Steps of Research in Hindi: शोध प्रक्रिया, चरण, प्रकार और सम्पूर्ण व्याख्या

इस लेख में शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया के आठ चरणों—समस्या का चयन, परिकल्पना निर्माण, शोध अभिकल्प विकास, प्रतिदर्श चयन, शोध प्रस्ताव लेखन, डाटा एकत्रीकरण, डाटा विश्लेषण एवं शोध रिपोर्ट लेखन—का विस्तृत, सरल और परीक्षोपयोगी विवरण दिया गया है। यह शोध, शिक्षा और सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी सामग्री है।

    शोध के चरण


    शोध के चरण या सोपान 

    Steps of Research

    अनुसन्धान एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमे प्रत्येक प्रकार के अनुसन्धान को कुछ विशिष्ट पदों के अन्तर्गत क्रमानुसार पूर्ण किया जाता है।

    यह एक वैज्ञानिक विधि है. जिसमें अनुसन्धानकर्ता किसी समस्या के समाधान के लिए तार्किक रूप से प्रयोग करता है। यद्यपि अनुसन्धान प्रक्रिया के चरणों के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों में मतभेद हैं। तथापि इसे निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है।

    सामान्यतः अनुसन्धान या शोध के आठ चरण निर्धारित किए गए हैं-


    समस्या का चयन (Identify the Problem)

    परिकल्पनाओं का निर्माण (Making of Hypothesis)

    शोध प्रारूप या शोध अभिकल्प का विकास

    (Development of Research Design)

    न्यायदर्श या प्रतिदर्श चयन (Selecting Samples)

    अनुसन्धान प्रस्ताव लेखन (Writing a Research Proposal)

    प्रदत्तों का एकत्रीकरण (Collection of Data)

    प्रदत्तों का संस्करण और विश्लेषण (Processing and Analysis Data)

    अनुसन्धान रिपोर्ट लेखन (Writing a Research Report)


    शोध के चरण या सोपान


    1. समस्या का चयन 

    Identify the Problem

    अनुसन्धान के पहले चरण में सर्वप्रथम समस्या घटना, व्यवहार या प्रश्न का चयन किया जाता है और जितनी जागरूकता, सतर्कता, जिज्ञासा के साथ समस्या का चयन किया जाता है, शोध समस्या का चयन उतने ही अच्छे ढंग से होता है।

    • अनुसन्धान की समस्या का चयन करते समय निम्नलिखित बातें ध्यान रखनी चाहिए
    • अनुसन्धानकर्ता की रुचि शोध परियोजना में अवश्य होनी चाहिए।
    • अवधारणाओं के सूचक, मापन विधि तथा संकेतक आदि पूर्णरूप से स्पष्ट होने चाहिए।
    • शोधकर्ता को विषय की प्रासंगिकता (Relevancy) भी ध्यान रखनी चाहिए। यह एक महत्त्वपूर्ण एवं ध्यान रखने योग्य बिन्दु है।
    • शोध अध्ययन को समय पर उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप ही किया जाना चाहिए। अनुसन्धानकर्ता को शोध कार्य के विषय में सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।
    • शोध अध्ययन के विषय को अन्तिम रूप देने के लिए अनुसन्धानकर्ता को उससे सम्बन्धित डाटा की उपलब्धता सुनिश्चित कर लेनी चाहिए।
    • अनुसन्धान समस्या के निरूपण से पूर्व उनके नैतिक मुद्दों (Ethical Issues) और उनके समाधान को पहले ही सोच लेना चाहिए।

    👉 समस्या के प्रकार

    • सैद्धान्तिक समस्या
    • सर्वेक्षण सम्बन्धी समस्याएँ
    • प्रायोगिक समस्याएँ
    • व्यावहारिक समस्या
    • सह-सम्बन्धात्मक समस्याएँ

    👉 समस्यां की विशेषताएँ

    • समस्याएँ स्पष्ट एवं मूर्त हों।
    • समस्याएँ ऐसी हों जिसका समाधान किया जा सके।
    • समस्या को नवीन होना चाहिए
    • अनुसन्धानकर्ता के लिए रुचिकर हो।
    • परिकल्पनाओं पर आधारित हो।
    • समस्या व्यावहारिक रूप से उपयोगी हो।
    • समस्या समाधान में अत्यधिक धन, समय एवं परिश्रम का अपव्यय न हो।


    2. परिकल्पनाओं का निर्माण 

    Making of Hypothesis

    अनुसन्धान के दूसरे चरण में सभी समस्याओं की पहचान के बाद उससे सम्बन्धित परिकल्पनाओं का निर्माण किया जाता है। यह शोध के विकास का उद्देश्यपूर्ण आधार है।

    परिकल्पना दो शब्दों 'परि' अर्थात् चारों ओर तथा 'कल्पना' अर्थात् चिन्तन का सम्मिलित रूप है तथा यह अनुसन्धान समस्या से सम्बन्धित समस्त सम्भावित समाधानों पर विचार करता है। इस शब्द का अर्थ 'उपकथन' से है, जो किसी समस्या के समाधान की अवधारणा प्रस्तुत करता है।

    गुडे एवं हाट्ट के अनुसार, "परिकल्पना भविष्योन्मुखी (Future Oriented) होती है तथा यह एक तार्किक कथन है जिसकी सत्यता का परीक्षण किया जा सकता है।"

    करलिंगर के अनुसार, "परिकल्पना दो या दो से अधिक चरों के मध्य सम्बन्धों का कथन है।

    परिकल्पना वस्तुतः एक तार्किक कथन, वाक्य, पूर्ण विचार या पूर्वधारणा है जिसे शोधकर्ता विषयवस्तु की प्रकृति के आधार पर पूर्व निर्मित कर लेता है एवं जिसकी सत्यता की जाँच वह शोध के समय करता है।

    👉 परिकल्पना की विशेषताएँ

    गुडे एवं हाट्ट ने अपनी पुस्तक 'मेथड्स इन सोशल रिसर्च' में परिकल्पना की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया है

    • स्पष्टता
    • अनुभव योग्य सिद्धान्त
    • विशिष्टता
    • उपलब्ध प्रविधियों से सम्बन्ध
    • सिद्धान्तों से सम्बन्ध स्थापित करना
    • वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठता

    इसके अतिरिक्त अनुसन्धान में परिकल्पना की निम्न विशेषताएँ शामिल हैं

    • इसे तथ्यात्मक होने के साथ-साथ प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होना चाहिए।
    • परिकल्पना को निगमनात्मक चिन्तन (Deductive Contemplation) पर आधारित होना चाहिए।
    • परिकल्पना में शाब्दिक स्पष्टता तथा सरलता होनी चाहिए।
    • यह सिद्धान्तों तथ्यो, नियमों एवं अवधारणाओं से मुक्त होनी चाहिए।
    • परिकल्पना को मितव्ययी होना चाहिए तथा पुष्टि हेतु प्रविधियों की उपलब्धता भी होनी चाहिए।

    👉 परिकल्पना की प्रकृति

    • परिकल्पना में मौजूद सभी सन्दर्भ बिन्दु क्रियात्मक, प्रत्यात्मक तथा घोषणात्मक प्रकृति के होने चाहिए।
    • परीक्षा के योग्य होनी चाहिए।
    • परिकल्पना की प्रकृति ऐसी हो कि वह वैज्ञानिक अनुसन्धान को बढ़ावा देने में सहायक हो।
    • सभी शोध प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर देने में सक्षम हो।

    👉 परिकल्पना का महत्त्व

    • परिकल्पना तथ्यों की सार्थकता का निर्धारण करती है।
    • परिकल्पना समस्या एवं समाधान के बीच कड़ी का काम कर समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है।
    • परिकल्पना समस्या के क्षेत्र का निर्धारण करती है।
    • परिकल्पना प्रदत्तों के संकलन का आधार प्रस्तुत कर नवीन अनुसन्धानों का मार्ग प्रशस्त करती है।
    • यह अनुसन्धान की सम्पूर्ण कार्य रेखा को बताती है तथा समुचित एवं प्रभावी उपकरणों के चयन में सहायक होती है।

    👉 परिकल्पना के प्रकार

    परिकल्पनाओं को मुख्यतः तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है

    1. शोध परिकल्पना Research Hypothesis यह परिकल्पना 'करके सीखने' के सिद्धान्त पर आधारित है, इसलिए इसे 'कार्यात्मक परिकल्पना' के रूप में भी जाना जाता है। इसके भी दो प्रकार है

    • दिशात्मक परिकल्पना (Directional Hypothesis)
    • अदिशात्मक परिकल्पना (Non-Directional Hypothesis)

    II. शून्य परिकल्पना Null Hypothesis

    इस परिकल्पना को शून्य या अप्रमाणित या अशुद्ध परिकल्पना भी कहते हैं। यह नकारात्मक परिकल्पना के रूप में भी जानी जाती है, क्योकि यह मानकर चलता है कि दो चरों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् दो समूहों में किसी विशेष चर के आधार पर कोई अन्तर नहीं है।

    इस परिकल्पना का उपयोग केवल सांख्यिकी की सार्थकता के परीक्षण के लिए किया जाता है।

    III. सांख्यिकीय परिकल्पना Statistical Hypothesis

    जब शोध परिकल्पना या शून्य परिकल्पना को सांख्यिकीय पदों में प्रदर्शित किया जाता है, तो उस विधि को सांख्यिकीय परिकल्पना कहा जाता है। इसमें पदों को व्यक्त करने के लिए विशेष संकेतों का प्रयोग किया जाता है; जैसे-H.H.XX, आदि।


    3. शोध प्रारूप या शोध अभिकल्प का विकास 

    Development of Research Design

    शोध अभिकल्प एक प्रश्न का उत्तर जानने, परिस्थिति का वर्णन करने या परिकल्पना के निरीक्षण से सम्बन्धित होता है, जो योजनानुसार कार्य करके सम्पूर्ण अनुसन्धान पर नियन्त्रण करता है।

    शोध अभिकल्प मुख्यतः किसी भी शोध कार्य से पूर्व निर्मित एक योजनाबद्ध रूपरेखा है।

    👉 शोध अभिकल्प के उद्देश्य

    • अनुसन्धान में उठाए गए प्रश्नों व समस्याओं का उत्तर देना तुथा समाधान ढूँढना।
    • अनुसन्धान में उपस्थित त्रुटियों को दूर कर उसके निष्कर्ष को वैध बनाना।
    • अनुसन्धान को क्रमबद्ध करना।
    • शोध अध्ययन की स्पष्ट दिशा सुनिश्चित करना।

    👉 शोध अभिकल्प के प्रकार

    • अन्वेषणात्मक शोध प्रारूप किसी विशेष सामाजिक घटना का उत्तरदायी कारण खोजने में प्रयुक्त प्रारूप।
    • वर्णनात्मक शोध प्रारूप इसका उद्देश्य शोध अध्ययन के विषय के बारे में तथ्य संकलित कर उनका एक विवरण प्रस्तुत करना।
    • निदानात्मक शोध प्रारूप किसी शोधकर्ता द्वारा शोध समस्या के वास्तविक कारणों को जानकर उसका निदान करना।
    • प्रयोगात्मक शोध प्रारूप सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहारों का अध्ययन करने के लिए अपनाया गया शोध प्रारूप।

    4. न्यायदर्श या प्रतिचयन 

    Selecting Samples

    मिड्रेड पार्टेन के अनुसार, "समग्र में से निश्चित संख्या में व्यक्ति, घटना अथवा निरीक्षणों को पृथक् करने की प्रक्रिया एवं पद्धति के अध्ययन के लिए सम्पूर्ण समूह में से एक अंश का चयन करना ही न्यायदर्श/प्रतिदर्श कहलाता है।" वस्तुतः जनसंख्या की समस्त इकाइयों में से अध्ययन के लिए कुछ निश्चित इकाइयों की एक निश्चित विधि के चयन को न्यायदर्श/प्रतिदर्श/प्रतिचयन कहा जाता है।

    👉 न्यायदर्श के गुण

    • इस विधि में परिणाम की शुद्धता स्थापित हो जाती है।
    • न्यायदर्श समय की बचत करता है।
    • यह कम इकाइयों के शोध को बढ़ावा देकर धन की बचत करता है।
    • न्यायदर्श शोध में गहन अध्ययन को बढ़ावा देता है।
    • सम्पूर्ण जनसंख्या का अध्ययन सम्भव बनाता है।
    • न्यायदर्श कम इकाइयों का अध्ययन करता है, जिससे श्रम की बचत होती है।

    👉 न्यायदर्श या प्रतिदर्श के प्रकार

    प्रतिदर्श को मूलतः दो भागों में बाँटा गया है

    1. सम्भाविता प्रतिदर्श Probability Sampling

    जनसंख्या के सदस्यों के प्रतिदर्श में सम्मिलित किए जाने की सम्भावना वाला प्रतिदर्श सम्भाविता प्रतिदर्श कहलाता है। यह तीन प्रकार का होता है

    (i) साधारण यादृच्छिक प्रतिदर्श (Simple Random Sampling) इसमें जनसंख्या के प्रत्येक सदस्य के चयन की सम्भावना बराबर होती है तथा कोई भी सदस्य एक-दूसरे के लिए बाधक नहीं बनता है। इस विधि में इकाइयों का चयन सांयोगिक था जिसे यान्त्रिक क्रिया द्वारा किया जाता है। साधारण यादृच्छिक प्रतिदर्श की मुख्यतः दो विधियाँ लॉटरी विधि (Lottery Method) तथा साधारण यादृच्छिक संख्या सारणी विधि (Simple Random Number Table Method) है।

    (ii) स्तरीकृत यादृच्छिक प्रतिदर्श (Stratified Random Sampling) जनसंख्या को क्रमबद्ध रूप से विभाजित कर प्रत्येक स्तर पर इकाइयों का ढाँचा तैयार कर विभिन्न स्तरों के ढांचे से यादृच्छिक चयन करने की विधि है। जब कोई अनुसन्धान समस्या विषम जनसंख्या से सम्बन्धित होती है, तो उसके लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त प्रतिदर्श पद्धति होती है।

    (iii) समूह (गुच्छ) प्रतिदर्श (Cluster Sampling) जब जनसंख्या अथवा इकाइयाँ आवश्यकता से अधिक हो, तो समूह के आधार पर यादृच्छिक विधि द्वारा आवश्यक चयन किया जाता है। प्रतिदर्श की यह विधि तब अधिक लाभदायक है. जब इकाई तक पहुँचने का व्यय अधिक एवं इकाई के अध्ययन का व्यय कम होता है।

    2. असम्भाविता प्रतिदर्श Non-Probability Sampling

    इस प्रतिदर्श विधि में प्रतिदर्श परियोजना में शामिल जनसंख्या के सदस्यों के शामिल होने की सम्भावना ज्ञात नहीं होती है, क्योंकि इसमें शोधकर्ता अपनी आवश्यकता के अनुसार सदस्यों का चयन करता है। इसका सबसे प्रमुख लाभ यह है कि इसे कम समय, धन एवं श्रम के साथ सफलतापूर्वक तैयार किया जा सकता है। इसका सबसे प्रमुख दोष (सीमा) यह है कि इस प्रकार प्राप्त प्रतिदर्श अपनी जनसंख्या का सही-सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते।

    असम्भाविता प्रतिदर्श के पाँच प्रकार हैं

    (1) कोटा प्रतिदर्श (Quota Sampling) इस विधि के अन्तर्गत अनुसन्धानकर्ता व्यक्तियों को उनकी विशेषताओं के आधार पर अनेक वर्गों में बाँट लेता है। इसके पश्चात् वह प्रत्येक स्तर पर अपनी आवश्यकतानुसार व्यक्तियों का चयन मनमाने ढंग से कर लेता है।

    (ii) उद्देश्यपूर्ण प्रतिदर्श (Purposive Sampling) पूर्वज्ञान के आधार पर जनसंख्या से प्रतिदर्श का चयन किया जाता है।

    (iii) आकस्मिक प्रतिदर्श (Accidental/Incidental Sampling) अनुसन्धानकर्ता द्वारा अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी इकाई का चयन किया जाता है।

    (iv) क्रमबद्ध प्रतिदर्श (Systematic Sampling) इस प्रतिदर्श में पूर्व निर्धारित सूची से चौथे व्यक्ति का चयन होता है। सीमित जनसंख्या के लिए यह प्रतिदर्श तकनीक अपनाई जाती है।

    (v) हिमकन्दुक प्रतिदर्श (Snowball Sampling) अनौपचारिक सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करने हेतु इसका चयन किया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रारम्भिक जानकारी कुछ व्यक्तियों द्वारा प्राप्त की जाती है। इसके बाद ये व्यक्ति कुछ और व्यक्तियों का नाम जानकारी के लिए बताते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक वांछित प्रतिदर्श न प्राप्त हो जाए।


    5. अनुसन्धान प्रस्ताव लेखन 

    Writing a Research Proposal

    किसी भी अनुसन्धान परियोजना को मानने या स्वीकार करने से पहले उसका प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाए, यह अवधारणा कई संस्थान अनिवार्य कर देते हैं। इसके द्वारा शोध परियोजना का मूल्यांकन करने का आधार भी प्राप्त हो जाता है।

    यह तीन से सात पृष्ठों का एक दस्तावेज (Document) होता है जो शोधकर्ता द्वारा लिखा जाता है। यह दस्तावेज सम्पूर्ण अनुसन्धान प्रक्रिया की रूपरेखा एवं विस्तृत विवरण होता है। अनुसन्धान प्रस्ताव विभिन्न कारणों से लिखे जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, अनुसन्धान की प्रमाणीकरण की आवश्यकता के लिए लिखा गया प्रस्ताव आदि।

    👉 अनुसन्धान प्रस्ताव के मुख्य बिन्दु

    • इस अनुसन्धान परियोजना से क्या लाभ होगा और कौन इसके लाभार्थी होगे।
    • सम्बन्धित विषय की सर्वेक्षण विधि।
    • किस/किन संगठन या संगठनों से सहायता की आवश्यकता होगी।
    • अवधि क्या रहेगी, क्या-क्या सुविधाएँ प्राप्त होंगी व धन कितना अर्जित होगा।
    • प्रस्तावकों का परिचय-पत्र व उनकी साख के विषय में भी लिखें।


    6. प्रदत्तों का एकत्रीकरण 

    Collecting Data

    शोधकर्ता जाँच की प्रकृति, उसका क्षेत्र, उद्देश्य, वित्तीय लागत, समय की उपलब्धता इत्यादि को देखकर प्रदत्त एकत्रित करने की विधि का चयन करता है। प्राथमिक प्रदत्त सर्वेक्षण या प्रयोग के द्वारा एकत्र किए जाते हैं। यदि शोधकर्ता किसी प्रयोग को आयोजित करता है, तो वह उसके लिए परिमाणात्मक मापन या प्रदत्त का चयन करता है एवं उन प्रदत्तों का परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए विश्लेषण किया जाता है।

    👉 प्रदत्तों को एकत्रित करने की विधियाँ

    • अवलोकन द्वारा (By Observation) इसमें साक्षात्कार (Interview) लिए बिना जाँचकर्ता के स्वयं के अवलोकन के माध्यम से जानकारी एकत्र की जाती है और प्राप्त की गई जानकारी वर्तमान घटनाओं से ही सम्बन्धित होती है। यह विधि काफी महंगी होती है और इस विधि द्वारा सीमित जानकारी ही एकत्रित की जाती है। यह विधि बड़े न्यायदर्श के लिए उपयुक्त नहीं है।
    • टेलीफोनिक साक्षात्कार (Telephonic Interview) इसका प्रयोग तब किया जाता है जब सर्वेक्षण को बहुत ही कम समय में पूर्ण किया जाना हो।
    • व्यक्तिगत साक्षात्कार (Personal interview) इस विधि में प्रश्न पूर्व निर्धारित होते हैं। इस विधि से प्राप्त जानकारी (Output) साक्षात्कारकर्ता की योग्यता पर निर्भर करती है।
    • अनुसूचियाँ (Schedules) इस विधि में जानकारी एकत्रित करने के लिए प्रगणक (Enumerators) की नियुक्ति की जाती है एवं अनुसूचियों में प्रासंगिक प्रश्नों को सम्मिलित किया जाता है।
    • मेल प्रश्नावली (Mailed Questionnaires) यह विधि व्यावसायिक सर्वेक्षण में सबसे अधिक उपयोगी है। प्रश्नावली के परीक्षण के लिए पायलट अध्ययन आयोजित किया जाता है और इसके औचित्य की जाँच की जाती है।

    7. प्रदत्तों का प्रसंस्करण एवं विश्लेषण 

    Processing and Analyzing Data

    प्रदत्त एकत्रित करने के बाद अनुसन्धान प्रक्रिया के अगले चरण में प्रदत्तों का विश्लेषण किया जाता है। प्रदत्तों के विश्लेषण के लिए उन्हें कुछ प्रबन्धनीय समूहों या तालिका में संघटित किया जाना चाहिए और ऐसा प्रदत्तों का प्रासंगिक एवं उद्देश्यपूर्ण श्रेणियों में वर्गीकरण करके ही किया जा सकता है

    • सम्पादन (Editing) प्रदत्तों के शोधन या शुद्धि की प्रक्रिया को सम्पादन कहा जाता है। सम्पादन का मुख्य उ‌द्देश्य प्रतिवादी द्वारा प्रदान किए गए गलत अनुमान, गलत वर्गीकरण और त्रुटियों की पहचान करना एवं उनको कम'करना होता है। सम्पादन के माध्यम से कूट-लेखन के लिए प्रदत्तों की गुणवत्ता में सुधार किया जाता है।
    • कूट-लेखन (Coding) यह अनुसन्धान में किसी चर के माप पर निर्भर करता है। शाके लिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रदत्त गुणात्मक है या परिमाणात्मक।

    परिमाणात्मक और स्पष्ट जानकारी को संख्यात्मक मूल्यों में परिवर्तित करके संसाधित किया जाता है। यह उस स्तर पर किया जाता है जब प्रदत्तों की श्रेणियों को प्रतीकों में परिवर्तित करते हैं जिन्हें बाद में सारणीबद्ध किया और गिना जा सकता है।

    वर्णनात्मक या गुणात्मक प्रदत्त में, शोधकर्ता सभी साक्षात्कार की प्रतिलिपि के माध्यम से चलता है जिसमे लोग एक ही घटना को व्यक्त करने के लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं।

    👉 प्रदत्तों का वर्गीकरण

    प्रदत्तों का वर्गीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्रदत्तों को सामान्य विशेषताओं के आधार पर समूहों या वर्गों में क्रमबद्ध किया जाता है। यह निम्नलिखित माध्यम से किया जा सकता है

    विशेषताओं के अनुसार वर्गीकरण

    Classification According to Attributes

    प्रदत्त वर्णनात्मक या संख्यात्मक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वर्गीकरण या तो सरल वर्गीकरण हो सकता है या बहुसंख्यक वर्गीकरण जो निम्न हैं

    • सरल वर्गीकरण (Simple Classification) इस वर्गीकरण में हम केवल एक विशेषता पर विचार करते हैं और सम्पूर्ण समष्टि को दो वर्गों में विभाजित करते हैं- पहला समूह जिसमें एक विशेष गुण होता है एवं दूसरा समूह जिसमें वह गुण नहीं होता है।
    • बहुसंख्यक वर्गीकरण (Manifold Classification) इस वर्गीकरण में हम एक साथ दो या अधिक विशेषताओं पर विचार करते हैं और प्रदत्तों को कई वर्गों में विभाजित करते हैं।

    वर्ग अन्तराल के अनुसार वर्गीकरण

    Classification According to Class Intervals

    वर्गीकरण आय, आयु, भार, कर, उत्पादन आदि से सम्बन्धित प्रदत्तों के साथ किया जाता है। ऐसे परिमाणात्मक प्रदत्तों को चरों के सांख्यिकी के रूप में जाना जाता है और उन्हें वर्ग अन्तराल के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।

    सारणीकरण Tabulation

    यह तकनीकी प्रक्रिया का एक भाग है, जहाँ वर्गीकृत प्रदत्तों को तालिका के रूप में दर्शाया जाता है। यह कच्चे ऑकड़ों का सारांश एवं विश्लेषण करने के लिए व्यवस्थित रूप में प्रदर्शित करने की प्रक्रिया है।

    इस उद्देश्य के लिए यान्त्रिक उपकरणों का भी उपयोग किया जा सकता है और यदि प्रदत्तों की संख्या बहुत अधिक हो, तो सारणीयन के लिए कम्प्यूटर का भी प्रयोग किया जा सकता है। यह प्रदत्तों को कॉलम और पंक्तियों में दर्शाने की एक क्रमबद्ध व्यवस्था है। यह निम्नलिखित कारणों से आवश्यक होता है

    • यह तुलना करने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाता है।
    • इससे मदों का योग करना एवं त्रुटियों का पता लगाना सरल होता है।
    • यह विभिन्न सांख्यिकीय संगणना के लिए आधार प्रदान करता है।

    👉 प्रदत्तों का विश्लेषण

    सारणीकरण के बाद, विभिन्न गणितीय और सांख्यिकीय तकनीकों की सहायता से प्रदत्तों का विश्लेषण किया जाता है; जैसे-प्रतिशत, औसत, सहसम्बन्ध, प्रतिगमन इत्यादि। यह गुणात्मक और परिमाणात्मक प्रदत्तों पर निर्भर करता है, जो निम्न हैं

    गुणात्मक प्रदत्त विश्लेषण Qualitative Data Analysis

    विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण कई बार व्यक्तिगत हो सकता है और इसमें मुख्य रूप से कुछ नियम एवं प्रक्रियाएँ हो सकती है। इसमें शोधकर्ता सामग्री विश्लेषण की प्रक्रिया को अपनाता है। सामग्री विश्लेषण का अर्थ है कि मुख्य विषय की पहचान करने के लिए साक्षात्कार की सामग्री का विश्लेषण करना।

    इस प्रक्रिया में निम्नलिखित चरण शामिल हैं

    • मुख्य विषयों को स्पष्ट करना।
    • मुख्य विषयों के लिए कूट निरूपित करना।
    • मुख्य विषयों के अन्तर्गत प्रतिक्रियाओं को वर्गीकृत करना।
    • रिपोर्ट के मूलपाठ में विषयों और प्रतिक्रियाओं को एकीकृत करना।

    परिमाणात्मक डाटा विश्लेषण

    Quantitative Data Analysis

    यह विधि अच्छी तरह से अभिकल्पित और प्रशासित सर्वेक्षण के लिए शाब्दिक प्रश्नावली का उपयोग करने के लिए सबसे उपयुक्त है। इसमें प्रदत्तों का विश्लेषण मैन्युअली या कम्प्यूटर की सहायता से किया जा सकता है।  

    8. शोध/अनुसन्धान रिपोर्ट लेखन

    Writing a Research Report

    अनुसन्धान का समापन होने के पश्चात् शोध रिपोर्ट बनाई जाती है। शोध रिपोर्ट का प्रारूप निम्नलिखित प्रकार से बनाया जा सकता है

    👉 रिपोर्ट का प्रारूप (Format of Report)


    Format of Report

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