'कुकुरमुत्ता' (कविता) : सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

‘कुकुरमुत्ता’ (1941) सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक कविता है, जिसमें उन्होंने पूँजीवाद, वर्ग-संघर्ष और सामाजिक ऊँच-नीच पर तीखा प्रहार किया है। कविता में गुलाब पूँजीपति वर्ग का, जबकि कुकुरमुत्ता शोषित सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। इस लेख में कविता का सार, पदों की व्याख्या, प्रमुख प्रतीक, रचना-काल, आलोचना और महत्वपूर्ण तथ्य सरल व स्पष्ट रूप में प्रस्तुत हैं। निराला की इस बहुचर्चित रचना की विशेषताएँ प्रगतिवादी विचार, व्यंग्य और सामाजिक चेतना को उजागर करती हैं।

कुकुरमुत्ता कविता सारांश़

 'कुकुरमुत्ता' कविता का सारांश

'कुकुरमुत्ता' (1941) यह निराला की बहुचर्चित एक हास्यव्यंग्य मूलक रचना है। इस कविता में कवि ने पूँजीपतियों पर तीखा व्यंग्य किया है। इसमें निराला जी ने मार्क्सवाद बनाम मानवतावाद को केन्द्र में रखकर कविता की रचना की। कविता के दोनों भागों की समग्रता इस बात का स्पष्ट प्रमाण देती है कि कुकुरमुत्ता सर्वहारा व पूँजीपतियों के बीच द्वन्द्व को उजागर करने वाली कविता नहीं, बल्कि ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के मध्य खाइयों को पाटने वाली कविता है। निराला ने कुकुरमुत्ता और गुलाब को आमने-सामने रखकर किसी भी प्रकार की वर्ग चेतना को स्थापित नहीं करना चाहा।

इस कविता में 'कुकरमुत्ता' ऐसे ही घृणा प्रचारक मार्क्सवादियों का प्रचारक है. जिसकी दुर्गति कविता के अन्त में होती है। उसका कलिया कबाब बनाया जाना, उसके खात्मे का परिचायक है। पूँजीवादियों को वे प्रतीकात्मक रूप से फटकारते हैं।

'कुकुरमुत्ता' कविता के कुछ पदों की व्याख्या

(1)
एक थे नब्बाव, 
फारस से मंगाये थे गुलाब। 
बड़ी बाड़ी में लगाये 
देशी पौधे भी उगाये 
रखे माली कई नौकर 
गजनबी का बाग मनहर 
लग रहा था 
एक सपना जग रहा था। 
सांस पर तहजीब की 
गोद पर तरतीब की 
क्यारियाँ सुन्दर बनी 
चमन में फैली घनी। 
फूलों के पौधे वहाँ 
लग रहे थे खुशनुमा।

व्याख्या -

निराला जी कहते हैं कि एक नवाब थे, उन्होंने अपनी बाड़ी अर्थात् उपवन में लगवाने के लिए फारस से गुलाब मँगवाए। उन गुलाबों से उनका सुन्दर बगीचा महकने लगा। उस बगीचे में गुलाब के अतिरिक्त अन्य फूलों के भी पौधे थे। नवाब ने बगीचे की देखभाल के लिए कई मालियों को रख रखा था। वह बगीचा गजनबी के सुन्दर बगीचों की तरह मनोहर था। उसे देखकर ऐसा लगता था मानो सभ्यता की साँसों पर सिलसिलेवार सुन्दर क्यारियों से एक सपना साकार हो रहा हो। वे गुलाब की क्यारियाँ पूरे बाग में घनी होकर फैली थीं। उन क्यारियों में लगे वे गुलाब के फूलों के पौधे मनमोहक लग रहे थे।

विशेष - 

  • यहाँ उर्दू की शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  • यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग किया है।

(2)
आया मौसमि खिला फारस का गुलाब 
बाग पर उसका पड़ा था रोबोदाब 
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता। 
पहाड़ी से उठे सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता। 
अबे, सुन बे, गुलाब, 
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब, 
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, 
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट ! 
कितनों को तूने बनाया है गुलाम, 
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, 
हाथ जिसके तू लगा, 
पैर सर रखकर व पीछे को भगा। 
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर, 
तबेले को टटू जैसे तोड़ कर, 
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा 
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।

व्याख्या -

जब मौसम आया तो वह 'फारस का गुलाब' पूरी शान से खिल आया। उसकी सुन्दरता व सुगन्ध पूरे बगीचे में महक उठी। हर कोई उसे आदर, सम्मान देने लगा। वहीं गन्दगी को झाँसा देता हुआ एक कुकुरमुत्ता पहाड़ी पर उग आया। उसने गर्व से सिर उठाकर गुलाब से कहा-सुन ओ गुलाब, तू जो अपनी रंग-बिरंगी छवि व सुगन्ध पर इतरा रहा है, इसके लिए तूने अशिष्टता दिखाकर खाद का खून चूसा है। तू बिलकुल उन पूँजीपतियों की तरह इतरा रहा है, जो लोगों का खून चूसते हैं, उन्हें गुलाम बनाते हैं। उसी तरह तूने भी कितने ही माली जैसे गुलाम बना रखे हैं। चाहे सर्दी हो या धूप वे सब कुछ सहन करते हुए तेरी देखभाल में लगे रहते हैं। तू जिसके भी हाथ लग गया न, वह तुझे तोड़कर सर पर पैर रखकर पीछे को भाग जाएगा। तू औरत की तरह मैदान छोड़कर भागता है, जैसे कोई टट्टू (एक प्रकार का घोड़ा) तबेले को तोड़कर उससे दूर भागता है। तू राजाओं, अमीरों और नवाबों का ही प्यारा रहा है, परन्तु आम लोगों से तू हमेशा दूर ही रहा है।

विशेष - 

  • यहाँ कुकुरमुत्ता शोषित वर्ग का और गुलाब शोषक वर्ग का प्रतीक है।
  • यहाँ मानवीकरण अलंकार तथा उदाहरण अलंकार का प्रयोग किया गया है।

'कुकुरमुत्ता' कविता के महत्‍वपूर्ण तथ्‍य

✅'कुकुरमुत्ता' सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी की एक लंबी और प्रसिद्ध कविता है। इस कविता में निराला जी ने पूंजीवादी सभ्यता पर कुकुरमुत्ता के बहाने करारा व्यंग्य किया है।

✅यह कविता स्वतंत्रता पूर्व सन् 1941 में लिखी गई निराला जी की बहुचर्चित, सामाजिक, व्यंग्यात्मक कविता है। इस कविता का मूल स्वर प्रगतिवादी है।

✅'कुकुरमुत्ता' कविता की सही-सही रचना तारीख 03-4-1941 दी गई है। इसका सामान्य अर्थ यह हो सकता है कि उक्त तिथि को निराला जी ने इस कविता को अंतिम रूप दिया होगा। कविता का पूर्वार्द्ध अगले महीने 'हंस', मई 1941 पत्रिका में छपा था। कुकुरमुत्ता के अब तक तीन संस्करण हो चुके हैं।

पहला संस्करण 'युग-मंदिर उन्नाव' से, दूसरा संस्करण 'श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय काशी, से और तीसरा संस्करण 'किताब-महल, इलाहाबाद' से छपा था। 

✅ 'युग-मंदिर उन्नाव' के संस्करण में भूमिका के नीचे निराला जी के हस्ताक्षर के साथ 04-6-42 प्रकाशन तिथि दिया हुआ है। इसके अलावा (03-6-41) भी इसी संस्करण में कविता के नीचे दिया हुआ है। कुकुरमुत्ता के इस पहले संस्करण में 'कुकुरमुत्ता' के अलावा सात और भी कविताएँ शामिल हैं।

✅पहला खण्ड में कुकुरमुत्ता गुलाब पर व्यंग्य करता है। दूसरा खण्ड में गोली की माँ ने नवाब की बेटी बहार को अपनी हमजोली बनाया। 

✅कुकुरमुत्ते का कबाब बहुत पसंद आया। कविता में कुकुरमुत्ता श्रमिक, सर्वहारा, शोषित वर्ग का प्रतीक है और गुलाब सामंती, पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि है।

✅कुकुरमुत्ता नितांत उपेक्षित सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। जिसे अपनी हीनता के बोध होने से पूंजीपति जैसे गुलाब से घृणा है। निराला जी ने कविता में एक जगह अत्यंत तीखे अंदाज में लिखा है- 'तू हरामी खानदानी रोज पड़ता रहा पानी'

✅छायावाद के उत्तरार्द्ध में 'सरोज-स्मृति' तथा 'राम को शक्ति पूजा' जैसी कविताएँ लिखने के बाद जब निराला ने मात्र छः वर्ष बाद इस कविता को लिखा तो हिन्दी समीक्षा में विचित्र कोलाहल की स्थिति पैदा हो गई। रामनरेश त्रिपाठी, सुमित्रानन्दन पन्त, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह जैसे आलोचकों ने तो आलोचना की ही, कुछ आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया कि यह कविता नहीं, साँप झाड़ने का मंत्र है।

डॉ. रामविलास शर्मा ने इस कविता की सामान्यतः आलोचना करते हुए भी इसकी कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं को रेखांकित किया। दूसरी ओर, दूधनाथ सिंह और नंददुलारे वाजपेयी ने इस कविता को निराला की प्रयोगात्मक और व्यंग्यात्मक रचनाओं का अगला सफल पड़ाव बताया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि निराला ने खुद इस कविता व भाव-भाषा-विचार-सभी दृष्टियों से आज की सबसे सुन्दर कविता' बताया है। आलोचना का यह वैविध्य, कविता की अनन्त संभावनाओं का प्रमाण है। अतः इस कवितां के समग्र मूल्यांकन की निश्चित आवश्यकता हिन्दी समीक्षा में बनी हुई है।

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