‘बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ’ महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध छायावादी एवं रहस्यवादी कविता है, जो काव्य-संग्रह ‘नीरजा’ (1935) में संकलित है। इस कविता में कवयित्री ने परमसत्ता से अद्वैत प्रेम, विरह-वेदना, स्त्री जीवन की अपूर्णता, विरोधी तत्वों का सामंजस्य तथा जीवन-संगीत की अनुभूति को प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
प्रस्तुत पोस्ट में कविता का सारांश, पद-व्याख्या, अलंकार, काव्य-विशेषताएँ और महत्वपूर्ण तथ्य सरल एवं परीक्षा-उपयोगी रूप में दिए गए हैं।
रचना - बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ
रचनाकार - महादेवी वर्मा
काव्य संग्रह - 'नीरजा' (1935)
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता का विषय
- एकाकी प्रेम अद्वितीय गाथा
- विरह-वेदना को अभिव्यक्ति
- विरहिणी का जीवन संघर्ष
- नयन भरी अखण्ड सुहागनी
- शून्यता और रहस्यवदिता
- अनन्त और नाश का सामन्जस्य
- विरोधी तत्वों की प्रधानता
- जीवन की अपूर्णता
- जीवन संगीत की धुन
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता का सारांश
प्रस्तुत कविता 'बीन भी हैं मैं तुम्हारी रागिनी भी है महादेवी वर्मा की एक छायावादी कविता है जिसमें रहस्यवाद मुखरित हुआ है। इस कविता में महादेवी ने स्वयं को परमसत्ता के साथ स्थापित कर दिया है। वह एकाकार होकर प्रेम के वशीभूत अद्वैत हो गई हैं। जिस प्रकार परमात्मा का वास संसार की प्रत्येक वस्तु में है, उसी तरह महादेवी जी ने भी स्वयं को नींद स्पन्दन, निस्पन्दन, प्रलय, जीवन, शाप, वरदान, चातक, जलद दीपक, बुलबुल, दामिनी आदि सभी में समाहित कर लिया है।
कवयित्री ने स्वयं को उस अग्नि के रूप में विकसित कर लिया है, जिससे बर्फ के कण टपकते हैं। यदि वह पत्थर है, तो वह पत्थर में ही उपस्थित कोमल भाव भी बन गई है। कवयित्री ने परमात्मा के लिए विश्व की प्रत्येक वस्तु और उसमें होने वाली प्रत्येक गतिविधि में स्वयं को सम्मिलित कर लिया है, उनमें परमात्मा का प्रत्येक रूप विभिन्न रूपों में साकार हो उठा है।
कवयित्री यदि वीणा का तार हैं, तो उसमें उठने वाली झंकार भी वे ही है। कहने का भाव यही है कि जहाँ भी परमात्मा की सत्ता का आभास होता है, उसे प्रत्येक गतिविधि या वस्तु में कवयित्री स्वयं को उपस्थित मानती है। अतः यहाँ कवयित्री द्वारा 'असीम' से अपने प्रणय-भाव को प्रकट करने की कल्पना की गई है।
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता के पदों की व्याख्या
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
प्रथम जागृति थी जगत् के प्रथम स्पन्दन में
प्रलय में मेरा पता पदचिहन जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
व्याख्या -
यहाँ कवयित्री अपने प्रियतम अर्थात् परमात्मा से संवाद कर रही है। यहाँ महादेवी वर्मा अपने प्रियतम से कहती हैं कि हे प्रियतम! मैं तुम्हारी इस नश्वर संसार में बीन भी हूँ और उससे बजने वाली रागिनी भी हूँ अर्थात् मैं तुम्हारा संगीत भी हूँ और उससे निकलने वाला स्वर भी हूँ। महादेवी वर्मा का यह स्वर अपने अज्ञात प्रियतम (परमात्मा) के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है।
कवयित्री की इन पंक्तियों में परम तत्त्व और प्रेमास्पद के अद्वैत भाव की व्यंजना अटूट रूप से ध्वनित है। वे कहती हैं कि स्थिर और निस्पन्द कण-कण में मेरी नींद थी और जगत् का जो प्रथम स्पन्दन था उसमें मेरी जागृति थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जगत् के मौन में उनकी नींद बसी थी - और जगत् में होने वाली प्रत्येक हलचल में उनका सजग भाव बसा हुआ था।
अपने रहस्य को और मुखरता देते हुए कवयित्री कहती है कि मैं प्रलय में भी उपस्थित हूँ और जीवन में भी मेरे पर्दाचह्न मिलेंगे अर्थात् (हे मेरे प्रियतम) संसार के हर दुःख और सुख में मैं ही उपस्थित है। यहाँ कवयित्री के एकाकार होने का भाव परिलक्षित है। जिस प्रकार परमात्मा का वास हर जगह है. उसी तरह कवयित्री ने भी स्वयं को हर स्थिति में उपस्थित माना है।
कवयित्रो आगे कहती है कि मैं वो शाप हैं जो बन्धन में बंधकर वरदान बन गई है अर्थात् मेरा संसार में एकाकी जीवन एक शाप की तरह था, लेकिन मैंने स्वयं को तुम्हारे बन्धन में बाँधकर उसी शाप को अपने लिए वरदान बना लिया है। मैं किनारा भी हैं तो मैं किनारों को तोड़कर बहने वाली नदी भी हैं। यदि मैंने संसार के बहुत से मोह-माया के बन्धनों में स्वयं पर नियन्त्रण किया है तो मैंने उस नियन्त्रण को अपने जीवन में बाधक बनते देख तोड़ भी दिया है, जिनके कारण तुम्हारे और मेरे प्रेम के बीच में अवरोधक बने थे।
विशेष -
- यहाँ छायावाद की प्रमुख विशेषता 'रहस्यवाद' को अभिव्यक्ति दी गई है।
- विरोधाभास अलंकार तथा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग किया गया है।
- यहाँ लाक्षणिकता का प्रयोग किया गया है।
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उन में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ।
व्याख्या -
कवयित्री कहती है कि मैं उस प्यासे चातक के समान हूँ, जिसकी आँखों में बादल हैं। मैं वह पतंगा हूँ, जिसके प्राण में दीपक समाया हुआ है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं वह प्यासा चातक हूँ, जिसके लिए बादल अनिवार्य है और उसके लिए वह हमेशा व्याकुल रहता है। उसी तरह मैं वो टिमटिमाता दीपक भी हूँ, जिसके लिए पतंगा अपने प्राणों का बलिदान कर बैठता है।
कवयित्री आगे कहती है कि मैं वो बुलबुल हूँ, जिसके हृदय में फूल छिपा रहता है अर्थात् में उस बुलबुल के समान हूँ, जिसके हृदय में फूल की कामना छिपी रहती है। महादेवी वर्मा जी कहती हैं कि मैं वो शरीर भी हूँ, जिसकी परछाई एक होने के बावजूद दूर-दूर रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार परछाई और शरीर एक होते हुए भी दूर होते हैं और चलायमान रहते हैं। उसी प्रकार हे प्रियतम ! आप और मैं भी पास होते हुए दूर हैं। कवयित्री कहती है कि भले ही मैं तुमसे कितनी ही दूर हूँ, परन्तु हे प्रियतम! मैं अखण्ड सुहागिनी भी हूँ। मैंने स्वयं को आपके लिए समर्पित कर दिया है, इसलिए मैं अब अखण्ड सौभाग्यवती हो चुकी हूँ, क्योंकि हे प्रियतम ! आप अजर, अमर और अनश्वर हैं, इसलिए मेरा सुहागिन होना भी अमर ही है।
विशेष -
- यहाँ रहस्यवाद की मुखरता है।
- विरोधाभास अलंकार का प्रयोग किया गया है।
- यहाँ लाक्षणिकता का प्रयोग किया गया है।
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता के पदों में अलंकार
✅'मैं' नीर भरी दुख की बदली - संपूर्ण पद में मानवीकरण अलंकार और 'मैं' पद में श्लेष अलंकार।
✅नयनों में दीपक से जलते - उपमा अलंकार ।
✅मेरा पग-पग संगीत भरा - पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार ।
✅मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल - रूपक अलंकार।
✅परिचय इतना, इतिहास यही - अनुप्रास अलंकार।
✅नवजीवन-अंकुर बन निकली - रूपक अलंकार
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता के महत्वपूर्ण तथ्य
🦢 'मैं नीर भरी दुख की बदली 'गीत बदली' को आधार बनाकर लिखा गया है।
🦢 'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ !' शीर्षक कविता महादेवी वर्मा के काव्य-संग्रह 'नीरजा' (1935) में संगृहीत है।
🦢 कविता में 'मैं' शब्द श्लेषात्मक है जिसका एक अर्थ 'बदली' और दूसरा अर्थ स्वयं कवयित्री अथवा कोई वेदना ग्रस्त नारी हो सकती है।
🦢 'मैं नीर भरी दुख की बदली' के भी श्लेषात्मक रूप में दो अर्थ होंगे एक जलपूरित उमड़ते-घुमड़ते बादल और दूसरा दुखी और वेदनाग्रस्त नारी।
🦢 इस कविता की सुंदरता इस बात में है कि इसका एक अर्थ रहस्यवादी ढंग से ईश्वरीय प्रेम का अर्थ देता है तो दूसरी तरफ स्त्री जीवन की पूर्णता का अर्थ देता है।
🦢स्त्री के बारे में यह बात कई तरह से कही गयी है कि वह 'आधी' है या 'अधूरी' है। वह पुरुष से जुड़कर पूर्ण होती है।
🦢 इन भेदों को मिटाते हुए महादेवी स्त्री के व्यक्तित्व को अभेद और अद्वैत की तरह पूर्णता प्रदान करना चाहती हैं।
🦢कवयित्री 'सुख की सिरहन हो अंत खिली' के माध्यम से स्वयं की अमरता अथवा सुयश की ओर संकेत की है।
🦢 पद्य के अंतिम में निराशावादी दृष्टिकोण और जीवन के प्रति अनास्था का स्वर मुखरित हुआ है।
🦢 इस कविता में यह भी बताया गया है कि मानव जीवन चिरस्थायी नहीं बल्कि क्षणिक है। अतः मानव जीवन का यही परिचय है कि जो आज है वह कल नहीं होगा।
🦢 कविता में विरहिणी के पदचापों में संगीत है (यौवन का, रूप का) और उसकी सुगंधित साँसें उसकी कामनाओं की सूचक है।
🦢कवयित्री अपनी वैयक्तिक भावनाओं का आरोप प्रकृति के क्रिया-कलापों के माध्यम से व्यक्त करती है।
🦢 कविता में खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग किया गया है।
'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' कविता - महादेवी वर्मा
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!
आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी
तार भी आघात भी झंकार की गति भी
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!

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