'सरोज स्मृति' निराला द्वारा लिखी गई लम्बी कविता तथा शोकगीत है। उन्होंने यह शोकगीत वर्ष 1935 में अपनी 18 वर्षीय पुत्री सरोज के निधन के बाद लिखा था। इस कृति में उनके व्यक्तिगत जीवन का सत्य मुखरित हुआ है।
इस लेख में हम सरोज-स्मृति का सरल सारांश, चयनित पदों की व्याख्या, काव्यगत-शिल्पगत विशेषताएँ, महत्त्वपूर्ण तथ्य, और परीक्षा-उपयोगी बहुविकल्पीय प्रश्न-उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सामग्री विद्यार्थियों, प्रतियोगी परीक्षार्थियों, शोधार्थियों और साहित्य-प्रेमियों सभी के लिए उपयोगी है।
यदि आप निराला के काव्य-मर्म, उनकी करुणा-भावना और ‘सरोज-स्मृति’ की गहन अनुभूतियों को समझना चाहते हैं, तो यह लेख आपके लिए संपूर्ण और विश्वसनीय अध्ययन-सामग्री है।
'सरोज स्मृति' कविता का सारांश
हिंदी साहित्य में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का स्थान उनकी अद्भुत संवेदनशीलता, करुणा और जीवन-संघर्ष की कविताओं के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उन्हीं में से एक है ‘सरोज-स्मृति’, जिसे हिंदी का सर्वश्रेष्ठ शोकगीत माना गया है। यह कविता निराला की 18 वर्षीय पुत्री सरोज के निधन पर लिखी गई एक आत्मकथात्मक, हृदयविदारक और अत्यंत मार्मिक काव्यरचना है, जिसमें एक पिता का दुःख, समाज की विसंगतियाँ, जीवन-संघर्ष, प्रेम, करुणा और विद्रोह को साकार हो उठते हैं।
राम विलास शर्मा के अनुसार निराला के संबंध में -
"जीवन द्रष्टा अनेक हुए हैं जीवन से निराश होकर मृत्यु का आमंत्रण करने वालों की भी कमी नहीं। जो मृत्यु का सामना करके मृत्यु का वरण करते हैं, उन विरले साधकों में थे निराला।"
'सरोज स्मृति' के कुछ पदों की व्याख्या
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जन्म से जन्म की विदा अरुण।
गीते, मेरी, तज रूप-नाम,
कर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टा दशाध्याय,
चढ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह- 'पितः पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
सरोज का ज्योतिः शरण-तरण।
व्याख्या -
प्रस्तुत पद्यांश में 'निराला' अपनी पुत्री सरोज की स्मृति में अपने हृदय की वेदना व्यक्त करते हुए कहते हैं कि हे पुत्री! जैसे ही तुमने जीवन के उन्नीसवें वर्ष में कदम रखा, उसी समय तुमने संसार रूपी सागर को पार कर लिया। तुमने युवावस्था में ही अपनी आँखें झुकाकर पिता से चुपचाप जीवन की विदा माँग ली। हे मेरी गीते! तुमने अपना नाम व रूप छोड़कर अमरता का वरण कर लिया और जीवन से हमेशा के लिए विराम ले लिया। तुमने अपने 18 वर्षों को पूरा कर मानो जीवन गीता के 18 अध्याय को पूरा कर लिया। उसके बाद तुमने मृत्यु की नाव में फुर्ती से कदम रख लिया। उस समय (मरते समय) तुमने मुझे कहा कि हे पिता! मैं मरी नहीं हूँ, बल्कि मैंने तो पूर्ण आलोक का वरण कर लिया है। यह तो सरोज का सूर्य की ज्योति में लीन हो जाना है।
विशेष -
- इस पद्यांश में निराला ने अपनी पुत्री की वास्तविक मृत्यु को एक अलौकिक रूप दे दिया है।
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी-की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार
भर जलद धरा को ज्यों अपार
बेटी सुख-दुःख में रहे व्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त व्यस्त,
वह लता वहीं की, जहाँ कली,
तू खिली स्नेह से हिली पली
अन्त भी उसी गोद में शरण
ली मूँदे दृग वर महामरण।
व्याख्या -
निराला अपनी पुत्री के विवाह होने के बाद के सूक्ष्म वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे सरोज! तुझे मैंने हर वो शिक्षा दी, जो एक माँ देती है। तुझे मैंने फूलों की कोमल शब्या पर सुलाया। कवि कहते हैं कि जिस प्रकार ऋषि कण्व ने शकुन्तला का पालन-पोषण किया था, उसी तरह मैंने भी किया, लेकिन फिर तुरन्त कहते हैं कि वह वन्य आश्रमों का रहन-सहन, परन्तु यहाँ एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में तेरा पालन-पोषण हुआ। वे आगे कहते हैं कि हे पुत्री! कुछ दिन तुम अपने घर में आनन्द पूर्वक रहीं, फिर तू अपनी नानी के यहाँ चली गई, जहाँ तुझे नानी की गोद और मामा-मामी का प्यार मिला। अपने ननिहाल में तुझे इतना प्यार मिला जैसे बादल वर्षा से पृथ्वी को भर देते हैं।
वे लोग तेरे सुख-दुःख में निरन्तर लगे रहे और तेरे हित का ध्यान रखकर हमेशा उसी में व्यस्त रहे। कवि दुःर दुःखी होकर कहते हैं कि हे पुत्री! जिस लता में तू कली के रूप में खिली थी वहीं तुमने मृत्यु का वरण कर लिया अर्थात् जहाँ तेरा जन्म हुआ, बचपन बीता वहीं आज 19वें वर्ष में मृत्यु का वरण कर लिया।
विशेष -
- यहाँ एक पिता का अपनी पुत्री के प्रति असीम प्यार और उसकी मृत्यु के बाद मिले अथाह दुःख का मार्मिक वर्णन किया गया है।
कुछ भी न कहा, न अहो, न अहा,
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार-
ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलांगारः
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल-नहीं सुजल।
फिर सोचा-"मेरे पूर्वज-गण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूँ पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचारः
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम, निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द बन्ध की, निराधार।
व्याख्या -
निराला जी कहते हैं कि हे पुत्री! तेरी सासु माँ के पत्र की बातें सुन और विचार कर मैं चुप ही रहा। मैंने हाँ-ना कुछ भी नहीं कहा। जैसे भिखारी सोना मिलने पर उसे लेकर चुपचाप चल देता है, उसी प्रकार मैं तुम्हें लेकर चल दिया। मुझे ऐसा लगा कि जैसे तेरे रूप में निर्मल प्रकाश की एक ज्योति को अपने घर की छाया में ले आया हूँ। मैंने दुःखद मन से बार-बार तेरे विवाह के बारे में सोचा। सोचा कि वह कान्यकुब्ज जाति या वंश के ब्राह्मण वास्तव में अपने कुल को आग लगाने वाले व नष्ट करने वाले कलंक हैं। ये लोग जिस पत्तल में खाते हैं, उसी में छेद करने के आदी है अर्थात् सहारा देने वाले को ही हानि पहुँचाते हैं। इनके हाथों में कन्या सौंपने का अर्थ दुःख को ही गले लगाना है। जिस प्रकार जहर की बेल में जहरीला फल ही लगा करता है, उसी प्रकार इन कान्यकुब्जों के विषय-वासनापूर्ण व्यवहार भी विषैले और विनाशक हुआ करते हैं। इनके वंश जल रहे रेगिस्तान के समान हैं, जहाँ शान्ति और सन्तोष का जल बिलकुल नहीं हुआ करता है।
इसके बाद मैंने फिर सोचा-जिस रास्ते पर मेरे पूर्वज चले हैं, उसी पर चलना मेरे लिए भी शोभनीय होगा। यद्यपि परम्परागत पुराने और रूढ़िवादी विचारों को तोड़ने से मैं डरता नहीं, फिर भी क्यों न परम्परा में ही पुत्री के विवाह की लोक रीति को पूरा कर दूँ। लेकिन मैं पुरानी परम्पराओं के बोझ को ढो पाने में भी तो असमर्थ हूँ। निश्चयपूर्वक मुझमें इतनी नम्रता नहीं आ पाएगी जोकि रिश्ते-नातों को सहृदयता के बन्धन अथवा सीमाओं को एकदम पार कर सके अर्थात् ऐसा कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है कि मैं अपने रिश्ते-नातों को पूर्ण सन्तुष्ट कर सकूँ, क्योंकि मैं धन-साधन से रहित हूँ।
विशेष
- प्रस्तुत पद्यांश में पिता के मन में पुत्री के विवाह को लेकर चल रहा अन्तर्द्वन्द्व का वर्णन किया गया है।
सरोज स्मृति की काव्यगत विशेषताएं
भाव-वैशिष्ट्य -
कवि विवाह के जोड़े में सजी पुत्री सरोज में उसकी माता की छवि देखते हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनकी पत्नी का निराकार सौंदर्य ही रति का सुंदर रूप धारण कर उनकी पुत्री के रूप में साकार हो रहा है।
कवि कह रहे हैं कि उन्हें ऐसा आभास हो रहा है जैसे आकाश अपना रूप बदल कर पृथ्वी बन गया है अर्थात् उनकी दिवंगत पत्नी आकार धारण कर पृथ्वी पर आ गई है।
शिल्प-वैशिष्ट्य -
- संस्कृतनिष्ठ, सामासिक एवं लाक्षणिक भाषा।
- संपूर्ण काव्यांश में अद्भुत लयात्मकता।
- 'मामा-स्वर्गीया-प्रिया संग, भरता प्राणों में राग-रंग' पंक्ति अन्त्यानुप्रास अलंकार।
- 'राग-रंग', 'रति-रूप' में छेकानुप्रास अलंकार।
- 'आकाश बदल कर बना मही' पंक्ति में लाक्षणिक सौंदर्य।
- 'नव जीवन के स्वर पर उतरा।' पंति में वृत्यानुप्रास ।
सरोज स्मृति कविता से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य
✅ 'सरोज स्मृति' कविता का रचनाकाल 1935 ई. है। 1938 ई. में अनामिका के द्वितीय संस्करण में संकलित।
✅ 'सरोज स्मृति' हिन्दी का श्रेष्ठतम शोक गीत है। कवि निराला के द्वारा अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखी गई इस कविता में करुणा भाव की प्रधानता है। यह निराला जी का अपने ढंग की एक अकेली कविता है जिसमें उनका अपना जीवन भी आ गया है।
✅ यह आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी है।
✅ यह कविता निराला के जीवन संघर्ष की सफलता और असफलता को बताती है।
✅ निराला ने अपने मन की ग्लानि व्यक्त की है।
✅ इस कविता में निराला की अपनी साहित्यिक सिद्धि में प्रबल विश्वास दिखता है ।
✅ रामविलास शर्मा ने सरोज स्मृति की तुलना शेक्सपियर के किंग लियर से की है।
✅ सरोज स्मृति को हिंदी में एलेजी कहा जाता है।
✅ सरोज स्मृति के निराला ही राम की शक्तिपूजा के राम हैं।
✅ सरोज स्मृति 9 अनुच्छेदों में है।
- पहला - सरोज की बीमारी से 18 वर्ष (अध्याय) की आयु में मृत्यु।
- दूसरा - सरोज की माँ मनोहरा देवी की मृत्यु और नानी द्वारा पालन पोषण।
- तीसरा व चौथा - सरोज का बड़ा होना और निराला के साहित्यिक संघर्ष की कहानी होना।
- पांचवा और छठा छठा - निराला पर दूसरे विवाह का दबाव।
- सातवा - सरोज का किशोरावस्था में प्रवेश उसके सौंदर्य और दृष्टि का चित्रण व कंठ स्वर।
- आठवा - सरोज के विवाह की चर्चा (13 वर्ष)।
- नवाँ - सरोज ने नानी की गोद में आँखे मूंदी थी।
✅ सरोज-स्मृति में मुख्यतः तीन स्वर मुखरित हुए हैं।
- पहला कवि का विद्रोही और क्रांतिदशा,
- दूसरा पुत्री सरोज के प्रति पिता का वात्सल्य भाव और
- तीसरा जीवन में संघर्ष, अपमान तथा वंचना के फलस्वरूप व्यथा एवं निराशा की सघनता।
✅ मुख्य पात्र - कवि, सरोज, सास, कान्यकुब्ज
✅ यह कविता संबोधन पर भी आधारित है: सरोज को गीते, कविते, धन्ये शुचिते, परी, पुतली, गुड़िया।
सरोज-स्मृति कविता के महत्वपूर्ण प्रश्न–उत्तर
प्रश्न 1. ‘सरोज-स्मृति’ नामक संस्मरणात्मक गीत किस कवि ने लिखा है?
- जयशंकर प्रसाद
- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
- सुमित्रानंदन पंत
- रामनरेश त्रिपाठी
उत्तर - 2. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
प्रश्न 2. कवि अपनी किस संतान के विवाह का दृश्य याद करता है?
- अपना
- शकुंतला
- सरोज
- पुत्र
उत्तर - 3. सरोज
प्रश्न 3. ‘‘दुख ही जीवन की कथा रही…’’ इन पंक्तियों में निराला का कौन-सा रूप उभरता है?
- भाग्यहीन
- अर्थहीन
- जिजीविषाहीन
- संघर्षशील जीवन
उत्तर - 4. संघर्षशील जीवन
प्रश्न 4. निराला अपनी श्रद्धा से किसका तर्पण स्वयं करना चाहते थे?
- पत्नी का
- माता-पिता का
- सरोज का
- नाना का
उत्तर - 3. सरोज का
प्रश्न 5. कवि के जीवन के प्रथम बसंत का गान किसे माना गया है?
- सरोज
- मनोहरा
- स्मृति
- अतीत गौरव
उत्तर - 1. सरोज
प्रश्न 6. ‘‘देखा मैंने वह मूर्ति-धीति…’’ में ‘मूर्ति-धीति’ शब्द किसके लिए है?
- कवि जैसी दिखने वाली के लिए
- प्रतिमा के भाव के लिए
- कल्पना अनुरूप रूप के लिए
- सरोज के लिए
उत्तर - 4. सरोज के लिए
प्रश्न 7. सरोज का बाल्यकाल कहाँ व्यतीत हुआ?
- दादा-दादी के पास
- ननिहाल में
- पिता के पास
- बुआ के पास
उत्तर - 2. ननिहाल में
प्रश्न 8. कवि अपनी पुत्री सरोज का नाम "शकुंतला" क्यों रखना चाहता है?
- वह मामा के घर पली
- ननिहाल में उसका लालन-पालन हुआ
- अंत भी वहीं हुआ
- उपर्युक्त सभी
उत्तर - 4. उपर्युक्त सभी
प्रश्न 9. ‘मूँदे दृग वर महामरण’ का आशय क्या है?
- श्रेष्ठ मृत्यु
- खराब मृत्यु
- अंत का अंतिम सत्य Ω
- जीवन का संध्या समय
उत्तर - 3. अंत का अंतिम सत्य
प्रश्न 10. ‘सरोज-स्मृति’ किस प्रकार की कविता है?
- काव्य-गीत
- शोक-गीत
- करुण-गीत
- विरह-गीत
उत्तर - 2. शोक-गीत
प्रश्न 11. कवि सरोज की स्मृति को किन रूपों में अपने मन में सहेजता है?
- उसकी धीमी मुस्कान
- मन में जीवित रहती उसकी छवि
- हृदय में उठता एक दबी साँस
- उपर्युक्त सभी
उत्तर - 4. उपर्युक्त सभी
प्रश्न 12. निराला स्वयं को भाग्यहीन क्यों कहता है?
- कुछ भी न होने के कारण
- सरोज की मृत्यु से
- जीवन संघर्ष के कारण
- अत्यंत संघर्षमय जीवन होने से
उत्तर - 4. अत्यंत संघर्षमय जीवन होने से
प्रश्न 13. ‘‘वह लता वहाँ की जहाँ कली…’’ यह क्यों कहा गया है?
- माँ के पास रहने के कारण
- ननिहाल में पली-बढ़ी होने के कारण
- दादा के पास रहने के कारण
- गुरु के पास रहने के कारण
उत्तर - 2. ननिहाल में पली-बढ़ी होने के कारण

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