्ध के राजनीति हो रही थी। मिश्र जी का काव्य युग चेतना का संवाहक है। वह गांधीवादी विचारक के अनन्य उपासक थे। 

    Satpura Ke Jungle Poem MCQ

    प्रश्‍न 01. भवानी प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश से एक ...... थे।

    1. चित्रकार 
    2. सितारवादक 
    3. साहित्यकार 
    4. उत्कृष्ट गीतकार

    उत्तर -  3. साहित्यकार


    प्रश्‍न 02. भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं को किस सप्तक में स्थान मिला है। 

    1. तार सप्तक 
    2. प्रथम सप्तक 
    3. द्वितीय सप्तक 
    4. चतुर्थ सप्तक

    उत्तर - 3. द्वितीय सप्तक


    प्रश्‍न 03. सतपुड़ा का जंगल किस वर्ष स्थापित किया गया था। 

    1. 1982 
    2. 1985 
    3. 1990
    4. 1981

    उत्तर - 4. 1981


    प्रश्‍न 04. 'गीत फरोश' किस साहित्यकार की रचना है। 

    1. भवानी प्रसाद मिश्र 
    2. निराला 
    3. महादेवी वर्मा 
    4. सुमित्रा नंदन पंत 

    उत्तर - 1. भवानी प्रसाद मिश्र


    प्रश्‍न 05. 'गांधी पंचशती' का रचयिता कौन है।

    1. सियारामशरण गुप्त 
    2. काका कालेलकर 
    3. भवानी प्रसाद मिश्र 
    4. जयशंकर प्रसाद 

    उत्तर - 3. भवानी प्रसाद मिश्र


    प्रश्‍न 06. भवानी जी के पिता किस विभाग में कार्यरत थे।

    1. वन विभाग 
    2. शिक्षा विभाग 
    3. विपणन विभाग 
    4. महिला एवं बाल विकास विभाग

    उत्तर - 2. शिक्षा विभाग 


    प्रश्‍न 07. सतपुड़ा में कौन सी नदी बहती है।

    1. गंगा 
    2. यमना 
    3. नर्मदा 
    4. कावरी

    उत्तर - 3. नर्मदा


    प्रश्‍न 08. भवानी जी को कविता का गांधी किस ने कहा है।

    1. कहानीकार उदय प्रकाश 
    2. कहानीकार मोहन राकेश 
    3. कहानीकार शरद जोशी 
    4. ममता कालिया 

    उत्तर - 1. कहानीकार उदय प्रकाश 


    प्रश्‍न 09. सतपुड़ा के जंगल कहां स्थित हैं।

    1. होशंगाबाद 
    2. महाबलेश्वर 
    3. ओंकारेश्वर 
    4. महेश्वर 

    उत्तर - 1. होशंगाबाद


    प्रश्‍न 10. सतपुड़ा में कौन सी मिट्टी पाई जाती हैं।

    1. छिछली काली मिट्टी 
    2. पीली मिट्टी 
    3. लाल मिट्टी 
    4. मुल्तानी मिट्टी 

    उत्तर - 1. छिछली काली मिट्टी

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