लेखक परिचय : भारतेन्दु हरिशचन्द्र
पूरा नाम :- भारतेन्दु हरिशचन्द्र
जन्म :- 9 सितम्बर, 1850 (वाराणसी, उत्तर प्रदेश)
मृत्यु :- 6 जनवरी, 1885
पेशा :- कवि, लेखक,रंगकर्मी, देशहितचिन्तक पत्रकार
काल :- आधुनिक काल
विधा :- नाटक, काव्यकृतियाँ, अनुवाद, निबन्ध संग्रह
महत्वपूर्ण काम :- अन्धेर नगरी, भारत दुर्दशा
भारतेन्दु हरिशचन्द्र की प्रमुख रचनाएँ
भारतेंदु जी की प्रमुख रचनाएँ का विवरण इस प्रकार है:
- काव्य संग्रह :- प्रेम सागर, प्रेम तरंग, भारत-वीणा, भक्त-सर्वस्व, सतसई-श्रृंगार, प्रेम-प्रलाप, प्रेम फुलवारी, वैजयंती आदि।
- कथा साहित्य :- मदालसोपाख्यान, हमीर हठ, सोनिया चरित्र, कुछ आप स्टूडियो, कुछ जग लाभ आदि।
- यात्रा वृत्तान्त :- लखनऊ की यात्रा. सरयूपार की यात्रा।
- निबन्ध-संग्रह :- सुलोचना, परिहास वान्चक, दिल्ली दरबार दर्पण, लीलावती, मदालसा।
- जीवनियाँ :- सूरदास की जीवनी, जयदेव, महात्मा महोम्मद।
- नाटक :-
- मूलतत्व: सत्य हरिश्चंद्र, नील देवी, श्री चंद्रावली, भारत दुराचारी, अंधेर नगरी, वैदिकी मिति, पान वैक्वाम्, सती प्रताप, प्रेम योगिनी।
- अनुदित: विद्या सुन्दर, धुंध, नाव, मुद्राराक्षस, भारत जनः, पाखण्ड विद्मवन, कर्पूर मंजरी, धनन्जय विजय।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र - दिल्ली दरबार दर्पण
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा 1877 ई. में 'दिल्ली दरबार दर्पण' लिखा गया। यह निबन्ध भारतेन्दु जी के भ्रम का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। दरअसल भारतेन्दु जी ने जहाँ-जहाँ भी जातीय प्रगति होने की हल्की सी भी सम्भावना देखी, उसकी प्रशंसा में अपनी लेखनी चलाई। महारानी विक्टोरिया का घोषणा पत्र भी एक ऐसी ही मरीचिका के समान था, जिसे भारतेन्दु जी सच मान बैठे और इसी में भूलकर राजराजेश्वरी का गुणगान किया। दिल्ली दरबार दर्पण में एक जगह ये लिखते हैं- “आजकल ऐसी राजनीति के कारण जिसमें जब जाति और धर्म के लोगों की समान रक्षा होती है, श्रीमती की हर एक प्रजा अपना समय निर्विघ्न सुख से काट सकती है। सरकार के समभाव के कारण हर आदमी बिना किसी रोक-टोक के अपने धर्म के नियमों और रीतियों को बदल सकता है। राजराजेश्वरी का अधिकार लेने से श्रीमती का अभिप्राय किसी को मिटाने या दबाने का नहीं है वरन् रक्षा करने और अच्छी राह बतलाने का है। सारे देश की शीघ्र उन्नति और उसके सब प्रान्तों की दिन पर दिन वृद्धि होने से अंग्रेज़ीराज के फल सब जगह प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं।"
भारतेन्दु जी के लिए अंग्रेजी राज इसलिए श्रेष्ठ था कि उसमें सभी धर्मों, जातियों को बिना किसी भेदभाव के समान रूप में विकास करने का अधिकार प्राप्त था और देश तथा जाति की प्रगति के दसों द्वार मानों खुल गए थे।
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