आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य जगत के श्रेष्ठ रचनाकार हैं। द्विवेदी जी एक सशक्त साहित्यकार, ललित निबन्धकार, मानवतावादी उपन्यासकार एवं निष्पक्ष आलोचक है। वे भारतीय संस्कृति के आख्याता, प्रवर्तक, निर्माता एवं संस्कृति सम्पन्न लेखक हैं। वे हिन्दी के ऐसे उपन्यासकार हैं, जिनके उपन्यास इतिहास के तथ्यों पर उतने आधारित नहीं है, जितने ऐतिहासिक वातावरण एवं देशकाल पर आधारित है, इनकी सृष्टि उन्होंने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति से की है।
इस पोस्ट के माध्यम से द्विवेदी जी के संक्षिप्त जीवन परिचय तथा इनके बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के पात्र, उद्देश्य, कथन, समीक्षा एवं महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर की चर्चा करेंगे।
आचार्य हजारी प्रसाद का जीवन परिचय
लेखक का नाम :- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (Hazari Prasad Dwivedi)
बचपन का नाम :- वैजनाथ द्विवेदी
जन्म :- 19 अगस्त, 1907 बलिया, उत्तर प्रदेश
निधन :- 19 मई, 1979
पिता का नाम :- पंडित अनमोल द्विवेदी
प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ :-
- उपन्यास -
- बाणभट्ट की आत्मकथा (1946)
- चारु चंद्रलेख(1963)
- पुनर्नवा(1973)
- अनामदास का पोथा(1976)
- निबंध - कल्पतरु, नाखून क्यों बढ़ते है, देवदारु, अशोक के फूल, बसंत आ गया आदि।
- आलोचना - हिंदी साहित्य की भूमिका, नाथ संप्रदाय, हिंदी साहित्य का आदिकाल, साहित्य सहचर आदि।
- संपादन - पृथ्वीराज रासो, संदेश रासक, नाथ सिद्धो की बानियाँ आदि।
बाणभट्ट की आत्मकथा (उपन्यास) : आचार्य हजारी प्रसाद
'बाणभट्ट की आत्मकथा' द्विवेदी जी का पहला उपन्यास है, जो आत्मकथात्मक शैली में लिखी हुई एक विलक्षण कृति है। इसमें इतिहास और कल्पना का ऐसा सुन्दर समन्वय है कि वे दोनो एक-दूसरे के पूरक बन गए है। सम्पूर्ण उपन्यास बीस उच्छ्वासों में विभक्त है। इस उपन्यास में बाणभट्ट कालीन सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति तथा ऐतिहासिक तत्त्वों पर प्रकाश डाला गया है।
उपन्यास शिल्प :-
- विशेषणों की प्रचुरता
- घटनाओं का बिगड़ा क्रम (अतः यूं कहें कि यह क्या द्विवेदी जी ने डायरी शैली में लिखी है) डायरी शैली
- घटनाओं का क्रम ऊपर नीचे हो जाता है, क्रम से बात नहीं लिखी होतीं।
- चित्रात्मक भाषा
- लंबे-लंबे पदबंध
- क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग (स्थंडिल, पुष्पस्तबक, कुसुमास्तरण)
- संस्कृतानष्ठ भाषा
- आलंकारिक भाषा का प्रयोग
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के प्रमुख पात्र
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के प्रमुख पात्र निम्न है :-
बाणभट्ट :- इस उपन्यास का प्रधान पात्र तथा नायक पद का अधिकारी है। वह संस्कृत का एक प्रसिद्ध कवि है, उसके चरित्र में साहस, विवेकशीलता, भावुकता तथा संघर्षशीलता जैसे गुण विद्यमान हैं।
भट्टिनी :- उपन्यास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नारी पात्र है। वह देवपुत्र तुवरमिलिन्द की अत्यन्त रूपवती कन्या है, जिसका अपहरण कर लिया जाता है। वह बाणभट्ट से प्रेम करती है।
निपुणिका :- एक अस्पृश्य जाति की कन्या थी, जिसका विवाह उस कान्दविक वैश्य के साथ हुआ था, जो भड़भूजे से सेठ बना था। विवाह के एक वर्ष बाद ही वह विधवा हो गई थी। वह एक कुशल अभिनेत्री है, जो बाणभट्ट से प्रेम करती है।
अन्य पात्र :- अतिरिक्त सुचरिता, अघोर भैरव, राजश्री, कुमार कृष्णवर्द्धन आदि उपन्यास के अन्य पात्र हैं, जो कथा के विकास में अपनी भूमिका निभाते हैं।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास की समीक्षा
इस उपन्यास में द्विवेदी जी ने प्राचीन कवि बाणभट्ट के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गूंधकर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन-सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। इसका कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन् कर्मनिरत (कर्म में लीन या कर्म से जुड़ा हुआ) और संघर्षशील जीवन्त योद्धा है। उसके लिए शरीर केवल भार नही, मिट्टी का ढेला नहीं! बल्कि उससे बड़ा है और उसके मन में आर्यावर्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है। स्वयं को निःशेष भाव से दे देने में जीवन की सार्थकता देखने वाली निपुणिका और सब कुछ भूल जाने की साधना मे लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम उच्चता का वरण कर लेता है।
बाणभट्ट की आत्मकथा हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक उपन्यासकार को अतीत में भी प्रवेश करना पड़ता है। अतीत में प्रविष्ट होकर ही इतिहास को वर्तमान सन्दर्भों के साथ जोड़ पाता है। इसी जुड़ाव के माध्यम से ऐतिहासिक उपन्यासकार अतीत को चित्रित करता है।
उपन्यास में सातवी-आठवी शताब्दी के भारत में जो दूषित प्रवृत्तियाँ पनप रही थी, उनका लेखक ने यथार्थ चित्रण किया है। लोग कर्मफल और पुनर्जन्म में आस्था न रखकर भाग्यवाद पर विश्वास रखने लगे थे, धर्म का स्वरूप विकृत हो गया था। उसमे भ्रष्टाचार एवं पाखण्ड बढ़ रहा था। धर्म की आड़ में अनैतिक कार्य हो रहे थे। नारी के प्रति लोगों का दृष्टिकोण विशुद्ध भोगवादी था, लुटेरों द्वारा उनका अपहरण कर लिया जाता था और उन्हे राजाओं के अन्तःपुर में बेच दिया जाता था। नारी के प्रति सम्मान का भाव समाप्त हो चुका था।
द्विवेदी जी ने इस उपन्यास में सर्वत्र नैतिकता पर बल दिया है। वे कहते हैं कि व्यक्ति को उचित-अनुचित का निर्णय अपनी विवेक बुद्धि से करना चाहिए। विवेक को वे लोक, शास्त्र तथा गुरु से भी अधिक प्रामाणिक मानते हैं। साथ ही बाणभट्ट के माध्यम से स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति को विवेक, साहस एवं करुणा जैसे गुण अपने भीतर विकसित करने चाहिए। हर्षकालीन भारत का सांस्कृतिक रूप 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में प्रमुखता से उभारा गया है। उस समय कला के सभी रूप अपने उत्कर्ष पर थे। समाज में कवियों और कलाकारों का सम्मान था। नाट्य, काव्य, संगीत, चित्र एवं मूर्तिकला को लोग मनोविनोद तथा उपयोगितावादी दोनो दृष्टिकोणों से देखते थे। अभिनय के लिए प्रेक्षागृह बने हुए थे। राजदरबारों में संगीत, नृत्य तथा काव्य का बोलबाला था। अतः उस समय कलाकारों और कवियों को भी विशेष सम्मान प्राप्त था।
'बाण' के चरित्र के विविध पक्षों को उजागर करने वाली घटनाओं को उपन्यास में स्थान दिया गया है। उसकी उदात्त प्रवृत्तियाँ पाठकों को प्रभावित करती हैं। नारी के प्रति उसका दृष्टिकोण विशेष रूप से प्रशंसनीय है। अतः बाणभट्ट के चरित्र को उदात्त मूल्यों से सम्बद्ध कर द्विवेदी जी ने उसके परम्परागत लांछित चरित्र को नया आयाम देकर प्रस्तुत किया है।
भट्टिनी एक प्रभावशाली चरित्र है, जिसको संकल्पना द्विवेदी जी ने इतिहास और कल्पना के समन्वय से इस भव्य रूप में की है कि वह एक अमर चरित्र बन गई है। द्विवेदी जी ने बाणभट्ट के चरित्र पर लगे हुए लांछन को दूर करने तथा नारी सम्मान की रक्षा करने के उद्देश्य से इस उपन्यास की रचना की। 'नारी सम्मान की रक्षा' का भाव बाणभट्ट को आत्मकथा का मूल केन्द्र है।
उपन्यास के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि नारी के प्रति सम्मान का भाव रखो, नारी शक्ति की गरिमा को समझो, नारी को वासना पूर्ति का साधन मात्र न मानकर उसके प्रति पवित्र एवं उदात्त भाव अपने मन में रखो। साथ ही यह भी कहा है कि जन साधारण को सुधारने का कार्य केवल राजा घर ही नहीं छोड़ देना चाहिए, बल्कि राष्ट्र को सर्वोपरि समझकर स्वयं इन सुधारो को पूर्ण करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्रीय संकट आने पर परस्पर एकजुट होकर राष्ट्र सेवा में त्याग एवं बलिदान के लिए तत्पर रहना चाहिए।
बाणभट्ट की आत्मकथा का सम्बन्ध संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट से है। अतः उसमें संस्कृतनिष्ठ, काव्यात्मक एवं अलंकृत भाषा का होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने तत्कालीन परिवेश को उभारने के लिए भी भाषा को विशिष्ट रूप प्रदान किया है। दार्शनिक विवेचन एवं प्रकृति निरूपण में भी भाषा प्रायः संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से युक्त है। उपन्यास में अनेक स्थलों पर विवरणात्मक, वर्णनात्मक तथा नाटकीय शैली का प्रयोग किया गया है। लम्बी वाक्य रचना, लम्बे पदबन्ध, अलंकृत भाषा, संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट शब्दावली 'कवि बाणभट्ट' की शैलीगत विशेषताएँ है और यही विशेषताएँ इस उपन्यास में भी हैं, जिससे यह वास्तविक अर्थों में बाणभट्ट की आत्मकथा प्रतीत होती है।
उपन्यास का निष्कर्ष -
हम कह सकते हैं कि बाणभट्ट की आत्मकथा हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीवन्त दस्तावेज है। बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के महत्त्वपूर्ण कथन
- इतनी पवित्र रूप राशि किस प्रकार इस कलुष धरित्री में संभव हुई। - बाणभट्ट
- वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज़ है कि प्रेम के देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे। - बाणभट्ट
- साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं। मैं नहीं भूलता। मैं स्त्री-शरीर को देव-मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ। - बाणभट्ट
- मैं अपनी बुद्धि से अनुचित-उचित की विवेचना करता हूँ। मैं मोह और लोभवश किए गए समस्त कार्यों को अनुचित मानता हूँ। - बाणभट्ट
- में बड़भागी हूँ जो इस महिमाशालिनी राजबाला की सेवा अवसर पा सका। - बाणभट्ट
- क्या संसार की सबसे बहुमूल्य वस्तु इसी प्रकार अपमानित होती रहेगी। - बाणभेट्ट
- तुम सच्चे कवि हो। मेरी बात 'गाँठ बाँध लो तुम इस आर्यावर्त्त के द्वितीय 'कालिदास हो। - भट्टिनी
- निपुणिका बहुत अधिक सुंदर नहीं थी। उसका रंग अवश्य शेफालिका के कुसुमानल के रंग से मिलता था परंतु उसकी सबसे बड़ी चारूता सम्पत्ति उसको आँखें और अंगुलियाँ ही थीं। अंगुलियों को मैं बहुत महत्त्वपूर्ण सौंदयर्योपासना समझता हूँ। - बाणभट
- भट्टिनी के चारों ओर एक अनुभव राशि लहरा रही थी। मैं थोड़ी देर तक उम्र शाभा को देखता रहा। मन ही मन मैंने सोचा कि कैसा आश्चर्य है, विधाता का कैसा रूप विधान हैं। - बाणभट्ट
- न जाने क्यों मन्ये ला गया था कि नीचे से ऊपर तक सारी प्रकृति में एक अन्त अवसाद की जड़िमा छाई हुई हैं। - बाणभट्ट
- देवि तुममें निश्चय ही वह शक्ति है जिससे म्लेच्छ जाति का हृदय संवेदनशी बनेगा, उनमे उच्चतर साधना का संचार होगा, वे सम्मानित भूमि का सम्मान सीखेंगे। - बाणभट्ट
- तुमने बहुत बार बताया था कि तुम नारी देह को देव मंदिर के समान पवित्र मानते हो. पर एक बार भी तुमने समझा होता कि वह मंदिर हाड़-मांस का है. ईंट-पत्थर का नहीं। - निपुणिका
- भट्ट तुम मेरे गुरु हो, तुमने मुझे स्त्री धर्म सिखाया है। - निपुणिका
- मैं अपने को हाड़-मांस की गठरी से अधिक समझने लगी। तुमने मुझे मुक्ति दी है भट्ट। - निपुणिका
- तुम असुर गृह में आब्द्ध लक्ष्मी का उद्धार कर सकते हो? मदिरा के पंक में डूबी कामधोंनु को उबारना चाहते हो? बोलो, अभी मुझे जाना है? - निपुणिका
- मैंने प्रथम बार अनुभव किया कि मेरे भीतर एक देवता हैं जो आराधक के अभाव में मुरझाया हुआ छिपा बैठा हैं। - भट्टिनी
- प्रेम एक और अविभाज्य है। उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं। - निपुणिका
- निपुणिका में इतने गुण हैं कि वह समाज और परिवार की पूजा का पात्र हो सकती है पर हुई नहीं। इतने दिनों में मैंने उसके चरित्र में कोई कलुष नहीं देखा। - बाणभट्ट
- तुम ब्राह्मण हो आर्य, पृथ्वी के देवता हो आर्य, तुम्हारे आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा। - वृद्ध महिला
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के बारे में विद्वानों के कथन
- डॉ. नामवर सिंह के अनुसार - बाणभट्ट की आत्मकथा' आधुनिक भारत का 'राष्ट्रीय रूपक' नहीं है तो और क्या है?
- डॉ. गोविंद त्रिगुणायत के अनुसार - ऐतिहासिक उपन्यास और आत्मकथात्मक शैली में लिखा हुआ वह अकेला ही है।
- डॉ. शशिभूषण सिंहल के अनुसार - उपन्यास की कथा मूलरूप से प्रेम त्रिकोण की है. कितु उसमें प्रवृत्त पात्रों के संयम और समर्पण भावना के कारण कथा में असाधारण गरिमा आ गयी है। निपुणिका बाण की सरलता, स्निग्धा पर अनुरक्त है और बाण भट्टिनी के पावन व्यक्ति का भक्त है। तीनों पात्र अपनी भावना को व्यक्त कर, उसकी गरिमा कम नहीं करते। वे आत्मलीन और स्थिर हैं। उनका कार्यजगत उनका भावभिवोर अंतरालय हैं।
- डॉ. जगदीश कनक के अनुसार - आधुनिक बसाल की सर्वोत्कृष्ट काव्य रचना 'कामायनी' है तो गद्य रचना 'बाणभट्ट की आत्मकथा' है।
बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास के महत्वपूर्ण बिन्दु
- यह हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक ऐतिहासिक उपन्यास है।
- यह आत्मकथा के रूप में लिखा गया हिंदी का पहला ऐतिहासिक उपन्यास है।
- इसमें ऐतिहासिक पात्रों के साथ काल्पनिक पात्र भी हैं।
- यह राजा हर्षवर्धन के दरबारी 'बाणभट्ट ' कें जीवन पर आधारित है।
- उपन्यास में अनेक उत्सवों, त्योहारों, नृत्य - गान, जन्मोत्सव आदि का भी वर्णन किया गया है।
- द्विवेदी जी ने तत्कालीन वातावरण प्रस्तुत संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है जैसे- उपन्यास के प्रारम्भ में लिखा गया है, "अथ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते।"
- सम्पूर्ण उपन्यास 20 उच्छवासों में विभक्त है।
Banbhatta Ki Atmakatha Upanyas MCQ
- पुनर्नवा
- अनामदास का पोथा
- बाणभट्ट की आत्मकथा
- चारु चंद्रलेख
- 1945
- 1946
- 1947
- 1948
- औपनिवेशिक काल
- छठी - सातवीं शताब्दी
- पहली - दूसरी शताब्दी
- बारहवीं - तेरहवी शताब्दी
- चित्रात्मक भाषा का प्रयोग
- डायरी शैली में लिखा गया
- लम्बे लबे पदबंधों का प्रयोग
- उपर्युक्त सभी
- बादलों के घेरे
- बाणभट्ट की आत्मकथा
- गोदान
- गेंहूँ बनाम गुलाब
- भट्टिनी
- निपुणिका
- महामाया
- सुचरिता
- प्रेम कथा
- संघर्ष कथा
- मनोविज्ञान कथा
- जीवन मूल्यों पर आधारित उदात्त प्रेम कथा
- बाणभट्ट की आत्मकथा
- चारुचन्द्र लेख
- पुनर्नवा
- अनामदास का पोथा
- हूणों का
- हर्षवर्धन का
- उपर्युक्त दोनों का
- इनमें से कोई नहीं
- देवपुत्र
- बाणभट्ट
- मिलिंद
- हर्ष