अँधेरे में कविता का सारांश
'अँधेरे में' एक ऐसी लम्बी कविता है जो अपना प्रतिमान स्वयं है। यह न तो किसी कथा पर आधारित है, न मात्र अपने जीवन के ऊहापोह से गुजरती है। यह न एक बने-बनाए आशावाद के सरल मार्ग से चलती है न जुगुप्सा, निराशा और यौन-पिपासा के कीचड़ में पाँव धँसाकर चलती है, यह एक ऐसी नई कविता है जो स्वयं सामाजिक सन्दर्भों से कथा गढ़ती है वह भी कोई एकसूत्रीय कथा नहीं खण्ड कथा। उस कथा को कवि की आत्मकथा से जोड़ती है, कवि की भी आत्मकथा कोई बनी-बनाई कथा नहीं है।
वह उसकी यातना, उसकी संवेदना, उसके चिन्तन से बनी हुई कथा है- खण्ड कथा। कवि (जिसे इस कविता का नायक कहा जा सकता है) की आत्मकथा एक ऐसे कवि की आत्मकथा है जो अपने में डूबा हुआ न होकर बाहर से जुड़ा है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि वह अधिकांश प्रगतिवादियों की तरह मात्र बाहर है। इसलिए उसके भीतर और बाहर की कथा के साहचर्य और टकराहट से एक ऐसी कविता बनती चलती है जो अपनी संवेदना में जटिल है, बहुआयामी है और संरचना में नाटकीय तथा अपने भीतर से निर्मित।
टकराहटें, बाहर-भीतर की ही नहीं हैं बाहर और बाहर तथा भीतर और भीतर की भी हैं। समाज के कई स्तर और रूप हैं, वे आपस में टकराते हैं; कवि के भीतर कई रूप हैं चेतन और अवचेतन के, निराशा और आशा के, क्रिया और कर्महीनता के, भय और साहस के। भीतर तथा भीतर, बाहर और बाहर तथा बाहर और भीतर की टकराहटों से यह कविता बनती है अर्थात् यह आत्मसंघर्ष और सामाजिक संघर्ष तथा आत्म और अनात्म के संघर्ष से गुजरने वाली कविता है, इसलिए यह एक जटिल, गहरी तथा बहुआयामी कविता है। कवि ने इस जटिल कथ्य की अभिव्यक्ति के लिए स्वप्न और फैंटेसी की शैली अपनाई है इसलिए मुक्त साहचर्य की पद्धति जहाँ कथा को विस्तार देती है और सामाजिक यथार्थ के अनेक संक्रान्त और जटिल सम्बन्धों को सरलता से उजागर करती है वहीं दुरूहता भी भरती है।
यह दुरूहता न केवल कविता की गति को मारती है वरन् कविता की अनेक संगत और असंगत तथा परस्पर विरोधी व्याख्याएँ करने की छूट देती है। यही वजह है कि इस कविता की तथा स्वयं मुक्तिबोध की तरह-तरह की व्याख्याएँ हुई हैं-
मार्क्सवादी व्याख्या भी, अस्तित्ववादी व्याख्या भी और मनोविश्लेषणवादी व्याख्या भी। यह सच है, कि मुक्तिबोध के काव्य में इन तीनों ही व्याख्याओं की काफी गुंजाइश है, किन्तु इस प्रकार की दुरूह और कई प्रकार की अर्थसम्भावनाएँ फेंकने वाली कविताओं के मूल स्वर की पहचान के लिए हमें कवि की अन्य कविताओं तथा आलोचनाओं (यदि हैं तो) तथा जीवन-सन्दर्भों की सहायता लेनी चाहिए। समग्र भाव से देखने पर मुक्तिबोध का मूल स्वर प्रगतिवादी ही लगता है इसलिए 'अँधेरे में' कविता की जटिलता और दुरूहता के बीच अन्तर्निहित प्रगतिवादी स्वर को ही मूल स्वर मानना संगत होगा।
'अँधेरे में' कविता के कुछ पदों की व्याख्या
(1)
कमरों में अँधेरे
जिन्दगी के...
कोई एक लगातार;
लगाता है चक्कर
आवाज पैरों की देती है सुनायी
बार-बार...बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किन्तु, वह रहा घूम
तिलिस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्मय अंधकार ध्वनि-सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक् धक्
पूछती है-वह कौन
व्याख्या - कवि कहता है कि ज़िन्दगी के अँधेरे वाले बन्द कमरे में अर्थात् अन्तर्मन की गहराई में कोई एक आशंका, किसी एक स्थिति का रूप-भाव अचानक उमड़ने की चेष्टा कर रहा है। उसके अज्ञात पैरों की अज्ञात-सी आवाज़ अपने अन्दर-ही-अन्दर मेरे कान निरन्तर सुन रहे हैं या अनुभव कर रहे है। मैं उस आशंकित भाव-विचार के स्वरूप को बार-बार देखने की चेष्टा करता हूँ, परन्तु वह दिखाई ही नहीं दे रहा। कहने का तात्पर्य यह है कि समझने का प्रयत्न करने के बावजूद भी वह अपनी उसी स्थिति में स्पष्ट समझ में नहीं आ रहा है। वह मन की तिलस्मी गुफा में बन्द निरन्तर घूम रहा है। ऐसा लगता है जैसे दीवार के पार से किसी के आने की पद-चाप तो सुनाई दे रही है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह किसकी है।
उसी प्रकार मन में कुछ उमड़-घुमड़ रहा है। लगता है जैसे गहरे अँधेरे में कोई रहस्यमय ध्वनि अपने अस्तित्व को स्पष्ट करने के लिए रह-रहकर उठ रही है। उसको प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट देखकर व समझकर मेरे हृदय की धक-धक करती धड़कनें अपने आप ही पूछ उठती हैं कि वह कौन है, जिसे मैं सुन तो रहा हूँ, पर देख नहीं पा रहा।
विशेष -
- प्रतीकात्मकता का प्रयोग।
- कवि ने अपने मनोद्वन्द्व की गहन अभिव्यंजना की है।
- फैण्टेसी का प्रयोग।
(2)
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुसकाता है,
पहचान बताता है,
किन्तु, मैं हतप्रभ,
नहीं वह समझ में आता।
व्याख्या - शहर के बाहर, पहाड़ी के उस पार, एक गहरा तालाब है। उसके चारों ओर गहरा अँधेरा छा रहा है। तालाब का जल भी जैसे जड़-निस्तब्ध होकर रह गया है पर, उसके पानी के भीतर से गहरे काले पानी रूपी शीशे के भीतर से कोई श्वेत आकार सहसा मेरे समक्ष उभर रहा है। कोहरे से ढका अर्थात् श्याम एवं विवर्ण-सा पड़ गया कोई बड़ा चेहरा मेरी चेतना के सामने फैला जा रहा है। वह चेहरा मुस्करा कर अपनी पहचान बताने की कोशिश करता है, पर मैं हत्प्रभ-सा, अनचीन्हे भाव से घिरा रहा जाता हूँ। कुछ समझ में नहीं आ पा रहा कि आखिर चेतना पर सहसा उभरकर छा जाने वाला वह आकार किसका है? कौन है वह जो इस प्रकार उभरकर मेरी चेतना को जैसे झिंझोड़ रहा है।
विशेष -
- सम्पूर्ण विवरण पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक एवं मनोद्वन्द्व का सघन परिचायक।
- फैण्टेसी का प्रयोग।
- प्रतीकात्मक शैली।
(3)
वह बिठा देता है तुंग शिखर के
खतरनाक, खुरदरे कगार-तट पर
शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।
कहता है-"पार करो, पर्वत-सन्धि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिख-कगार पर स्वयं ही पहुँचो।"
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल !
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन... वैसे ही
आप चला जायेगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा
पीड़ाएँ समेटे !!
क्या करूँ, क्या नहीं करूँ मुझे बताओ; इस तम-शून्य में तैरती है
जगत-समीक्षा की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान उसका
तम-अन्तराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारें मुझमें द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता!!
नहीं, नहीं, उसको मैं छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही !
व्याख्या - कवि कहता है कि अन्तश्चेतना के द्वन्द्वों में मचलने वाला मेरा यह प्रिय विचार व भाव मुझे उसकी उच्चता के शिखरों पर बिठा देता है अर्थात् उसकी अन्तःप्रेरणा से मेरे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रकार के नए-नए उच्च विचार जागृत होने लगते हैं। वे विचार कई बार अत्यधिक खुरदरे अर्थात् अटपटे और खतरनाक भी हुआ करते हैं। इस प्रकार मैं अत्यधिक चिन्तनीय स्थिति में चला जाता हूँ। कभी वह कहता है कि पहाड़ियों के सन्धि-स्थलों में विद्यमान गुफाओं खड्डों को पार कर रस्सी से बने पुल पर चलकर दूर दिखाई देने वाले शिखर की चोटियों के किनारों तक स्वयं पहुँचों। वह मुझे अनेक प्रकार की विषमताओं व कठिनाइयों को पार कर अपने जीवन के उच्चतम लक्ष्यों तक अकेले पहुँचने की प्रेरणा देता है।
कवि कहता है, उसके बाद तब मैं कह उठता हूँ-नहीं, मुझे शिखरों की यात्रा नहीं करनी है अर्थात् किसी भी उच्च लक्ष्य को नहीं पाना है। मुझे इन ऊँचाइयों से बहुत डर लगता है अर्थात् उच्च लक्ष्यों तक पहुँचने के रास्ते अनेक कठिनाइयों के डर से पूरित हैं। अतः मुझे सचेत करने के लिए जो साँकल बज रही है उसे बजने दो। जीवन के इस अंधेरे में आगे बढ़ने की तथा उन पर उठने की प्रेरणा देने वाली ध्वनियों के बुलबुले बनने-बिगड़ने दो अर्थात् अन्तः वैचारिक संघर्ष चलने दो। प्रेरणा देने, चेताने के लिए सॉकल बजाने वाला जैसे स्वयं आया था वैसे स्वयं ही चला भी जाएगा। मैं जीवन की गहन विषमताओं रूपी खड्डों के अन्धकार में अपनी पीड़ाएँ समेटते-सहते इसी की प्रकार पड़ा रहूँगा। शायद ऐसे पड़े रहना ही मेरी नियति है।
कवि कहता है कि ओह! मैं क्या करूँ? क्या नहीं करूँ? कोई तो मुझे बता दे। मन के इस गहरे अँधेरे में, मन की इस गहन बर्बरता में संसार की समीक्षा का उलझा भव अनवरत तैर रहा है। मैं वह सब सहने में असमर्थ हूँ। मेरे अन्तराल में महान विवेक का भाव विक्षोभ से पीड़ित हैं अब वह इस प्रकार की व्यथा, विषमता और शुन्यता को सहन नहीं कर सकता। मेरे भीतर भरे अँधेरे से निपटने के लिए उसने के प्रकाश युक्त आकृति वाला भविष्य का नक्शा दे रखा है, उसकी अवमानना, उसका बिगड़ता रूप-नहीं, अब यह सब सहन नहीं किया जा सकता। नहीं, नहीं,
उस वैचारिक द्युति पुरुष को, अपने प्रिय का मैं किसी भी मूल्य पर त्याग नहीं कर सकता। इसके बदले में मुझे तब चाहे कुछ भी सहना पड़े मैं सहन करूँगा।
विशेष -
- अन्तर्द्वन्द्व की पराकाष्ठा।
- प्रतीकात्मक शैली।
अँधेरे में कविता के महत्त्वपूर्ण तथ्य
- 1964 में प्रकाशित कवि के कविता- संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' में संकलित है।
- यह आठ भागों में विभक्त एक लंबि कविता है।
- 'मुक्तिबोध रचनावली' में नेमिचंद्र जैन ने इस कविता का रचनाकाल 1957 से 1962 के मध्य संभावित बतलाया है।
- इस कविता में स्वप्न और फैंटेसी की शैली अपनाई गई है।
- इस कविता की अन्तर्वस्तु में मुक्तिबोध ने अपने समय के प्रखर यथार्थ को, सत्ता के दमनकारी जनविरोधी चेहरे को, आतंक, भय, यातना, हिंसा और रक्तपात रक्तपात की बुनियाद पर टिकी उसकी एक–एक ईंट को बेनकाब किया है।
- 'चांद का मुंह टेढ़ा है' की भूमिका में शमशेर ने लिखा है कि इस कविता की रचना मुक्तिबोध ने राजनांदगांव में की थी।
- नागपुर रेडियो में मुक्तिबोध के सहकर्मी अनिलकुमार का भी लक्षित मुक्तिबोध' में कहना है कि 'अंधेरे में' कविता की पृष्ठभूमि एंप्रेस मिल गोलीकांड से संबंधित है
- विष्णुचंद्र शर्मा ने 'मुक्तिबोध की आत्मकथा' में इस गोलीकांड की जो चर्चा की है, उससे पता चलता है कि मुक्तिबोध घटना स्थल पर 'नया खून' के रिपोर्टर की हैसियत से मौजूद थे।
- संकलनकर्ता श्रीकांत वर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा है : "बीमारी के दौरान मुक्तिबोध ने ने इच्छा जाहिर की कि इस संकलन में उनकी दो कविताएं - 'चंबल की घाटियां' और 'आशका के द्वीप : अंधेरे में'-जरूर शामिल की जाएं। दोनों एक के बाद दूसरी छापी जाएं और दसरी का शीर्षक बदल दिया जाए।
- ये दोनों ही कविताएं उनकी, बीमार पड़ने के कुछ ही समय पहले की, कविताएं हैं और इस दृष्टि से अब तक की कविताओं में ये उनकी अंतिम कविताएं हैं।"
- 'चांद का मुंह टेढ़ा है' के प्रकाशन और मुक्तिबोध की मृत्यु (11 सितंबर, 1964) के बाद 'कल्पना' के नवंबर, 1964 के अंक में यह कविता प्रकाशित हुई -'आशंका के द्वीप : अंधेरे में' शीर्षक से, जिसका मतलब यह है कि श्रीकांत वर्मा से इस कविता के शीर्षक में परिवर्तन करने की बात कहने के पहले ही उन्होंने उसे 'कल्पना' में प्रकाशनार्थ भेजा था।
'अँधेरे में' कविता के मूल कथ्य के विषय में विद्वानों के कथन
- रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार - "मुक्तिबोध का काव्य-संकलन 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' एक बड़े कलाकार की 'स्कैच-बुक' लगता है।"
- रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार - " अँधेरे में के लम्बे खण्डों में कवि की समस्या है समाज के उत्थान - पतन और आन्दोलन के बीच अपनी रचना के प्रेरक तत्त्वों का अभिज्ञान, रचना कैसे बाहर से अन्दर आती है और फिर कैसे बाहर दूर-दूर तक परिव्याप्त हो जाती है।"
- शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार - "यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है। इसमें अजब और अद्भुत रूप से व्यक्ति और जन का एकीकरण है।"
- रामविलास शर्मा के अनुसार - "अपराध भावना का अनुसन्धान"।
- इन्द्रनाथ मदान के अनुसार - "आत्म संशोधन का अनुसन्धान"।
- निर्मला जैन के अनुसार - "अन्तस्थल का विप्लव" ।
- रामविलास शर्मा के अनुसार - "अरक्षित जीवन की कविता"
- नामवर सिंह के अनुसार - "अस्मिता की खोज"।
- प्रभाकर माचवे के अनुसार - "लावा"।
Andhere Me Kavita MCQ
प्रश्न 01. 'अंधेरे में' कविता के कवि कौन हैं?
- गजानन माधव मुक्तिबोध
- रामविलास शर्मा
- प्रेमचंद
- जयशंकर प्रसाद
- विशाल भारत
- इन्दु
- कल्पना
- हंस
- 26 वीं
- 27 वीं
- 28 वीं
- 29 वीं
- फ़ैंटेसी
- विलाप
- गीत
- इनमें से कोई नहीं
- जनवरी, 1965
- दिसम्बर, 1964
- नवम्बर, 1964
- अक्टूबर, 1964
- रक्तालोकस्नातपुरुष
- अरुण कमल
- बरगद
- तालाब
- मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी सर्वहारा वर्ग से तादात्म्य स्थापित करना
- शासक और बौद्धिक वर्ग के बीच का गठबंधन
- जनता का क्रांतिकारी होना
- शासक वर्ग का शोषण
- स्वयं काव्यनायक
- रहस्यमय व्यक्ति
- एक सिरफिरा पागल
- प्रियंवद केशकबली
- उत्प्रेक्षा
- रूपक
- यमक
- उपमा*
- टॉलस्टॉय
- महात्मा गाँधी
- लोकमान्य तिलक
- कार्ल मार्क्स
- इंप्रेस मिल के मजदूरों की हड़ताल
- गोली कांड
- दोनों
- इनमें से कोई नहीं
- शासक वर्ग
- बुद्धिजीवी वर्ग
- मजदूर वर्ग
- इनमें से कोई नहीं
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