इस लेख में शिक्षण के तीन प्रमुख स्तरों — स्मृति स्तर (Memory Level), बोध स्तर (Understanding Level) और चिन्तन स्तर (Reflective Level) — का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। हरबर्ट, मॉरीसन और हण्ट के शिक्षण मॉडल के माध्यम से प्रत्येक स्तर की संरचना, उद्देश्य, सामाजिक प्रणाली एवं मूल्यांकन पद्धति को स्पष्ट रूप से समझाया गया है।
यह सामग्री बी.एड., एम.एड., शिक्षक प्रशिक्षण परीक्षाओं तथा शिक्षाशास्त्र (Pedagogy) की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी है।
शिक्षण का स्तर (स्मरण शक्ति, समझ और विचारात्मक)
शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है या कह सकते हैं कि यह कक्षा में विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने की एक व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित करना है। शिक्षण और सीखने का घनिष्ठ सम्बन्ध है, यहाँ तक कि शिक्षण-सीखने का ही एक प्रत्यय माना जाता है, एक ही पाठ्य-वस्तु को विद्यालय के विभिन्न स्तरों पर पढ़ाया जाता है, क्योंकि पाठ्य-वस्तु का अपना स्वरूप होता है, जिससे शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है और अधिगम के विभिन्न स्तरों को प्रभावित किया जाता है। शिक्षण के उद्देश्य अत्यन्त स्पष्ट होने चाहिए तभी शिक्षक प्रभावशाली साधनों का प्रयोग कर इसे अधिक शक्तिवान बना सकता है।
शिक्षण की प्रक्रिया की परिस्थितियों को हम एक सतत क्रम, विचारशील क्रियाओं की अवस्थाओं या स्तरों में विभाजित कर सकते हैं। नीचे की अवस्थाएँ उच्च अवस्थाओं के लिए पूरक का कार्य करती हैं; जैसे-उद्देश्यों की प्राप्ति में ज्ञान उद्देश्यपूर्वक का कार्य करता है।
शिक्षण के इस सतत क्षेत्र को प्रमुख रूप से तीन स्तरों में विभाजित किया गया है
1. स्मृति स्तर या स्मरण शक्ति स्तर की शिक्षण व्यवस्था (हरबर्ट शिक्षण मॉडल)
2. बोध स्तर या समझ स्तर की शिक्षण व्यवस्था (मॉरीसन शिक्षण मॉडल)
3. चिन्तन स्तर की शिक्षण व्यवस्था (हण्ट शिक्षण मॉडल)
1. स्मृति स्तर या स्मरण शक्ति स्तर की शिक्षण व्यवस्था (हरबर्ट शिक्षण मॉडल)
स्मृति स्तर के शिक्षण की क्रियाएँ ऐसे अधिगम की परिस्थितियों को उत्पन्न करती है, जिसमें विषयवस्तु के तथ्यों को छात्र केवल कण्ठस्थ कर सकें। इस स्तर पर प्रत्यास्मरण तथा रहने की क्रिया पर जोर दिया जाता है। सार्थक तथा सम्बन्धित पाठ्य-वस्तु आसानी से याद हो जाती है, जबकि निरर्थक वस्तुओं को याद करने में कठिनाई होती है। तथ्यों को कण्ठस्थ करने की क्षमता का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। एक मन्द बुद्धि बालक भी तथ्यों को कण्ठस्थ करके अधिक समय तक याद रख सकता है तथा इसके विपरीत भी हो सकता है।
स्मृति स्तर के शिक्षण की निष्पत्ति का बुद्धि से सह-सम्बन्ध नहीं होता है, परन्तु इस स्तर के शिक्षण से बौद्धिक व्यवहार के विकास में सहायता मिलती है। समस्या के समाधान में स्मृति स्तर भी सहायक होता है। कण्ठस्थ किए गए तथ्यों का छात्रों के विकास में ही योगदान होता है। कविता, पाठ, शब्दार्थ और उनका अभ्यास, संस्कृत में रूप, पहाड़े, गिनतियाँ, भाषा में वर्तनी, व्याकरण तथा ऐतिहासिक घटनाओं का शिक्षण, स्मृति स्तर पर ही अधिक प्रभावपूर्ण होता है।
अतः स्मृति स्तर का पूर्णरूप से बहिष्कार सम्भव नहीं है। इस स्तर का अपना मूल्य है, अपना क्षेत्र है। इस स्तर का ज्ञान पाए बिना बोधं एवं चिन्तन स्तर ठीक कार्य नहीं कर सकते। अतः यह स्तर, अन्य विचारवान स्तरों के लिए आधारशिला प्रदान करता है।
क्योंकि स्मृति स्तर पर तथ्य काफी रटे हुए होते हैं अतः भूलने की क्रिया भी इसमें काफी सक्रिय रहती है। इसलिए आजकल कक्षा में रटी हुई सामग्री छात्रों के दैनिक जीवन में उपयोगी सिद्ध नहीं हो रही है। इस स्तर पर सोचने व तर्क करने के लिए कोई स्थान नहीं होता। छात्र निष्क्रिय रहते हैं और यान्त्रिक ढंग से कक्षा कार्य चलता रहता है। कक्षा का वातावरण काफी औपचारिक होता है तथा छात्र को शिक्षक से प्रेरणा नहीं मिल पाती।
स्मृति स्तर के शिक्षण मे संकेत अधिगम, श्रृंखला अधिगम तथा अनुक्रिया पर महत्त्व दिया जाता है। प्रश्नोत्तर विधि इसमें कोई महत्त्व नहीं रखती। स्मृति स्तर के प्रारूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए, स्मृति स्तर के मॉडल के प्रारूप का वर्णन निम्नलिखित है
स्मृति स्तर के शिक्षण का मॉडल
इस स्तर के मॉडल का हरबर्ट ने वर्णन किया है। स्मृति स्तर के शिक्षण के मॉडल के प्रारूप का वर्णन चार पक्षों में किया गया है
1. उद्देश्य
स्मृति स्तर के शिक्षण का उद्देश्य छात्रों में निम्नांकित क्षमताओं का विकास करना है
- मानसिक पक्षों का प्रशिक्षण
 - तथ्यों का ज्ञान प्रदान करना
 - सीखे हुए तथ्यों का प्रत्यास्मरण रखना
 - सोखे हुए ज्ञान का प्रत्यास्मरण करना तथा पुनः प्रस्तुत करना।
 
इसमें शिक्षण का मॉडल ऐसा प्रारूप होना चाहिए, जिससे इन उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके।
2. संरचना
हरबर्ट ने शिक्षण प्रक्रिया में प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया है। हरबर्ट की पंचपदी प्रणाली स्मृति स्तर के शिक्षण को संरचना का प्रारूप प्रदान करती है।
हरबर्ट के पाँच सोपान इस प्रकार हैं।
(i) तैयारी करना / योजना शिक्षक पाठ्य-वस्तु के सार्थक विचारों को अपने चेतन मस्तिष्क में लाता है और छात्रों को उन तथ्यों के लिए अनुभव प्रदान करता है, जिससे छात्र उन तथ्यों का प्रत्यास्मरण कर सके। इसके लिए शिक्षक को प्रस्तुतीकरण से पूर्व ही तैयारी करनी होती है।
(ii) प्रस्तुतीकरण शिक्षक नवीन तथ्यों को छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है। नवीन ज्ञान को प्रस्तुत करने में यह ध्यान रखा जाता है कि उसका छात्रों के पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। प्रस्तुतीकरण में शिक्षक के कार्य सुनिश्चित होने चाहिए तथा शिक्षक को पाठ्य-वस्तु को प्रस्तुत करना चाहिए। प्रस्तुतीकरण के प्रारूप की तीन प्रमुख विशेषताएं होती है
- सुनिश्चितता प्रस्तुतीकरण में पाठ्य-वस्तु का रूप निश्चित होता है।
 - पूर्वकथनीयता प्रस्तुतीकरण द्वारा किस प्रकार का ज्ञान प्रदान किया जाएगा, इसका कथन पहले ही कर लिया जाता है।
 - ज्ञान का स्वरूप देखा जा सके, ज्ञान के विशिष्ट रूप का प्रस्तुतीकरण ऐसा हो, जिसका अवलोकन हो सके।
 
(iii) तुलना एवं समरूपता यदि शिक्षक प्रथम दो सोपानो का अनुसरण भली प्रकार कर चुका है, तब छात्र नवीन तथ्यों की समानता की तुलना कर सकते हैं। नए तथा पुराने विचारों में सम्बन्ध भी स्थापित कर सकते हैं और उनमें सम्मिलित तथ्यों का भी चयन कर सकते हैं।
(iv) सामान्यीकरण इस सोपान के अन्तर्गत छात्र दो या दो से अधिक तथ्यों में सम्मिलित तत्त्वों को बताने का प्रयास कर सकता है और उनके आधार पर कोई सिद्धान्त निकाल सकता है, जिसको सामान्यीकरण कहते हैं।
(v) उपयोग नवीन सीखे हुए ज्ञान एवं सिद्धान्तों का अन्य तथ्यों अथवा समस्याओं के समाधान में प्रयोग होता है। अतः शिक्षक को ऐसी समस्याएँ प्रस्तुत करनी चाहिए, जिससे छात्र सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग कर सकें।
3. सामाजिक प्रणाली
शिक्षण एक सामाजिक एवं व्यावसायिक प्रक्रिया है। इसमें सामाजिक व्यवस्था का विशेष महत्त्व है। छात्र और शिक्षक इसके सदस्य होते हैं। स्मृति स्तर पर शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। शिक्षक का व्यवहार अधिकारपूर्ण रहता है। शिक्षक का मुख्य कार्य पाठ्य-वस्तु का प्रस्तुतीकरण करना, छात्रों की क्रियाओं को नियन्त्रित करना, उनको अभिप्रेरण प्रदान करना है। छात्र का स्थान शिक्षण में गौण होता है, वह केवल श्रोता का कार्य करता है और शिक्षक को आदर्श मानकर उसका अनुसरण करता है। स्मृति स्तर पर अभिप्रेरण का बाह्य रूप ही अधिक प्रयुक्त किया जाता है। शाब्दिक प्रेरणा, पुरस्कार आदि विशेष रूप से प्रयुक्त किए जाते हैं।
4. मूल्यांकन प्रणाली
स्मृति स्तर के शिक्षण का मूल्यांकन मौखिक तथा लिखित परीक्षाओं द्वारा किया जाता है। परीक्षा में रटने की (स्मरण करने) क्षमता पर ही अधिक बल दिया जाता है। इसके लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षण में प्रत्यास्मरण पद, अभिमान पद आदि का प्रयोग किया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षा अधिक उपयोगी नहीं होती है।
स्मृति स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव
स्मृति स्तर के शिक्षण को अधिक उपादेय तथा प्रभावशाली बनाने के लिए निम्नांकित सुझाव दिए जा सकते हैं
- पुनरावृत्ति एक लय में की जानी चाहिए।
 - पाठ्य-वस्तु को सार्थक बनाया जाए।
 - प्रत्यास्मरण तथा पुनः प्रस्तुतीकरण का अधिक अभ्यास किया जाना चाहिए।
 - पाठ्य-वस्तु क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत की जाए।
 - थकान के समय शिक्षण नहीं करना चाहिए।
 - समग्र-पद्धति का ही प्रयोग करना चाहिए।
 - शिक्षण के सभी बिन्दुओं को समग्र रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
 - अभ्यास के लिए अधिक समय दिया जाना चाहिए।
 
स्मृति स्तर का शिक्षण केवल तथ्यों को रटुने (याद करने) तथा ज्ञान उद्देश्यों की प्राप्ति की दृष्टि ही से महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु बोध तथा चिन्तन स्तर के शिक्षण में सहायक भी होता है तथा उनके लिए यह आधार प्रदान करता है।
2. बोध स्तर या समझ स्तर की शिक्षण व्यवस्था (मॉरीसन शिक्षण मॉडल)
शिक्षण के क्षेत्र में बोध एक बहुत व्यापक शब्द है। बोध शब्द को मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने कई अर्थों में प्रयुक्त किया है, इसलिए शिक्षक भी इस शब्द को अनिश्चित ढंग से प्रयुक्त करता है। शब्दकोश में भी इसके कई अर्थ दिए गए हैं; जैसे-
- अर्थ का प्रत्यक्षीकरण करना, विचारों का बोध होना।
 - गहनता से परिचित होना, प्रकृति एवं स्वभाव को समझना।
 - भाषा में प्रयुक्त होने वाले अर्थ को समझना।
 - तथ्य के रूप में स्पष्ट बोध होना अथवा अनुभूति होना।
 
मौरिस एल विग्गी ने बोध का प्रयोग निम्नलिखित तीन पक्षों को स्पष्ट करने के लिए किया है
2. तथ्यों को संचालन के रूप में देखना
3. तथ्यों के सम्बन्ध तथा संचालन दोनों को समन्वित करना।
बोध स्तर के शिक्षण के लिए यह आवश्यक है कि इससे पूर्व स्मृति स्तर पर शिक्षण हो चुका है। इसके बिना बोध स्तर शिक्षण सफल नहीं हो सकता। शिक्षक इस स्तर पर छात्रों को सामान्यीकरण सिद्धान्तों तथा तथ्यों के सम्बन्ध का बोध कराता है और शिक्षण प्रक्रिया को अर्थपूर्ण तथा सार्थक बनाता है।
बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों के समक्ष पाठ्य-वस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि छात्रों को बोध के लिए अधिक से अधिक अवसर मिले और छात्रों में आवश्यक सूझ-बूझ उत्पन्न हो। इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षक और छात्र दोनों ही काफी सक्रिय रहते हैं। बोध स्तर का शिक्षण उद्देश्य केन्द्रित तथा सूझ-बूझ से युक्त होता है। मूल्यांकन के लिए निबन्धात्मक तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार की प्रणाली का अनुसरण किया जाता है। ये तथ्यात्मक तृथा विवरणात्मक दोनों प्रकार की हो सकती है। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रत्यास्मरण, अभिज्ञान तथा लघु उत्तर विधियों का प्रयोग किया जा सकता है।
बोध स्तर के शिक्षण का मॉडल
मॉरीसन ने बोध स्तर के शिक्षण मॉडल को चार चरणों में प्रस्तुत किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है
1. उद्देश्य
मॉरिसन के प्रतिमान का उद्देश्य प्रत्यय का स्वामित्व प्राप्त करना है। इसमें शिक्षण की क्रियाओं द्वारा तथ्यों के रहने पर ही बल नहीं दिया जाता है, अपितु पाठ्य-वस्तु के स्वामित्व पर अधिक बल दिया जाता है। छात्रों के व्यक्तित्व के विकास को भी ध्यान में रखा जाता है।
2. संरचना
मॉरिसन ने बोध स्तर की शिक्षण व्यवस्था को पाँच सोपानों में विभाजित किया है। इन पाँच सोपानों का अनुसरण करने में बोध स्तर के लिए शिक्षण तथा अधिगम की परिस्थितियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं। इन पाँच सोपानों का क्रम इस प्रकार है -
(i) अन्वेषण
इस सोपान में निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं
- पूर्व ज्ञान का पता लगाने के लिए परीक्षण किया जाता है और प्रश्न पूछे जाते हैं, इन्हें पूर्व व्यवहार भी कहते हैं।
 - शिक्षक पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण करके उसके अवयवों को क्रमबद्ध रूप में तर्कपूर्ण ढंग से व्यवस्थित करता है। यह ध्यान रखना होता है कि पाठ्य-वस्तु का क्रम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वैध होना चाहिए।
 - अन्वेषण की तीसरी क्रिया में शिक्षक यह निश्चित करता है कि नवीन पाठ्य-वस्तु की इकाइयों को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाए।
 
(ii) प्रस्तुतीकरण
- पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण में शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है और प्रमुख रूप से उसे निम्नलिखित तीन क्रियाएँ करनी पड़ती हैं
 - शिक्षक को नवीन पाठ्य-वस्तु की छोटी-छोटी इकाइयों में प्रस्तुत करना पड़ता है। शिक्षक यह प्रयास करता है कि पाठ्य-वस्तु की इकाइयों में क्रम बना रहे और उसका कक्षा में छात्रों से सम्बन्ध स्थापित हो सके।
 - प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ शिक्षक छात्रों की समस्याओं का निदान भी करता रहता है कि नवीन पाठ्य-वस्तु का उन्हें बोध हुआ है अथवा नहीं और कक्षा के कितने छात्र पाठ्य-वस्तु को नहीं समझ सके हैं।
 - निदान के आधार पर शिक्षक तत्काल यह निर्णय लेता है कि पाठ्य-वस्तु की पुनरावृत्ति तब तक की जानी चाहिए जब तक अधिकांश छात्र नवीन पाठ्य-वस्तु को पूर्ण रूप से न समझ लें। नवीन पाठ्य-वस्तु की पुनरावृत्ति कक्षा में तीन बार तक की जा सकती है।
 
(iii) परिपाक
जब छात्र प्रस्तुतीकरण की परीक्षा को उत्तीर्ण कर ले, तब उन्हें परिपाक (Adaptation) की ओर अग्रसर करना चाहिए। परिपाक की निम्नलिखित विशेषताएँ है
- परिपाक का लक्ष्य पाठ्य-वस्तु की गहनता पर बल देना है।
 - परिपाक के समय छात्रों की व्यक्तिगत क्रियाओं को अधिक अवसर दिया जाता है। प्रत्येक छात्र अपनी आवश्यकता के अनुसार अध्ययन करता है।
 - परिपाक के समय छात्रों को पुस्तकालय तथा प्रयोगशाला में स्वयं अधिक कार्य करना पड़ता है। परिपाक के लिए गृह कार्य दिए जाते हैं।
 - परिपाक का कालांश प्रमुख रूप से पर्यवेक्षण अध्ययन का होता है। छात्र और शिक्षक दोनों ही अधिक क्रियाशील रहते हैं। शिक्षक का मुख्य कार्य छात्रों को निर्देश देना और उनकी क्रियाओं का पर्यवेक्षण करना है।
 - परिपाक का मौलिक उद्देश्य छात्रों को सामान्यीकरण के लिए अवसर देना है, जिससे वे प्रत्यय पर स्वामित्व प्राप्त कर सकें।
 - परिपाक के कालांश के अन्त में पाठ्य-वस्तु के स्वामित्व का परीक्षण किया जाए। यदि अधिकांश छात्र परीक्षा में असफल रहें तो शिक्षक को परिपाक के लिए पुनः अवसर देना चाहिए और पर्यवेक्षण में सतर्कता रखी जानी चाहिए।
 
(iv) व्यवस्था
जब छात्र स्वामित्व परीक्षा में सफल हो जाता है तब परिपाक का कालांश समाप्त हो जाता है। इसके बाद छात्र व्यवस्था कालांश अथवा वर्णन कालांश में प्रवेश करता है। यह पाठ्य-वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है कि छात्र परिपाक के बाद व्यवस्था की ओर अथवा वर्णन की ओर अग्रसर हों। मॉरीसन के व्यवस्था कालांश से तात्पर्य छात्र द्वारा पाठ्य-वस्तु को अपनी भाषा में लिखित रूप में प्रस्तुत करने से है। बोधगम्यता का यह अन्तिम सोपान स्वामित्व का सोपान माना जाता है। अतः व्यवस्था सोपान में यह सुनिश्चित किया जाता है कि छात्र पाठ्यवस्तु की प्रमुख इकाइयों को लिखित रूप में बिना किसी सहायता से पुनः प्रस्तुत कर सकता है अथवा नहीं।
व्यवस्था स्तर पर विषयवस्तु को विस्तार रूप से समझने का प्रयास किया जाता है। सीखने की एक इकाई से अनेक तथ्यों का बोध किया जाता है। व्याकरण, गणित तथा अंकगणित में लिखित रूप में बिना किसी की सहायता के पुनः प्रस्तुतीकरण का कोई महत्त्व नहीं होता है। अतः छात्र व्यवस्था कालांश को छोड़कर सीधा वर्णन कालांश में जाता है। इस प्रकार इन विषयों में परिपाक के बाद अन्तिम सोपान का वर्णन होता है।
(v) वर्णन
वर्णन कालांश (Description Period) में प्रत्येक छात्र मौखिक रूप में पाठ्यवस्तु को शिक्षक तथा अपने साथियों के सामने प्रस्तुत करता है। वह सीखे हुए विषय को सारांश रूप में भी प्रस्तुत करता है। मॉरीसन ने स्वामित्व वर्णन की योजना भी तैयार की है, जिसमें प्रत्येक दिन का वर्णन कालांश में होता है। वर्णन स्तर को लिखित रूप में भी दिया जा सकता है।
3. सामाजिक प्रणाली
बोध स्तर के शिक्षण की सामाजिक प्रणाली विभिन्न सोपानों में बदलती रहती है। प्रस्तुतीकरण सोपान में सामाजिक प्रणाली स्मृति स्तर के समान होती है। शिक्षक छात्रों के व्यवहार को नियन्त्रित करता है। शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है, परन्तु परिपाक कालांश में सामाजिक प्रणाली बदल जाती है। छात्र और शिक्षक दोनों ही अधिक क्रियाशील रहते हैं। शिक्षक निर्देश देता है और छात्र की स्वतः अभिप्रेरणा अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करती है, जबकि प्रस्तुतीकरण में शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरणा देता है। इस प्रकार बाह्य तथा आन्तरिक दोनों प्रकार की अभिप्रेरणा का प्रयोग किया जाता है।
4. मूल्यांकन प्रणाली
बोध स्तर के शिक्षण में कई स्तरों पर मूल्यांकन किया जाता है। परिपाक में प्रवेश करने के लिए प्रस्तुतीकरण की परीक्षा पास करना आवश्यक होता है। व्यवस्था अथवा वर्णन के लिए परिपाक परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना आवश्यक होता है। व्यवस्था कालांश के अन्त में लिखित परीक्षा को अधिक महत्त्व दिया जाता है, जबकि वर्णन में मौखिक परीक्षा को प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार बोध स्तर के शिक्षण के विभिन्न सोपानों के अनुसरण में मूल्यांकन को ही आधार माना जाता है। इसमें मौखिक तथा लिखित परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जाता है। परीक्षण में पाठ्यवस्तु के स्वामित्व को विशेष महत्त्व दिया जाता है।
बोध-स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव
- स्मृति-स्तर शिक्षण की परीक्षा में सफल होने पर ही छात्र को बोध स्तर के शिक्षण में प्रवेश दिया जाए।
 - बोध स्तर के सोपानों का अनुसरण समुचित ढंग से किया जाए।
 - बोध स्तर के विभिन्न सोपानों की परीक्षाओं में सफल होने पर ही अगले सोपान में प्रविष्ट किया जाए। उदाहरण के लिए प्रस्तुतीकरण की परीक्षा में सफल होने पर ही परिपाक कालांश में प्रवेश कराने की अनुमति दी जाए।
 - शिक्षक को पाठ्य-वस्तु में तल्लीन होने के साथ-साथ छात्रों को मनोवैज्ञानिक ढंग से अभिप्रेरणा भी देनी चाहिए। शिक्षक को कक्षा के आकांक्षा स्तर को उठाने का भी प्रयास करना चाहिए, जिससे छात्रों में अध्ययन के प्रति लगन हो सके।
 - इस स्तर की शिक्षण व्यवस्था की समस्याओं को ध्यान में रखकर उनके लिए समाधान भी ज्ञात करने चाहिए।
 
3. विचारात्मक/चिन्तन स्तर की शिक्षण व्यवस्था (हण्ट शिक्षण मॉडल)
चिन्तन मानव के विकास का महत्त्वपूर्ण पद है। इस स्तर पर शिक्षक अपने छात्रों में चिन्तन, तर्क तथा कल्पना शक्ति को बढ़ाता है जिससे बाद में ये छात्र इन उपागमों के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान कर सकें। इस स्तर पर शिक्षण में स्मृति तथा बोध दोनों स्तरों का शिक्षण निहित होता है। इसके बिना चिन्तन-स्तर का शिक्षण सफल नहीं हो सकता। चिन्तन स्तर का शिक्षण समस्या केन्द्रित होता है। इसमें छात्र को मौलिक चिन्तन करना होता है। छात्र विषय-वस्तु के सम्बन्ध में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। छात्र सीखे हुए तथ्यों तथा सामान्यीकरणों की जाँच करता है और नवीन तथ्यों की खोज करता है।
इस शिक्षण के सम्बन्ध में विग्गी का कथन है कि "चिन्तन स्तर के शिक्षण में कक्षा में एक ऐसा वातावरण विकसित किया जाता है, जो अधिक सजीव, प्रेरणादायक, सक्रिय, आलोचनात्मक, संवेदनशील हो और नवीन एवं मौलिक चिन्तने को खुला अवसर प्रदान करे। इस प्रकार का शिक्षण बोध स्तर के शिक्षण की अपेक्षा अधिक कार्य-उत्पादन को बढ़ावा देता है।" यह शिक्षण का सवर्वोत्तम स्तर है और पूर्णतया विचारवान है। इस प्रकार के शिक्षण में छात्र अपनी अभिव्यक्ति, धारणा, विचार, मान्यता तथा ज्ञान के अनुसार समस्या समाधान के लिए विचार तथा तर्क करते हुए नवीन ज्ञान की खोज करते हैं। यह एक उत्पादक स्थिति है, जिसमें निर्माण खोज, शोध व सृजन को जन्म दिया जाता है।
इस स्तर पर छात्र स्वयं रुचि लेकर, स्वेच्छा से चिन्तन, मनन, तर्क व कल्पना करते हुए समस्या, समाधान खोजते हैं और स्वयं को अधिक आत्मविश्वास वाला, क्रियाशील तथा सक्रिय छात्र बनाते है। इस स्तर के शिक्षणार्थ, शिक्षकों को योग्य, अनुभवी, विषय तथा क्रिया विशेषज्ञ तथा प्रभावशाली होना चाहिए। इस स्तर पर शिक्षण छात्रों के बौद्धिक व्यवहार के विकास के लिए अवसर प्रदान करता है और सृजनात्मक क्षमताओं के विकास में सहायक होता है।
चिन्तन स्तर का शिक्षण स्मृति तथा बोध स्तर के शिक्षण से भिन्न होता है, परन्तु चिन्तन स्तर के शिक्षण के लिए स्मृति तथा बोध स्तर का शिक्षण पहले होना आवश्यक है। इस प्रकार चिन्तन स्तर के शिक्षण में स्मृति तथा बोध स्तर का शिक्षण निहित होता है।
चिन्तन स्तर के शिक्षण मॉडल
हुण्ट को चिन्तन स्तर के शिक्षण का प्रवर्तक माना जाता है। इसलिए इस शिक्षण स्तर के प्रारूप को हण्ट शिक्षण प्रतिमान भी कहा जाता है। चिन्तन स्तर के शिक्षण प्रतिमान के प्रारूप का अध्ययन चार सोपानों में किया जा सकता है
1. उद्देश्य
उद्देश्य चिन्तन स्तर के शिक्षण के प्रमुख तीन उद्देश्य होते हैं, इनमें आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है
2. छात्रों में आलोचनात्मक तथा सृजनात्मक चिन्तन का विकास करना।
3. छात्रों की मौलिक तथा स्वतन्त्र चिन्तन क्षमताओं का विकास करना।
2. संरचना
चिन्तन स्तर के शिक्षण की संरचना का प्रारूप समस्या की प्रकृति पर निर्धारित किया जाता है। समस्याएँ दो प्रकार की होती हैं-व्यक्तिगत एवं सामाजिक। व्यक्तिगत समस्या के समाधान के लिए प्रमुख रूप से दो आयामों का अनुसरण किया जाता है-डी बी की समस्यात्मक परिस्थिति एवं कर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति।
डी बी की समस्यात्मक परिस्थिति
डी बी की व्यक्तिगत समस्या को निम्न दो परिस्थितियों में प्रस्तुत किया जाता है-
(i) व्यक्ति को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में बाधाएँ दिखाई देती हैं। इसे पथ-रहित परिस्थिति कहते हैं। छात्र जब अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है और मार्ग में बाधाएँ आ जाती हैं तब उसे तनाव हो जाता है, इसलिए वह उन बाधाओं पर विजय पाने के लिए समाधान सोचता है।
इस प्रकार उसके सामने समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(ii) जब व्यक्ति को दो लक्ष्य समान रूप से आकर्षित करते हैं, तब उसके सामने यह समस्या होती है कि किस उद्देश्य को प्राप्त किया जाए? इसे दो नोक वाली पथ परिस्थिति कहा जाता है। दो समान आकर्षित करने वाले लक्ष्यों की परिस्थिति में व्यक्ति में तनाव की स्थिति हो जाती है कि वह उनमें से किस लक्ष्य की ओर अग्रसर हो, इस प्रकार व्यक्ति के सामने समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।
कभी ऐसी भी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि एक ही लक्ष्य को दो मार्गों से प्राप्त किया जा सकता है और दोनों ही मार्ग सुगम होते हैं। यहाँ व्यक्ति किस मार्ग का अनुसरण करे? यह तनाव की स्थिति हो जाती है और समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।
कर्ट लेविन की समस्यात्मक परिस्थिति
कर्ट लेविन का विचार है कि व्यक्ति का कोई-न-कोई लक्ष्य होता है, जिससे उसका व्यवहार नियन्त्रित होता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन क्षेत्र होता है, जिसकी प्रकृति सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक अधिक होती है। व्यक्ति और लक्ष्य की स्थिति तनाव उत्पन्न करती है जिससे समस्यात्मक परिस्थिति बन जाती है। कर्ट लेविन ने तनाव पथ परिस्थिति के तीन रूप प्रस्तुत किए हैं
3. सामाजिक प्रणाली
चिन्तन स्तर की सामाजिक प्रणाली स्मृति तथा बोध स्तर से बिल्कुल ही भिन्न होती है। छात्र अधिक क्रियाशील रहता है। कक्षा का वातावरण खुला तथा स्वतन्त्र होता है। सीखने की परिस्थितियाँ अधिक आलोचनात्मक होती हैं। इस स्तर पर छात्रों की स्वतः अभिप्रेरणा का अधिक महत्त्व होता है। छात्र समस्या के प्रति जितना अधिक संवेदनशील होगा, उतना ही उसके मौलिक चिन्तन का अधिक विकास होगा। शिक्षक का कार्य उनके आकांक्षा स्तर को उठाना है। आकांक्षा स्तर ऊंचा होने पर ही उनके अहम् की तल्लीनता अधिक होगी। इस स्तर पर सामाजिक अभिप्रेरणा का विशेष महत्त्व है। छात्र में अध्ययन के प्रति लगन उत्पन्न होगी।
चिन्तन स्तर पर शिक्षक का स्थान गौण होता है। शिक्षण के लिए वाद-विवाद तथा सेमिनार आदि विधियाँ अधिक प्रभावशाली होती हैं।
4. मूल्यांकन प्रणाली
चिन्तन स्तर के शिक्षण के प्रतिमान का मूल्यांकन करना कठिन होता है। चिन्तन स्तर के शिक्षण की निष्पत्तियों के लिए निबन्धात्मक परीक्षा अधिक उपयोगी होती है। इस स्तर की परीक्षा की व्यवस्था करते समय निम्नलिखित पक्षों को ध्यान में रखना चाहिए
- छात्रों की अभिवृत्तियों तथा विश्वासों का मापन किया जाए।
 - अधिगम की क्रियाओं में छात्रों की तल्लीनता की भी जाँच की जाए।
 - छात्रों की समस्या समाधान प्रवृत्ति का भी मापन किया जाए।
 - छात्रों की आलोचनात्मक तथा सर्जनात्मक क्षमताओं के विकास का भी मूल्यांकन किया जाए।
 
चिन्तन स्तर के मूल्यांकन के शिक्षण के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षा अधिक उपयोगी नहीं होती है। छात्रों की इन क्षमताओं के विकास का मूल्यांकन निबन्धात्मक परीक्षाओं द्वारा किया जा सकता है।
चिन्तन-स्तर के शिक्षण के लिए सुझाव
चिन्तन स्तर पर शिक्षण के लिए निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत किए जा सकते हैं
- इस स्तर के शिक्षण के पूर्व स्मृति तथा बोध-स्तर का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।
 - प्रत्येक सम्बन्धित सोपान का अनुसरण किया जाए।
 - छात्रों का आकांक्षा स्तर ऊँचा हो।
 - उनमें सहानुभूति, प्रेम तथा संवेदनशीलता होनी चाहिए।
 - छात्र को समस्याओं के प्रति तथा अपनी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में अधिक संवेदनशील होना चाहिए।
 - चिन्तन स्तर के शिक्षण का महत्त्व बताया जाना चाहिए।
 - ज्ञानात्मक विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
 - छात्रों को अधिक-से-अधिक मौलिक तथा सृजनात्मक चिन्तन के लिए अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
 - शिक्षण का वातावरण प्रजातान्त्रिक होना चाहिए।
 - छात्रों को अधिक-से-अधिक सही चिन्तन के लिए प्रेरित किया जाए।
 
शिक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of Teaching)
शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ज्ञान, कौशल तथा अभिरुचियों को सिखाने या प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है। इस आधार पर शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ है
- शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है।
 - शिक्षण एक ऐसी पारस्परिक अन्तः क्रिया है, जिसका परिचालन विद्यार्थी के मार्गदर्शन और प्रगति के लिए होता है।
 - शिक्षण विविध रूपों में सम्पन्न हो सकता है; जैसे-औपचारिक, अनौपचारिक, निदेशात्मक एवं अनुदेशात्मक प्रशिक्षण आदि।
 - शिक्षण का अवलोकन एवं विश्लेाण वैज्ञानिक ढंग से होता है।
 - शिक्षण में संप्रेषण कौशल का आधिपत्य होता है।
 - शिक्षण शिक्षक के परिश्रन का परिणाम है।
 - शिक्षण में अपेक्षित सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
 - शिक्षण के द्वारा बौद्धिक चरित्र का निर्माण होता है।
 - इसके द्वारा आपसी सहयोग व भ्रातृत्व की भावना का पूर्ण विकास होता है।
 
शिक्षण की आधारभूत आवश्यकताएँ /मूल अपेक्षाएँ Basic Requirements of Teaching
- शिक्षण प्रक्रिया में मूल रूप से शिक्षक (स्वतन्त्र चर), विद्यार्थी (आस्तिक/परतन्त्र) और पाठ्यक्रम (हस्तक्षेप चर) की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। इसके अभाव में उत्तम शिक्षण प्रणाली का विकास असम्भव होता है।
 - शिक्षण की आधारभूत आवश्यकता छात्रों के व्यवहारों में परिवर्तन के लिए होती है।
 - शिक्षण प्रक्रिया का आधारभूत केन्द्रबिन्दु अधिगम है।
 - शिक्षण की आवश्यकता छात्रों को वांछित ज्ञान और कौशल सीखने एवं अधिग्रहण के लिए होती है।
 - शिक्षण के लिए आवश्यक तत्त्व शिक्षक होता है, जो ज्ञान का परिमार्जन करता है।
 - शिक्षण ज्ञान, बोध तथा संकल्प शक्ति द्वारा ही सम्भव है।
 - शिक्षण प्रेरक और प्रतिक्रिया के बीच में नवीन सम्बन्ध स्थापित करती है।
 - शिक्षण कौशल, शिक्षण वातावरण, संस्थागत अवसंरचना आदि शामिल होते हैं, जो मूलभूत आवश्यकता के ही भाग होते हैं।
 




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